नवगीत में यथार्थ की ख़ोज उपन्यास की तरह नहीं की जा सकती.
नवगीत में यथार्थ की ख़ोज उपन्यास की तरह नहीं की जा सकती- डॉ. इंदीवर
प्रख्यात समीक्षक डॉ. इन्दीवर पाण्डेय से कल्पना मनोरमा की बेबाक बातचीत।
कल्पना- कविता को किस आधार पर सार्थक माना जाए? कविता की आलोचना में
सामाजिक यथार्थ की खोज क्या उपन्यास और कहानी की तरह हो सकती है?
इंदीवर- कविता में
भाषिक संरचनाएँ उपन्यास और नाटक से अधिक महत्वपूर्ण होती हैं। भाषिक संरचनाओं के
विश्लेषण के अभाव मैं कविता की व्याख्या मुश्किल होगी। साहित्य के समाज विज्ञान
मैं किसी कला कृति की उत्पत्ति की परिस्थितियों और उसके परवर्ती प्रभावों का ही
विवेचन होता है। और कृति के अनुभव की उपेक्षा होती है। समाज से कृति के संबंध की
खोज महत्वपूर्ण हो जाती है और कला वस्तु की सत्यता-असत्यता का बोध जगाने वाली
अंतर्दृष्टि गौण। यह स्थिति सबसे दयनीय, दर्दनाक और संकुचित तब
हो जाती है जब उसे कविता के सबसे अधिक कलात्मक रूप नवगीत पर लागू किया जाता है। जब
नवगीत को सामाजिक यथार्थ की व्याख्या के नाम पर सामाजिक दृष्टि का दृष्टांत मान
लिया जाता है या आलोचक की सामाजिक मान्यताओं को सिद्ध करने का साधन बना दिया जाता
है, कविता के साथ अन्याय होता है। उपन्यास और नाटक की जगह
कविता को समझना उसकी व्याख्या करना इन साहित्य रूपों में मानवीय अनुभव के रूपायित
विशिष्टताओं की उपेक्षा करना है। कविता की आलोचना में यथार्थवाद का प्रतिमान की
तरह सर्वत्र प्रयोग वास्तव में उपन्यास और नाटक की दृष्टि से कविता को देखना है।
यथार्थवाद की अवधारणा का विकास उपन्यास की आलोचना से हुआ। अधिकांश समाजशास्त्री
उपन्यास और नाटक की आलोचना में इसका सफल प्रयोग करते रहते हैं। यथार्थवाद के सहारे
कविता में प्रतिबिंबन सिद्धांत को दोहराया जाता है। यह विचारणीय सवाल है।
क्या यथार्थवाद की
अवधारणा की मदद से कविता की सार्थक आलोचना हो सकती है? वर्णनात्मक
और आत्मपरक गद्य कविताओं के प्रसंग में यथार्थवाद भले कुछ उपयोगी हो लेकिन नवगीत
संरचना वाली कविताओं की व्याख्या में यथार्थवाद का प्रतिमान पूरी तरह सहायक नहीं
होगा। नवगीत प्रतीक और बिंब पर आश्रित होता है। कहीं उसमें रूमानी भाव बोध है तो
यथार्थवाद वैसे ही दुर्बल होगा जैसे अर्जुन का गांडीव जनजातियों के सामने हुआ।
नवगीत को एक क्षण के
लिए छोड़िए तो शमशेर बहादुर, गिरिजाकुमार माथुर और शंभुनाथ सिंह
की अधिकांश गद्य कविताओं के सामने यथार्थवाद निरर्थक साबित हुआ है। नागार्जुन की
कविताओं का मूल्यांकन करें तो यथार्थवाद की सीमा साफ हो जाएगी जैसे "अब तो बंद करो हे देवी/ यह चुनाव-प्रहसन या तुम रह जाते दस साल और या सत्य
को लकवा मार गया।" ऐसी कविताओं का सामाजिक अर्थ और
अभिप्राय है।
सामाजिक यथार्थ के
माध्यम से समझा जा सकता है लेकिन,"कालिदास सच सच बतलाना या श्याम घटा सित बिजुरी रेह या सुजन नयन मनि या मेघ बजे।"
आदि कविताओं की कला यथार्थवाद के दायरे से बाहर पड़ती है।
जीवन और जगत का अनुभव
कविता में प्रातिनिधक रूप में ही नहीं होता वह प्रतीकात्मक ढंग से प्रायः होता है।
उपन्यास में प्रातिनिधिक पद्धति की प्रधानता मिलती है। कविता में व्यंजना की
पद्धति प्रतीकात्मक होती है। कविता में यथार्थ और अनुभव की सीधी अभिव्यक्तियां
नहीं होतीं। उसमें पुनर्रचित यथार्थ और अनुभव की अभिव्यक्तियां होती हैं। नवगीत
कविता पर यह बात विशेष रूप से लागू होती है। इसलिए कविता का जीवन के यथार्थ से कुछ
भी अलग नहीं होता है। कविता की रचना प्रक्रिया में पहली वास्तविकता (जीवन और जगत
की वास्तविकता) का दूसरी वास्तविकता (जीवन और जगत की पुनर्रचित वास्तविकता) में
रूपांतरण होता है। कई बार अन्यथा करण भी हो जाता है। इस अन्यथा करण की व्याख्या
यथार्थवाद के सहारे कैसे होगी? कविता में कभी-कभी जीवन की
वास्तविकता से अधिक मानवीय आकांक्षा की व्यंजना होती है। कविता अपनी नितांत निजी
अनुभूतियों में समाज की आकांक्षा लिए रहती है। कविता के सौंदर्य का एक रूप भाषिक
सृजन शीलता में होता है। कविता में कुछ कवि शब्द से वैसे ही खेलते हैं जैसे चित्रकार
रंगों से। इस क्रिया भाव का विशिष्ट सौंदर्य है। विशेष तौर से नवगीत कविताओं के इस
पक्ष को यथार्थवाद की मदद से समझने का प्रयास होगा तो नवगीत की दुर्गति तो होगी और
स्वयं यथार्थवाद भी सीमाहीन होकर अर्थहीन हो जाएगा। इसलिए नवगीत
कविता अपनी कलात्मकता और यथार्थाश्रित संवेदना में ही सफल होती है।
कल्पना: आप
अपनी इस दृष्टि के आधार पर समकालीन कविता को कहां तक सार्थक मानते हैं?
इंदीवर : समकालीन
कविता रचनाधिक्य के रोग से ग्रस्त है, वस्तुतः इस धारा के
कवियों और आलोचकों ने यह मान लिया है कि वो जो कहते हैं और लिखते हैं वही समकालीन
कविता है, यह सच है कि समकालीन शब्द काल वाचक विशेषण है
लेकिन समकालीनता का अर्थ समसामयिकता नहीं है। समकालीन कविता वह कविता है जो आज की
और अभी की परिस्थितियों से उत्पन्न समस्याओं और असमस्याओं के परिणाम स्वरूप होने
वाले खंडों के खंड को रूपायित करती है। इसे लिखने वाला नया भी हो सकता है और
पुराना भी। छांदस कवि भी हो सकता है और छंद मुक्त कवि भी। आजकल कविता लिखने वालों
में यह धारणा घर कर गई है कि गद्य की पंक्तियों को तोड़कर ऊपर नीचे छोटी-बड़ी
पंक्तियों में कुछ लिख देना आज को रूपायित करने वाली समकालीन व सार्थक कविता है।
यदि यह मान लिया जाए तो गद्य और कविता का अंतर केवल लिखने के तरीके का अंतर है। आज
की गद्य कविता का स्वरूप सार्थक कविता क्या! कविता ही नहीं है। आज की कविता में
आत्मकथा, संस्मरण या यात्राविवरण, रिपोतार्ज,
कमेंट्री, डायरी आदि गद्यात्मक शैलियों का
मिश्रण कविता की संरचना में एकाकार नहीं हो पाते। अत: ऐसी समकालीन कविता सार्थक
कविता नहीं हो सकती। इसका मूल कारण है छंद रचना की नैसर्गिक प्रतिभा का अभाव। इस
प्रतिभा के अभाव में छंद मुक्त विधा में भी सार्थक कविता नहीं हो सकती क्योंकि जब
केवल गद्य कविता का माध्यम बनता है तो उसके साहित्य रूपों का कविता पर आकृतिजन्य
प्रभाव अवश्य और अनिवार्यता से पड़ता है। इस प्रकार आज की छंद मुक्त समकालीन कविता
पर गद्य काव्य रूपों का व्यापक प्रभाव पड़ा है। विचार कविता या काव्य निबंध जैसी गद्य कविता। दूसरा छंद मुक्त कविता या भावात्मक कविता।
इसके अतिरिक्त विवेचनात्मक कविता, ललित निबंधात्मक कविता,
सूक्ति प्रधान कविता, पहेली कविता, विज्ञापन शैली की कविता जैसे पच्चीसों भेद हो सकते हैं। इसमें जुगुप्सा
जनित कविता मूलतः अश्लील कथन, भ्रष्ट और नैतिक मूल्यों के
अस्वीकार की प्रवृत्ति के कारण संस्कार भ्रष्टता और उत्तरदायित्व विहीनता, अमेरिकी पूंजीवादी साम्राज्यवादी संस्कृति के अनुकरण के कारण लिखी गईं। ये
इतनी गंदगी का प्रदर्शन करती हैं कि असभ्य समाज में भी अशोभन हैं। दरअसल ये
कविताएं भारतीय संस्कृति एवं भारत भूमि की गहरी संशक्ति से कटी हुई हैं। अत: ये
सार्थक कविता नहीं हैं। जिनमें आम जनता एवं लोक जीवन का अटूट लगाव है, सामाजिकता का बोध और जीवन के केंद्र में घर की प्रतिष्ठा है। वैज्ञानिक
दृष्टिकोण एवं आधुनिकता तथा उत्तर आधुनिकता की विसंगतियों के विरुद्ध जागरूकता है।
सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक विसंगतियों, अन्याय शोषण के विरुद्ध
आक्रोश और विद्रोह की प्रवृत्ति है, उनका रूप शिल्प छंद
मुक्त हो या छांदस हो, ऐसी कविता सार्थक कविता है।
कल्पना: साहित्य
की विभिन्न विधाओं में आपने लिखा है। समीक्षा के क्षेत्र में आपने कविता की
अपेक्षा नवगीत का पक्ष कई कृतियों के द्वारा दृढ़ता से रखा है। आख़िर नवगीत को
कविता या समकालीन कविता से अलगाने की जरूरत क्यों पड़ी ?
इंदीवर: मैं कविता और
नवनीत मैं कोई फर्क नहीं मानता। मेरी दृष्टि में नवगीत समकालीन कविता की भारतीय
काव्य परंपरा वाली अधुनातन कड़ी है। प्रारंभ में जब सन 1950 के
आसपास नई कविता में सभी छायावादोत्तर काव्य प्रवृत्तियों का संश्लेषण हो गया।
व्यक्तिवादी, स्वच्छंदतावादी काव्य, प्रगतिवादी
काव्य, प्रयोगवादी काव्य, मुक्तछंद के
गीत, छंदोबद्ध गीत, सोनेट आदि जो
आंचलिकता और लोक चेतना के टटकेपन से आप्लावित थे वे सब नई कविता में शामिल थे,
अज्ञेय ने सप्तकों में गीतों को नई कविता का गीत कहकर स्थान दिया
था। सन साठ के बाद गीत लिखना पिछड़ेपन की निशानी मान ली गई थी।
छंद मुक्त कविता जो गति की पंक्तियों को तोड़कर लिखने
जैसी थी उसे कविता कहा जाने लगा और छंदोबद्ध रचना को गीत या प्रगीत कहा जाने लगा।
इन लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया कि गीत या प्रगीत में स्वाधीनता का केंद्रीय भाव
वैयक्तिक भाव के माध्यम से आता है। कविता में स्वाधीनता का यह भाव वस्तुगत
परिस्थितियों की योजना द्वारा आता है। प्रगीत में कवि की वैयक्तिकता उभरी होती है, कविता में जीवन की वस्तुगत
स्थितियां। प्रगीत में बौद्धिकता के ऊपर भाव का शासन होता है और कविता में भाव के
ऊपर बौद्धिकता का। यदि प्रगीत और कविता का यही अंतर होता तो प्राचीन काल के सभी
गीत काव्य को या रवींद्रनाथ ठाकुर, प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा, और
बच्चन आदि के गीत काव्य को कविता न कहा जाता। यह सभी गीत रचनाएं भाव प्रधान ही
नहीं है इसके विपरीत उनमें से अधिकांश में जीवन की वस्तुगत परिस्थितियों की
अभिव्यक्ति हुई है। वस्तुतः इन लोगों ने अपनी छंद मुक्त गद्य कविता को कविता तथा
छंदोंबद्ध रचना को प्रगीत या गीत कहने का दुराग्रह किया है। प्रश्न उठता है कि क्या काव्य और कविता दो चीजें हैं? वस्तुतः ये कवि इजरा पाउंड,कमिग्ज,
टी एस इलियट आदि अंग्रेजी कवियों की
कविताओं से प्रभावित हैं। इनके अनुकरण द्वारा छंद मुक्त कविताओं को अपनाकर इस
विचारधारा के कवियों और समीक्षकों ने भारत की छांदस काव्य परंपरा को उखाड़ फेंकने की साजिश
रची। इस तरह कविता से नवगीत को उन लोगों ने ही अलगा दिया।
मैं मानता हूं कि
भारतीय जनता ने हजारों वर्षों के इतिहास में बार-बार विदेशियों के आक्रमण झेले।
गुलामी का भार ढोया पर उसका मानस कभी भी गुलाम नहीं हुआ। दिल्ली में विदेशी शासन
रहता था। जनता उन विदेशी शासकों की संस्कृति से अप्रभावित रही। 100 साल
पहले इमर्शन ने अमरीकी बौद्धिकों को सावधान किया था,“यूरोपीय
संस्कृति की नकल करके नए अमेरिका का निर्माण नहीं हो सकता।” जवाहरलाल
नेहरू ने भी डिस्कवरी ऑफ़ इण्डिया में लिखा है,” कला और
साहित्य यदि निरंतर विदेशी आदर्शों पर ध्यान दें तो निष्प्राण हो जाते हैं। हमें
अपनी जनता और देश को सदैव दृष्टि में रखना है।सच्ची संस्कृति तो प्रेरणा कहीं से
ले किन्तु वह हमेशा स्वदेशी और जनता की भावनाओं पर आधारित होती है।” अत: मैंने भारतीय काव्य परंपरा की आधुनिकता से युक्त नवगीत की उपेक्षा के
खिलाफ अपनी आवाज उपस्थित की है।
कल्पना: नवगीत का
उद्भव आप कब से मानते हैं। नवगीत का प्रवर्तक कौन है? आपने
अपनी पुस्तक सार्थक कविता की तलाश और ‘नवगीतनामा’ में शम्भुनाथ सिंह को नवगीत शब्द का प्रथम प्रयोक्ता माना है फिर राजेंद्र
सिंह के बारे में आपका क्या ख्याल है?
इंदीवर: नवगीत का बीज
निराला ने सन 1935 में अपनी काव्य पुस्तक गीतिका में डाला था। इसके बाद
निराला की पुस्तकें "बेला और नए पत्ते" प्रकाशित हुईं। बेला की भूमिका में निराला ने लिखा है कि बेला मेरे नए
गीतों का संग्रह है। भाषा सरल तथा मुहावरेदार है। गद्य करने की आवश्यकता नहीं है।
निराला ने इस तरह जिस नवीनसर्णिका का उन्नयन किया। यह
बिंबों द्वारा यथार्थ की भूमि से संशपर्षित था। नवगीत के प्रमुख तत्वों में
लोकजीवन, आंचलिकता, यथार्थ परक चित्रण,
व्यष्टि और समष्टि के प्रति उदारता, भारतीय
जीवन बोध और भारतीयता के प्रति आशक्ति आदि समाहित है। इन तत्वों का निराला के कुछ
गीत बखूबी निर्वहन करते हैं। ‘मैं अकेला’ ‘स्नेह निर्झर बह गया है’ ‘बांधों न नाव इस ठांव बंधु’
आदि गीतों में नवगीत का बीजारोपण हुआ है। इस तरह निराला नवगीत के
प्रवर्तक हैं। रही बात राजेंद्र सिंह और शम्भुनाथ सिंह की तो यह सच है कि राजेंद्र
प्रसाद सिंह ने अपनी संपादित पुस्तक ‘गीतांगिनी’ में सन 1958 में नवगीत शब्द का लिखित प्रयोग किया था
लेकिन यह भी सच है कि इलाहाबाद हिंदी साहित्य सम्मेलन की एक गोष्ठी सन 1956
में तथा इसके पूर्व की परिमल की गोष्ठियों में डॉ. शंभूनाथ सिंह ने
नई कविता के मंच पर अपने गीतों को नवगीत कहकर सुनाया था। इस बात को जगदीश गुप्त ने
एक साक्षात्कार में बताया है जो जन साप्ताहिक नी
दिल्ली के मई १९७८ के अंक में प्रकाशित हुआ है। इसके अतिरिक्त काशी हिंदू
विश्वविद्यालय के एक शोध प्रबंध में भी यह बात लिखी गई है। जिसके निर्देशक
प्रोफ़ेसर शिवप्रसाद सिंह रहे हैं। इस तरह यह साफ है कि वाचिक रूप से नवगीत शब्द
के प्रथम प्रयोक्ता डॉ. शंभुनाथ सिंह ही थे। यह बात तब और स्पष्ट हो जाती है जब
"गीतांगिनी" की भूमिका को पढ़ा जाता
है। उन्होंने लिखा है,‘समकालीन हिंदी कविता की महत्वपूर्ण और
महत्व हीन रचनाओं के विस्तृत आंदोलन में गीत परंपरा नवगीत के निकाय में परिणित
पाने को सचेष्ट है।’ प्रश्न उठता है नवगीत का निकाय क्या है?
जिसमें गीत परंपरा परिणति पाने को सचेष्ट है?
क्या पारंपरिक गीत
लोकगीत का सम्यक समूह बन गया था? क्या पारंपरिक गीत लोकगीत की देह में
घुस गया था? पारंपरिक गीत की आत्मा नवगीत के परंपरागत रूप
में विलीन हो गई थी? कहीं नवगीत राजेंद्र प्रसाद और उनके
साथियों की स्थानीय संस्था तो नहीं? जिसमें पारंपरिक गीतों
का विलय हो गया? अथवा नवगीत वो संघ है जिसके हाथ में
पारंपरिक गीत जैसे कलकारखाने का नियंत्रण सौंप दिया गया हो? और
इसके नियंत्रक राजेंद्र प्रसाद बन गए हों। "वस्तुतः
लोकगीत स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद तीन दशकों में विकसित नवीन काव्यधारा है जो एक
ओर तो पारंपरिक गीत धारा से नितांत भिन्न है दूसरी ओर समसामयिक नई कविता से कथ्य
और शिल्प दोनों स्तरों पर पूरी तरह अलग है। ‘मात्र गीत कहने
से उसकी पहचान लुप्त हो जाती है और नई कविता कहने से उसकी अस्मिता ही लुप्त हो
जाती है। उसका एकमात्र सार्थक नाम नवगीत ही है।’ यह वक्तव्य
"वासंती" पत्रिका में डॉक्टर
शंभुनाथ सिंह का है। उपर्युक्त उद्धरण को देखने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है की
नवगीत के प्रथम प्रयोग के समय डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के मन में शंका थी इसलिए
उन्होंने नवगीत के निकाय में….. कहकर छुट्टी पा ली। लेकिन शंभुनाथ सिंह के मन में
शंका एकदम नहीं थी इसीलिए उन्होंने हर जगह नवगीत नाम का ही उपयोग किया।
कल्पना: नवगीत
को स्थापित करने वाला अब तक का सबसे प्रामाणिक संकलन
कौन सा है? आपकी एक समीक्षा की कृति है ‘नवगीत का दस्तावेज’ इसमें क्या कवियों को आपने नवगीतकार
मानकर समीक्षा की है या नवगीत का दस्तावेज एक प्रामाणिक समीक्षक के रूप में आपके
द्वारा दिया जाने वाला प्रमाण पत्र है?
इंदीवर : मैं प्रमाण
पत्र देने वाला कौन हूं। वस्तुतः शंभुनाथ सिंह द्वारा संपादित नवगीत के तीनों दशक
ही नवगीत का एकमेव पहले प्रामाणिक संकलन हैं। इसके पहले गीतांगिनी में संकलित
रचनाएं किसी भी दृष्टि से नवगीत नहीं हैं। इसकी भूमिका में नवगीत के लिए राजेंद्र
प्रसाद सिंह ने जीवन दर्शन, आत्मनिष्ठा व्यक्ति बोध, प्रीति तत्व
जैसे पंच तत्वों का परिगड़न किया है। अब यह नवगीत क्या किसी भी काव्य रचना में होता
है। गीतांगिनी की प्रासंगिकता और उपादेयता पर समीक्षक विश्वनाथ प्रसाद ने लिखा है,
"क्या बात है आप मुंह मियां मिट्ठू। गीतांगिनी समझदारी और
दिवालियेपन का मानक है।" संपादक ने 90 के लगभग गीत चुने हैं उसमें तीन या चार ही नवगीत हैं बाकी सब गीत। अच्छा
हो गीतांगिनी का नाम न लिया जाए। इसके बाद चंद्रदेव सिंह और महेंद्र शंकर ने पांच
जोड़ बांसुरी नामक संकलन का संपादन और प्रकाशन कराया। इसमें हरिवंश राय बच्चन से
लेकर माहेश्वर तिवारी तक के गीतों का सामंजस्य बैठाने का प्रयास किया गया है। अतः
यह संकलन छायावादोत्तर गीतों का प्रतिनिधि संकलन बनकर रह गया है। इसके बाद नवगीत
दशकों का प्रकाशन होता है जो प्रायः जेनुइन नवगीतकारों के नवगीतों का संकलन है।
अपवाद और आलोचना के लिए स्थान हो जाया करते हैं। सच्चाई यही है कि तीनों नवगीत दशक
नवगीत के दस्तावेज हैं। इसलिए मैंने तो केवल नवगीत दशकों के कवियों और उनके
नवगीतों की समीक्षा की है। अतः नवगीत दशक स्वयं में प्रामाणिक दस्तावेज है। इसमें
नई सदी के नवगीतकारों को बहुत संक्षेप में परखने की कोशिश की गई है।इनमें दो तीन
कवियों को अपवाद के रूप में लिया जा सकता है, जिनमें नवगीत
की परख और पहचान को लेकर प्रश्नचिह्न लगाये जा सकते हैं।यद्यपि कि उन्होंने अच्छा
प्रयास किया है।
कल्पना: आपने
सार्थक कविता की तलाश और ‘नवगीतनामा’ में
10-10 कवियों पर लंबी आलोचना लिखी है। ये कवि राजेंद्र
प्रसाद सिंह, वीरेंद्र मिश्र रविंद्र भ्रमर, स्वामीनाथ
पांडे, रमेश रंजक, शांति सुमन, घनश्याम अस्थाना, सत्यनारायण श्याम निर्मम एवं हरीश
निगम हैं। क्या आपने शंभुनाथ सिंह की चयन दृष्टि के प्रमाद
को परिष्कृत कर पूर्णता प्रदान की है ?
इंदीवर: मैंने सार्थक
कविता की तलाश और नवगीतनामा में समकालीन कविता की साफ सीधी और स्पष्ट आलोचना की
है। भारतीय काव्य परंपरा के अंतर्गत भारतीय जीवन और भारतीयता की आत्मा को कथ्य के
रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसीलिए मैंने इस अपेक्षा पर खरे नवगीतकारों को
नवगीत के निकष पर परखने का प्रयास किया है। मेरी दृष्टि में छांदस और लायात्मक,संवेदन
धर्मी, संस्पर्शशक्ति वाली रमणीय,सम्प्रेष्णीय,बिंबधर्मी,अनलंकृत, स्वायत्तय
व अप्रतिबद्ध,लोक्संप्रिक्त जन के प्रति संशक्ति वाली,
भारतीयता की चेतना और जातीय बोध वाली यथार्थ प्रसंग विसंगतियों की
पीड़ा और सामाजिक पीड़ा को अभिव्यक्ति देने वाली, जीवन के
केंद्र में मानव की प्रतिष्ठा स्थापित करने वाली, भारतीय ढंग
के आधुनिकता बोध को, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक चेतना को,
परंपरा के नैरंतर्य, सौंदर्य प्रेम और मानवीय
भाव स्थितियों की जीवनी शक्ति के रूप में स्वीकृति देने वाली जीवंत और गत्यात्मक
आम आदमी की कविता, नवगीत और सार्थक कविता है। इसी दृष्टि से
या किसी निकष पर मैंने उस समय के चर्चित 10 प्रतिनिधि
गीतकारों की समीक्षा की है। यह संयोग है कि यह नवगीत दशक के संपादक के चयन दृष्टि
में आने से वंचित रहे। समीक्षा में मैंने इन कवियों के विशिष्ट पक्ष और न्यून पक्ष
को भी रखा है। दरअसल नवगीत का दस्तावेज और सार्थक कविता की तलाश और नवगीत नामा
दोनों को मिलाकर पढ़ने के बाद नवगीत के समग्र आकलन की दृष्टि पूरी हो जाती है।
कल्पना: गीत नवगीत में
क्या अंतर है ? युवा नवगीतकारों के बारे में आपका ख्याल क्या है?
इंदीवर: एक वाक्य में
अगर मैं कहूं तो गीत नवगीत मैं वही अंतर है जो नई कविता और पुरानी कविता में होता
है। पारम्परिक गीतों से भिन्न नवगीत ने कथ्य एवं शिल्प दोनों स्तरों पर गीत को
नूतन परिवेश में रुपायित कर नए सिरे से उसका उद्धार किया। क्षयी रोमान्स से उबारकर
उसे नवचेतना प्रदान की। परिणामस्वरूप एक नई दृष्टि और नूतन भावबोध का अभ्युदय हुआ।
पारम्परिक गीतों में अहं की तीब्राभिव्यक्ति हुई थी जिसने कवि के मनोभावों को
आत्मरति, आत्म प्रशंसा एवं आत्म विश्वास के स्तर पर पहुँचा दिया था।
कवि अपने विशिष्टता के बोध में इस प्रकार अहं की तुष्टि हेतु कल्पना के प्रासाद
बनाने लगता है। नवगीत ऐसे भ्रमों से अछूता है। उसके लिए कविता की प्रक्रिया संघर्ष
की प्रक्रिया है अथवा रोशनी के छन्द की प्रक्रिया, मौन की
साधना है। पारम्परिक गीत कवियों ने प्रेम, सौन्दर्य,
विरह, संयोग, आशा,
निराशा, मान-मनुहार आदि के वैयक्तिक लोकपरक,
मांसल दृष्टि सम्पन्न गीतों की रचना में ही अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा
का स्खलन कर दिया। अत्यन्त भावुकतापूर्ण सस्ते रुमान ने जीवन के जिस यथार्थ की
सृष्टि की वह निरा एकान्तिक, एकदेशीय और एक रस संकीर्णता से
संयुक्त था। वासना की उद्दामता, मादक परिवेश की सर्जना केवल
मध्ययुगीन दृष्टियों तक ही सीमित न रही, अपितु अजन्ता,
एलोरा की गुफाओं से भी आगे सहृदय को बहला ले गई। इन गीतों में विषय
रूप स्थूल साधनों का आधिक्य समावेष्टित हुआ और चाक्षुष बिम्बों की वपुमान, मधुस्निग्ध और चर्वणा सुलभ रचना हुई। किन्तु नवगीत ने प्रेम, सौन्दर्य और जीवन के सस्ते रोमान से अपने को बहलाना उपयुक्त न समझा। उसने
युगीन समस्याओं को अपनी संवेदनापरक दृष्टि से रुपायित करना तथा उसके अन्तराल में
प्रविष्ट होकर युगीन सन्दर्भों में मानव मन की हर धड़कनों, हर
एहसासों अभिनव आयामों पृष्ठभूमि पर अभिव्यक्ति देना स्थिर किया। भावुकता की
गलदश्रु आविलता से मुक्त यथार्थ की खुरदरी और ठोस जमीन उसके पाँवों के नीचे थी।
नवगीत ने कोमलतम
परिवेश की मधुरिमा से अपने को अनपेक्षित और निराशंसी सिद्ध किया। पारम्परिक गीत की
विषयगत संकीर्णता उसे असह्य थी। एतदर्थ उसने विषय की व्यापकता का अनुसरण कर
सामान्य से सामान्य वस्तु विषय और व्यापार को अपने सृजन का आधार बनाया। विरहजन्य
निराशा और तंजन्य कुण्ठा नवगीत का आधार कभी नहीं रहा। इसका तात्पर्य यह नहीं कि
प्रेम, सौन्दर्य आदि विषयों के लिए नवगीत ने कोई 'लक्ष्मण रेखा खींच ली है। यह संभव भी नहीं है। प्रेम की तन्मयता की लय की लयात्मक प्रवृत्ति से मानव की सनातन प्रवृत्ति
जुड़ी है। अतः नवगीत अथवा गीत किसी भी युग में उसे अपने कथ्य से झटक कर फेंक नहीं
सकता किन्तु उसकी प्रस्तुति का कोण यौन आकर्षण अथवा मांसलता न होकर स्वस्थ
गार्हस्थ जीवन का प्रेम है। नवगीत ने उपहास्य
भावुकता से विरक्ति ग्रहण कर नूतन सौन्दर्य बोध को अपना माध्यम बनाया है। उसमें
मधुबाला, मधुशाला और मधुकलश आदि पर व्यक्त की गई मधुचर्या अथवा
विरहजन्य निराशा से भी मुक्ति ली गई है। उसके बदले उसने मानव मन की पीड़ा, घुटन, संत्रास को वाणी देकर अमृत तत्व के तलाश की
भूमिका प्रस्तुत की है। पारम्परिक गीतों की भाँति "क्षणवाद'
और मृत्यु की उपासना भी नवगीत का विषय नहीं रहा है। नवगीत और पारम्परिक
गीतों का सबसे बड़ा अन्तर उसको काव्य दृष्टि का है। जिसके अनुसार पारम्परिक गीत के
छन्द, टेक,
अन्तरा सम्बन्धी उन विशेषताओं में ही परिवर्तन नहीं आया है, जिसका गीत के शिल्प से सीधा सम्बन्ध समझा जाता है, बल्कि
उन स्वीकृत मान्यताओं को भी नवगीत में एक नया रूप मिला है, जिन्हें
नवगीत की आधारभूत विशेषताओं के अन्तर्गत गिना गया है। सामान्यतः गीत के जो तत्व
निर्धारित किए गए हैं यथा आत्मानुभूति, रागात्मकता, आकारलघुता, सहजता, संगीतात्मकता
लयात्मकता और प्रभावान्विति। नवगीत ने तत्व निर्धारण की इस हद को समाप्त किया है,
दूसरी ओर उपर्युक्त तत्वों में से जिन्हें ग्रहण किया है, उसे नया एवं परिवर्तित सन्दर्भ प्रदान किया है। नवगीत की भाषा सहज,
आम बोलचाल की भाषा है, लोक शब्दावलियों एवं
मुहावरों का खूब प्रयोग हुआ है।
युवा गीतकार नवगीत
लेखन के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। उनमें कुछ से बहुत अच्छी आशा बंधती है। जैसे
अवनीश त्रिपाठी, राहुल शिवाय, गरिमा सक्सेना, शुभम श्रीवास्तव, योगेंद्र मौर्य आदि नए लोग अच्छा
प्रयास कर रहे हैं। वस्तुत: नवगीत लिखने वालों की नई पीढ़ी जिस तेजी के साथ अपने
को गीतकार कहती है उस तरह से परिश्रम नहीं करती। कुछ नामों को अगर छोड़ दिया जाए
तो बाकी लोगों को नवगीत का कांसेप्ट ही क्लियर नहीं है। उन्हें भारत की प्राचीन
सांस्कृतिक दृष्टि और समकालीन वैज्ञानिक यांत्रिक चीजों के बारे में सम्यक अध्ययन
नहीं है। नई टेक्नोलोजी विश्व की राजनैतिक कुटिल संघर्षधर्मिता,जीवन की जटिलता आदि का अपने देश पर क्या प्रभाव पड़ता है और उससे आम आदमी
और इलीट वर्ग किस तरह प्रभावित होता है, इसका सूक्ष्म ज्ञान
उनके पास नहीं है।
कल्पना: नवगीत के
समवेत संकलन उसकी विकास यात्रा में कितने साधक अथवा बाधक हैं?
इंदीवर: नवगीत के
समवेत संकलनों की बात मेरी समझ में नहीं आती है। जितने तथाकथित समवेत संकलन नवगीत
के नाम पर किए गए हैं उनकी आवश्यकता क्या है? अथवा इनका उद्देश्य क्या
है यह समझ नहीं आता। संकलन किसी विशेष विधा के लिए जब वह प्रावर्तित होती है या
नई-नई प्रारंभ होती है तो उसका परिचय कराने के लिए उसका उद्देश्य नीति वक्तव्य और
वस्तुगत परिवर्तन को निरूपित करने के लिए प्रकाशित किया जाता है। नई कविता में जब
अज्ञेय ने सप्तकों का प्रकाशन किया तो उसके बाद नई कविता के कितने संकलन आए जिनकी
चर्चा हुई? नई कविता से अलग जब अकविता का प्रादुर्भाव हुआ तब
‘बीजाक्षर’ के अतिरिक्त कौन से समवेत संकलन है
जिन्हें याद किया जा सकता है? इसी तरह नवगीत में नवगीत दशकों
के बाद जो कुकुरमुत्ते की तरह समवेत संकलन उग आए उन्होंने किस नएपन अथवा नई धारा
का सूत्रपात किया? सच तो यह है कि इन संकलनों के संपादकों के
पास किसी विधा विशेष की नवीनता की गहरी और सूक्ष्म समझ ही नहीं है। नवगीत की नवता
के आयामों एवं उसके निकस से अपरिचित इन संपादकों ने केवल कुनबा बनाने के लिए नवगीत
के नाम पर नवगीतेतर रचनाओं का आगार खड़ा किया है। इन संपादकों ने केवल
"सजनी हमहूं राजकुमार" की कहावत को
चरितार्थ करते हुए 100 से लेकर 500 गीतकारों
के गीत संकलित कर नेता बनने की नाकाम कोशिश की है। इसलिए इन समवेत संकलनों का
नवगीत के विकास में कोई योगदान नहीं है। उल्टे इन संकलनों ने नवगीत का नुकसान ही
किया है। सच तो ये है कि नई कविता की स्थापना और प्रतिष्ठा में जो योगदान सप्तकों
का है वही स्थान नवगीत की प्रतिष्ठा और स्थापना में नवगीत दशकों का है।
कल्पना: मंचीय कवियों
के बारे में आपका क्या ख्याल है? मंच पर नवगीत पढ़ने
वालों के बारे में आप क्या कहेंगे?
इंदीवर: मंचीय कवि। यह
अपने आप में एक रूढ़ शब्द हो गया है। मंचीय और गैरमंचीय का पार्थक्य मूलतः
गैरमंचीय लोगों के लिए बौद्धिकता, वस्तुगतता और लोकतंत्रात्मकता की
अभिव्यक्ति के लिए माना जाता है। मंचीय कवि व्यक्तिगत भावनाओं, मांसल रोमान जैसे चीजों से जनता का मनोरंजन करने के लिए जाने जाते हैं।
बार-बार इन बातों की व्याख्या की गई है कि कविता परिवर्तन का औजार है। वस्तुत: कोई
साहित्य न औजार होता है न वह कोई डायरेक्ट क्रांति करता है। हां, क्रांति के लिए वातावरण जरूर बनाता है। मनुष्य के मस्तिष्क को यंत्रणा और
संत्रास से मुक्त होने के लिए प्रेरित करता है। अत: लिजलिजी भावुकता वाली और मंचों
पर भड़ैती जैसी रचनाएं मंचीय रचनाएं हैं। और इन्हें प्रस्तुत करने वाले मंचीय कवि।
ऐसी मंचीय कविता साहित्य के क्षेत्र में नहीं गिनी जा सकती। रही बात मंच पर गीत
पढ़ने की तो बिना मंच के साहित्य की गतिविधियां चल पाती है क्या? जब आप संगोष्ठियों का, सेमिनार का, सिंपोजियम का आयोजन करते हैं तो मंच बनाते हैं या नहीं? और मंच से अपनी बात वाचिक तरीके से कहते हैं या नहीं? तो जब गद्य मंच से प्रस्तुत किया जा सकता है तो कविता क्यों नहीं प्रस्तुत
की जा सकती है? डॉ रामकुमार वर्मा तक मंच की समृद्ध परंपरा
रही है। बाद में श्रव्य और पाठ्य की बहस के बीच कविता के लिए मंच अस्पृश्य कहा
जाने लगा। इसमें गीत कवियों बच्चन,अंचल,नेपाली आदि की परंपरा में कवियों ने जो सस्ती चीजें प्रस्तुत की उससे
शिष्ट साहित्य और परिष्कृत रुचि वालों के लिए मंच त्याज्य हो गया। अब परिष्कृत
रुचि वाले श्रोता मंच तक नहीं आते इसलिए नवगीत को श्रेष्ठ लोगों के बीच पढ़ने में
कोई बुराई नहीं है। वस्तुत: नवगीतकार पेशेवर मंचीय कवि नहीं हो। मंच पर वह नवगीत को
पहचान देने के लिए जा सकता है। बशर्ते यह मंच पढ़े-लिखे एकेडमिक लोगों के बीच में
हो।
कल्पना: सारे प्रयासों
के बावजूद नवगीत एकेडमिक जगत में अपनी पहचान क्यों नहीं बना पा रहा है ?
इंदीवर: नवगीत एकेडमी
जगत में पहचान नहीं बना पा रहा है। मोटे तौर पर उसके दो कारण हैं। पहला तो एकेडमिक
जगत यानी विश्वविद्यालयों और सरकारी हिंदी संस्थानों पर उन लोगों का वर्चस्व है जो
लोग भारतीयता की शाश्वत परंपरा से कटे हुए हैं। इन की दृष्टि में मार्क्स,कामू,काफ्का किर्केगार्ड आदि ही विचारक हैं। टी. एस. इलियट, वाल्टहिटमैन, एजरा पाउंड आदि ही बौद्धिक कवि हैं। ये
लोग भारत की छांदस काव्य परंपरा के विरोधी हैं और उसे साहित्य के क्षेत्र से खारिज
करते हैं। अतः शाजिसन वे नवगीत को विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल नहीं
करते। यद्यपि बीसवीं सदी के अंतिम दशक में डॉक्टर शंभूनाथ सिंह के अथक प्रयासों के
परिणाम स्वरूप नवगीत प्रतिष्ठित और स्थापित हो गया। आंशिक रूप से ही सही विभिन्न
विश्वविद्यालयों में नवगीत शोध का विषय बना है। शंभुनाथ सिंह, देवेंद्र शर्मा इंद्र, माहेश्वर तिवारी आदि को
जहां-तहां पाठ्यक्रमों में भी स्थान मिला है। लेकिन विश्वविद्यालय के प्राध्यापक
समीक्षकों ने अभी भी इस पर काम करना शुरू नहीं किया है। दूसरा कारण यह है नवगीत
में अब विशेष तौर से 21वीं सदी में ज्यादातर छांदस गीत लिखने
वाले समकालीन जीवन बोध को पकड़ नहीं पाते हैं। अध्ययन, चिंतन,
मनन के स्तर पर अधिकांश लोग शून्य हैं। समकालीन कविता के कवियों में
अध्ययन अध्यापन के द्वारा जो चिंतन मनन विकसित होता है वह गीत कवियों में नहीं हो
पाता। कारण यही है कि आज के अधिकांश गीत लेखक छंद जोड़ने, तुकबंदी
करने, लय बांधने की कला तो रखते हैं लेकिन उनका क्षेत्र
विश्वविद्यालयी या एकेडमिक नहीं है।
गीत लिखने वाले
स्वयंभू नवगीतकार अपना समूचा जीवन टेलीफोन, डाकखाना, अभियंत्रिकी, दुकान आदि पर बिताते हैं। और छंद
तुकबंदी के माध्यम से गीतकार होने का दम भरते हैं। ऐसे अध्ययन अध्यापन से कटे
लोगों को नवगीत के नाम पर एकेडमिक जगत क्यों स्वीकार करेगा? जिन्हें
दुनिया की जटिल स्थितियों, दुनिया में होने वाले
परिवर्तनों, समकालीन वैज्ञानिक उपलब्धियों और पृथ्वी से दूर
ग्रह नक्षत्रों की खोज के परिणामों का ज्ञान ही नहीं है। आज का जीवन तमाम
प्राकृतिक भौतिक और राजनीतिक कुटिलताओं का संत्रास जिस तरह से भोग रहा है उसकी
संवेदना की समझ अगर नवगीतकारों को नहीं होगी तो एकेडमिक जगत उन्हें स्वीकार नहीं
करेगा।
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