अंग्रेजी के सामने हिन्दी को हीन न समझें|

बहुआयामी प्रतिभा के धनी और हिंदी लेखकों में अग्डॉरणीय .रामदरश मिश्र जी जिन्होंने हिन्दी की सभी विधाओं में अपनी सार्थक लेखनी चला कर हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है| विगत दो अक्टूबर दो हजार सत्रह को श्रीमान सुधाकर पाठक जी जो कि-हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी के सम्पादक एवं अध्यक्ष हैं और श्री मनीष चन्द्र पाण्डेय जी के सौजन्य से मिश्र जी के निवास पर उनसे मिलने का मौक़ा मिला |प्रस्तुत हैं कल्पना मनोरमा द्वारा डॉ.रामदरश मिश्र जी से की गयी ख़ास बातचीत के अंश | 

  

कल्पना : आपके विचार से वर्तमान समय में हिन्दी की क्या स्थिति है?क्या आप इस दौर से संतुष्ट हैं?

रामदरश मिश्र : अभी हाल ही में दैनिक जागरण पढ़ा था और अलग से भी उस पर चर्चा आई है कि- हिन्दी  की स्थिति इस समय क्या है? तो हिन्दी अपने देश के तमाम प्रदेशों की मुँह लगी अपनी भाषा है और लोग हिन्दी बोल कर संतुष्ट भी हैं| जो अभिजात्य वर्ग है वो अपने स्तर पर हिन्दी को समझता हैं| जैसे हमारे देश का प्रबुद्ध वर्ग अंग्रेजी का गुलाम है, ऐसे ही सामान्य जन, आम जनता कौन सी भाषा में  अपना काम करती है, घूमती है, बातें करती है, सपने देखती है तो वह बड़ी बात है| देश का एक बड़ा जनसमूह हिन्दी की बात करता है उसमें लय बनाए हुए है और यह अपने आप में बहुत बड़ी बात है कि भारत का आम वर्ग जो हिन्दी को ओढ़ता बिछाता है, वह इसको थाम कर चल रहा है| यह स्वीकृति सम्मति है कि हिन्दी अनेक देशों में पढ़ी और पढ़ाई जा रही है|

कल्पना: हिन्दी के धरातल पर दिन-प्रतिदिन मजबूत होता अंग्रेजी का वृक्ष और सरकार का मौन, इस पर आपका क्या कहना है?

रामदरश मिश्र : सबसे पहले तो यही कहूँगा कि हिन्दी को छोड़कर और कोई भाषा नहीं है जो पूरे देश में संवाद स्थापित कर सके| यह एक बड़ी बात है कि देश का आमजन आज भी हिन्दी में जी रहा है और कोई भाषा नहीं है जो समग्र देश से समता से संवाद कर सके,अगर अंग्रेजी भारत में अपनी जड़ें मजबूत कर रही है तो तमाम बाहरी देशों में हिन्दी को आदर से पढ़ाया-लिखाया जा रहा है | अब बाहर के देशों में हिन्दी का साहित्य पढ़ा एवं सराहा जा रहा है| जहाँ तक सवाल सरकार और उनके लोगों का है तो वहाँ  की स्थिति बड़ी खराब है| हिन्दी भाषा तो हमारे देश के स्वाभिमान की भाषा होनी चाहिए जैसे राष्ट्रीय पताका है, राष्ट्रीय पक्षी है, राष्ट्रीय फल आदि है | उसी प्रकार इसे भी होना चाहिए| आखिर हिंदुस्तान के लिए तो यह भी एक स्वाभिमान की चीज है|मुझे एक बात बहुत बुरी लगती है कि सब कुछ जानते हुए भी हम अंग्रेजियत के गुलाम होते जा रहे हैं,जो ये जानते है कि-अंग्रेजी माध्यम से ही वे गौरव प्राप्त कर सकते हैं | वही लोग हिन्दी  का अपमान सा करते दिखाई पड़ते हैं| एक बात और गौर करने योग्य है कि-जो अन्य प्रदेशों के लोग हैं वे अंग्रेजी को काम काज की भाषा तो मानते हैं, किन्तु अपनी भाषा को बहुत प्रेम करते हैं |मैंने कई जगहों पर देखा| अब दक्षिण भारत में ही देखिये साइनबोर्ड हो या बसों पर और अस्पतालों के बोर्डों पर उनकी अपनी भाषा में लिखा होता है और वहाँ उसके साथ अंग्रेजी भी नहीं लिखी जाती,फिर अगर वे लोग हिन्दी का विरोध करते हैं ,तो वे अपनी भाषा का आदर भी तो करते हैं |ये देखा जाना जरुरी है कि –हम अपनी भाषा से कितना प्यार करते हैं |

कल्पना :जैसा कि आपने कहा कि- “हम अपनी भाषा को कितना प्रेम करते हैं” तो इसके मापदंड कैसे तय किये जायें ?

रामदरश मिश्र : यह बड़ी चिंता की बात है | जब मैं गुजरात में था तो देखा करता था कि–गुजरात विश्वविद्यालयों के सारे कार्य उनकी अपनी भाषा गुजराती में होते थे | हमारे यहाँ के विश्विद्यालयों की चिट्ठियों का आदान-प्रदान अंग्रेजी में ,शादियों के कार्ड अंग्रेजी में,मेनू कार्ड अंग्रेजी में और मित्रों से चर्चाएं -परिचर्चाएं भी अंग्रेजी में होतीं हैं | यहाँ का पढ़ा-लिखा ऊँचे तबके का समाज इसमें अपनी शान समझता है |यहाँ देखने की बात यह है कि-हम बैकल्पिक भाषा को प्रधानता के साथ अपना रहे हैं और अपनी मूल भाषा का जिक्र करने में भी शर्म महसूस कर रहे हैं |जबकि होना यह चाहिए कि-हम एनी भाषाओं का आदर तो करें किन्तु अपनी भाषा का निरादर भी न होने दें |ठीक उसी तरह जैसे हम दुसरे की माँ भी सम्मान करते हैं किन्तु अपनी माँ सर्वोपरि होती है आख़िर हिन्दी भी तो हमारी भाषा है|

कल्पना: वर्तमान दौर की स्थिति-परिस्थिति में सरकार की भूमिका को आप किस अर्थ में देखते हैं ?

रामदरश मिश्र : हाँ, इसमें सरकार की भूमिका है | सरकार जितना कर सकती है वो उसे करना चाहिए था और रही अनुमति की बात तो संविधान को देना चाहिए थी | हिन्दी हमारी राज भाषा है,देश की राज भाषा है;तो इसमें दिक्कत क्या थी ? आप हिन्दी को अंग्रेजी का गुलाम बनाए बैठे हुए हैं जबकि हिन्दी संविधान से मानी है तो उसे मुख्यता देनी चाहिए | लेकिन हमारे नेता कुछ नहीं कर पा रहे हैं |ये हमारे देश की बिडम्बना है |देखा जाए तो उन्हें वोट मिलता है हिन्दी में,अभिनेता को यश-पैसा मिलता है हिन्दी में और जब भाषा गौरव की बात आती है तो अंग्रेजी उनके मुख में समा जाती है |

कल्पना : हिन्दी भाषा की अस्मिता और सुदृढ़ता किसमें निहित है? इस मुद्दे को आमजन मानस कैसे समझे और समझाए ?

रामदरश मिश्र : वही तो मैं कह रहा हूँ कि-हिन्दी बोलने वालों को बहुत सामान्य दर्ज़ा दिया जाता है जबकि ऐसा है नहीं |हिन्दी तो हमारे स्वाभिमान की भाषा है; जो हमें खाना देते है,वाहन देते है,कपड़े देते हैं यानि कि-जिन्दगी जिस पर चलती है,हम तो चलने वाले हैं और जो चलाने वाले हैं वे तो हिन्दी भाषा-भाषी हैं या भारतीय भाषा-भाषी हैं इस बात को लोग समझते क्यों नहीं ? मेरा कहना है,अगर सरकार ठान ले कि-हिन्दी माध्यम से पढ़े-लिखे नवजवानों को नौकरी मिलेगी या सरकार देगी तो अंग्रेजी अपने आप रास्ते से हट जायेगी |

कल्पना : आज हम देख रहे हैं कि-जैसी दशा संस्कृत की हुई ठीक उसी रास्ते पर हिन्दी को ला दिया गया है| आपको लगता है कि –बीस-तीस साल बाद हिन्दी का कोई पाठकवर्ग बचेगा ?क्योंकि पाँचवीं कक्षा से ही हिन्दी को वैकल्पिक विषय बना दिया जाता है और आठवीं या दसवीं कक्षा तक आते-आते बच्चे हिन्दी को छोड़ देते हैं |इस स्थिति में जब तक हिन्दी का नया पाठकवर्ग बनेगा नहीं तो हमारा साहित्य पढ़ेगा कौन?

रामदरश मिश्र : हाँ, यह भय तो है लेकिन हिन्दी में अब भी लिखा जा रहा है ,हिन्दी का सिनेमा आ रहा है ,हिन्दी में व्यापार हो रहा है और हिन्दी बोलने वाले अनंत लोग हैं,इसलिए भले ही एक ऊपरी समाज में हिन्दी काम न करती हो लेकिन इसकी जो व्याप्ति है वह कम नहीं होने वाली है| वहीँ यह भी सही है कि अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की बढती हुई है और उनमें अंग्रेजी पढ़ाई जा रही है और इसके पीछे मूल सोच रोजगार की है इससे युवा भारत को नौकरी और रोज़गार मिलेगा एइसा हम मान बैठे हैं और हम अपना मन मार कर भी इसको स्वीकार करते हैं कि-कहीं भाषा की जद्दो-जहद मैं बच्चों का अकल्याण न हो जाए|

कल्पना : डॉक्टर साहब हम ये जानना चाहते हैं कि भारत आज़ाद हुआ सन 1947 में, चीन 1948 में और भी देश, वे सब अपनी भाषा में तरक्की कर गए| तो हमसे कहाँ चूक हो गयी ? क्या हमें आज़ादी के समय ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित कर देना चाहिए था?

रामदरश मिश्र : पता नहीं अंग्रेजी क्यों इस कदर छाई हुई है हमारे यहाँ ? इसकी जड़ में जाने पर एक बड़ा कारण यह दिखता है कि- आजादी के बाद हमारे देश की न केवल आतंरिक बल्कि सीमा सुरक्षा भी हमारे लिए एक चुनौती के रूप में कड़ी थी उसी के समानांतर विभाजन स्वरूप बहुत अधिक संख्या में आ रहे लोगों का पुनर्वास वह भी तब जब कि हमारी आर्थिक स्थिति बहुत दैनीय हो चुकी थी सम्भवता इसी कारण  हम भाषा के स्थान पर भूख को प्राथमिकता देने के लिए विबस थे | जब तक में हमारा ध्यान भाषा की और गया तब तक हम तुष्टिकरण निति के सिकंजे में फँस चुके थे नतीजा आज सामने है | मेरा यह भी ख्याल है कि शुरू में यदि नेहरू के जमाने में ही हिन्दी को महत्त्व मिल गया होता तो बाद में राजनीति करने का मौका न मिलता| “प्राची” हिंदी पत्रिका में मेरा एक आलेख है कि ‘मेरी माँ कहाँ है’ उसमें मैंने इसी बात को विस्तार से कहा है|

कल्पना: वर्तमान राजनीतिज्ञ जो नेतृत्व की बागडोर संभाले हुए हैं क्या इनके अंदर दृढ़ इच्छाशक्ति है कि आज वे हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित कर दें ?

रामदरश मिश्र : नहीं राष्ट्रभाषा अलग बात है लेकिन हिन्दी राजभाषा तो है| राष्ट्रभाषा का मतलब यह होता है कि हिन्दी ही राष्ट्रभाषा है और सारी भाषाएँ राष्ट्रभाषा नहीं बन सकतीं हैं| हमारे मित्र उमा शंकर जोशी जो गुजरात में थे वे कहते थे कि ‘सभी भाषाएँ राष्ट्र की भाषाएँ हैं’ सही कहते थे|

कल्पना: लेकिन किसी देश के सम्मान के लिए जहां राष्ट्रीय ध्वज है, पक्षी है और राष्ट्रीय फल तक है किन्तु भाषा नहीं है यह अटपटा नहीं लगता? गाँधी जी कहते थे कि ‘राष्ट्र भाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है’ | और हमें लगता है कि सभी भाषाओँ का सम्मान होना चाहिए लेकिन राष्ट्र भाषा एक होनी चाहिए| आपका क्या मानना है?

रामदरश मिश्र : इसलिए तो मैंने कहा है कि हिन्दी राजभाषा के रूप में राष्ट्र की स्वीकृति है और जो बात गाँधी जी ने कही तो सैधांतिक रूप से वह राष्ट्र भाषा नहीं है| अगर हो जाए तो बहुत अच्छी बात होगी| देखिए! होता क्या है कि जब हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकृति मिल जाएगी तो अन्य भाषा भाषी लोग अपनी भाषा के लिए भी यही बात कह सकते हैं|

कल्पना: आठवीं अनुसूची में अगर और भाषाएँ सम्मिलित हो रही हैं तो हिन्दी क्यों नहीं,यह क्यों हमारे हाथों से निकली जा रही है?

रामदरश मिश्र : मैं इसके पक्ष में नहीं हूँ| आजकल भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए सोचा जा रहा है, तो कल को ब्रज भाषा कहेगी हम भी आएँगे, अवधी कहेगी हम भी आयेंगे, राजस्थानी, हरयाणवी कहेंगीं हम भी आएँगे तो इससे बड़ी खतरनाक स्तिथि उत्पन्न हो सकती है| मुझे याद आ रहा है कि एक व्यक्ति ने लिखा था कि ‘भोजपुरी के पास है क्या? अवधी के पास रामचरित मानस है, जायसी ग्रंथावली है, ब्रज भाषा के पास सूरदास है |भोजपुरी के पास तो एक भिखारी ठाकुर है| राजस्थानी तो खैर साहित्य अकादमी में मान्य है लेकिन आठवीं अनुसूची में नहीं| ऐसे में हिन्दी की स्थिति तो वैसी ही रहेगी और वह मुट्ठी भर लोगों की भाषा बन कर रह जाएगी|

 

कल्पना : डॉक्टर साहब तो क्या आप अभी भी हिन्दी के महत्त्व को सुद्रढ़ मानते हैं?

रामदरश मिश्र : हिन्दी का महत्त्व इसलिए घोषित होता है क्योंकि इसको बोलने वाले बहुतेरे हैं| कई बोलियाँ इसके भीतर समाहित हैं| देश-विदेश में तमाम जन इसको चाहने वालें हैं| गाँधी जी ने भी इसलिए कहा था कि इसे स्वीकार करना चाहिए| यह आसान है और पूरे देश में बोली जाती है| रही साहित्य की बात तो मराठी, बंग्ला साहित्य हिंदी से अच्छा है लेकिन फिर भी इसे इसलिए स्वीकार करना चाहिए क्योंकि हिन्दी  को आसानी से ग्रहण कर सकते हैं| वैसे गाँधी जी को कौन पूछता है| हम लोग क्या कर सकते हैं बहस को छोड़कर, जिन्हें कुछ करना चाहिये वे तो 14 दिसम्बर को हिन्दी का पितर पक्ष मना लेते हैं | इसी कारण मैं हिन्दी दिवस की गोष्ठियों में नहीं जाता हूँ|

कल्पना : एक प्रश्न और डॉक्टर साहब,वो ये कि जो त्रिभाषा फार्मूला सरकार ने लागू किया है जो हमें लगता है कि सफल नहीं हो पा रहा है| इसके बारे में आपके के विचार क्या हैं?

रामदरश मिश्र : ये सही है कि त्रिभाषा फार्मूला में एक दूसरी भाषाओँ के लोगों को एक संतोष होता है  कि मेरी भाषाओँ का भी सम्मान है| हिन्दी के साथ–साथ और हिन्दी भाषा भाषी लोग हमें पढ़ते हैं| जब पुरे देश में तीसरी भाषा के रूप में एनी भाषाओं का पठन-पाठन होगा तो यह भाषाई सौहर्द्र के लिए शुभ होगा हमारी संकीर्णतायें अपने आप विलीन होतीं जायेंगीं और यह न केवल हिंदी के लिए बल्कि देश की अन्य तमाम भाषाओं के लिए भी हितकर होगा |

कल्पना : गाँधी जी, लाल बहादुर शास्त्री जी की पावन जयंती पर आप हमारे नवलेखकों एवं पाठकों को क्या संदेश देना चाहते हैं जो उनके लिए उपयोगी सिद्ध हो?

रामदरश मिश्र : अब देखिये! सवाल हिन्दी का है तो में हिन्दी में ही जवाब देना चाहूँगा और यह कहना चाहूँगा कि हिन्दी बेचारी नहीं है और न ही इसको बोलने वाला बेचारा है| हम सभी भारतवासियों को हिन्दी को गौरव की भाषा मानना होगा, उसे अपनाना और सराहना होगा| होता क्या है कि- लोग अगर ये कहेंगे कि मैं हिन्दी वाला हूँ तो अंग्रेजी वाले उसे उपहास की दृष्टि से देखेंगे, तो इस बात को लात मार के आगे बढ़ना चाहिए| अपने भीतर या अपने बच्चों के कोरे मन-मस्तिष्क में हिन्दी के संस्कार और स्वाभिमान डालना चाहिए कि मैं भारत का और हिन्दी का हूँ, हिन्दी भाषी हूँ और हमें इसके साथ रहने और इसको बरतने में सहूलियत है क्योंकि हिन्दी में हमारे राम हैं, कृष्ण हैं, तुलसी हैं, सूरदास हैं, इस में स्वाधीनता की आवाज़ भी है, हामारा लोक है, हमारी परम्पराएं हैं और सारे रीत रिवाज़ हैं| इन सब बातों को सोचकर हम और हमारे बच्चे समृद्धि का भाव महसूस करें और अंग्रेजी के सामने हिन्दी को हीन न समझें| इन बातों की जिम्मेदारी हमारे अविभावकों और शिक्षकों को भी समझनी चाहिए |     

 

 

  (२०१८ जून में लिया गया साक्षात्कार जो हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी पत्रिका में संग्रहित साभार ) 

                 

  (आमने -सामने ..१४ सितम्बर २०२० को रचना उत्सव में पुनः प्रकाशन)



 

 

 

 

 

 

 




Comments

  1. बहुत अच्छी और समृद्ध बातचीत। हिन्दी की स्थिति पर बहुत सही विचार दिया है डॉ. रामदरश मिश्र जी ने। स्वाधीनता के बाद पुरज़ोर तरीक़े से हिन्दी को स्थापित किया गया होता तो आज यह स्थिति न होती। अंग्रेज़ी भाषी लोगों के बीच हम हिन्दी भाषी का कोई सम्मान नहीं होता, चाहे वह बच्चों का स्कूल हो, बाज़ार हो, रेस्त्रां हो, या कहीं भी। अंग्रेज़ी भाषा को सिर्फ़ एक भाषा और हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाना आवश्यक है। इस वार्तलाप को साझा करने के लिए धन्यवाद।

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