त्रिशंकु

 

कहानी की लेखिका: शशि श्रीवास्तव 

जैसे-जैसे साँझ का सुरमई रंग गहराता जा रहा था,ड्राइवर बस की रफ्तार बढ़ाता जा रहा था। फतेहपुर आते-आते समूची कायनात का मुँह काला हो गया। जैसे– उसने जानते-बूझते इस तरह के वक्त का चुनाव किया था कि फतेहपुर पहुँचते-पहुँचते रात हो जा जाये। दरअसल वो सबसे पहले अपने मामा से मिलना चाहता था। दिन के उजाले में बस-स्टेशन से घर तक न जाने कितने जानने वाले मिलते और उसकी गुमसुदगी के बावत कई सवाल दागते जाते। एक ना चाहा हुआ व्यवधान उत्पन्न होता और घर पहुँचने में देर भी जाती। 

फतेहपुर के नाम पर वह अपने मामा से सीधे मिलने को बेचैन हो जाता है। उसका वश चले और सुविधा हो-तो वह हवा के परों पर सवार होकर सीधे मामा के पास पहुँच कर ही उतरे। और मामा उसे देखते ही पहले तो मुँह फेरकर बैठ जाएँगे फिर झूठा गुस्सा दिखाएँगे पर ज्यादा देर उनका गुस्सा टिक नहीं पायेगा वे गुस्सा झटक कर उसकी ओर घूम जाएँगे मामा का नकली गुस्सा, भीतर से फूटती मुस्कान को जबरन दबाएगा मगर वे प्रश्नाकुल निगाहों से उसकी ओर देखने लगेंगे। उस पर जब उन्हें ये पता चलेगा कि उनका सोमू जीवन की मुख्यधारा में शामिल हो गया है, उसे एक स्थाई बैंक की नौकरी मिल गयी है, जिसे पाने के लिए उसे मामा से दूर रहना पड़ा था और लोगों ने समझा था कि सोमू गुमशुदा हो गया। तो वे कितने खुश होंगे!  घर में रहकर वह कभी अपने कभी मामा के जख्मों पर मरहम लगाता रहता तो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कब और कैसे करता? ये सब सुनते ही मामा का गुस्सा गायब हो जायेगा। वे आँसू भरी आँखों से कुछ देर सोमू की ओर देखते रहेंगे फिर लपक कर उसे गले लगा लेंगे। अनायास ही सोमू के होठों पर मुस्कान खिल गई थी। कल्पनाओं के घोड़े दौड़ाता हुआ वह कब घर के सामने पहुँच गया, उसे ख़ुद पता नहीं चला। इत्तिफाक से लाइट आ रही थी। घर के बरामदे में सदा जलने वाला बल्ब भी जल रहा था। पर जाने क्यों घर उसे बेहद उदास लग रहा था। उसकी सारी रौनक और चहल-पहल मानो अज्ञात वास को चली गई थी। जैसे— एक अव्यक्त खुशी से लबरेज उसके अंतर में सहसा आशंकाओं के अंधड चलने लगे थे। 

मामा के कमरे और खिड़कियों के धूल-धुसरित बंद कपाटों पर लगे मकड़ी के जालों को देख उसकी साँसों का स्पंदन बेलगाम हो गया था। "हो सकता है मामा मंदिर से लगे कमरे में हों?" उसने खुद को दिलासा दी थी, कई बार मामी से कहा-सुनी-तनातनी बढ़ जाने पर मामा कई-कई दिन तक उसी में जाकर रहते थे। सोमू जल्दी से मंदिर की ओर बढ़ गया। मामा अगर वहाँ होंगे तो मंदिर में सुबह की पूजा के निशान भी होंगे। फूल और धूप बत्तियों की महक भी वहाँ भरी होगी। सोचते हुए उसने मंदिर का द्वार खोला जिसे खोलते ही उसकी नासागो से एक बासी सीली-सी गंध आ टकराई जिसने उसके सर पर एक बज्र प्रहार-सा किया था। उसकी आँखों के आगे अँधेरा-सा छा गया था। सामने रखी हनुमान की मूर्ति और शिवलिंग देखकर लगा जैसे मंदिर और मूर्तियाँ वर्षों से मानवीय स्पर्श से वंचित रहती आई हैं। वह घुटनों के बल वहीं बैठ गया था। सबसे पहले उसने हाथ से मूर्तियों पर जमी धूल साफ की फिर याद आया रामायण के गुटके के नीचे फलालेन का पीला कपड़ा मामा रखते थे, उसी से वे मूर्तियों के पास गिरे फूल और धूप बत्तियों की राख साफ करते थे।


उसने उसी कपड़े से मूर्तियाँ और मंदिर साफ़ किया मंदिर के बाहर लगे हैंडपम्प से हाथ-मुँह धोकर धूप बत्ती जलाई बाहर आँगन में लगे गेंदे के फूल तोड़ कर मूर्तियों के पास रख दिए और जैसे ही उसने आरती की ओर हाथ बढ़ाया उसके अंदर से आव़ाज आई, “ये कर क्या रहे हो? इस तरह तो तुम्हें कभी मंदिर में नहीं देखा।उसके भीतर बचपन से पैठ बना चुके नास्तिक ने जैसे सवाल किया था। 

हाँ, तो! जैसे मामा करते थे, मैं भी कर रहा हूँ। तुझे क्या?" उसने तमक कर कहा था। "मामा का छोड़ा हुआ अधूरा काम वह चाहे पूजा ही क्यों ना हो, सोमू को करना ही है। जिसे एतराज़ हो वह देखे या न देखे, उसकी मर्जी।”  

सोमू ने स्वयं को जैसे दो टूक फैसला सुना दिया था। वैसे भी उसकी आदत थी। बचपन से दुविधा में कभी नहीं रहा था वह। जो करना है किया, जो नहीं करना है नहीं किया। ऐसा करता भी क्यों नहीं वह! भगवान ने कुल दस साल की उम्र में ही उसके माता-पिता को एक साथ ही छीन लिया था। उसी समय से मंदिर और मूर्तियों से उसका जी उचट गया था। जब वह लोगों से सुनता कि भगवान जो भी करते हैं अच्छा ही करते हैं। तब कहने वालों से पूछने का उसका बहुत मन करता कि एक दस साल के बच्चे से उसके माता-पिता को एक साथ छीन लेने के पीछे भगवान् की कौन सी नेक मंशा छुपी है? पर वह जानता था कोई उसकी बात सुनेगा नहीं।

           

सोमू के पास एक मामा ही तो थे अब उनका भी पता नहीं क्या होगा मेरा? सोचते ही उसका मन भारी हो गया। वर्षों से अपने दुखों,तकलीफ़ों, निराशा व अवसाद की भट्ठी में अकेले जलता रहा पर मामा का संबल बन उनकी जीवनी शक्ति चुकने नहीं दी थी। पर आज यूँ लग रहा है जैसे नियति ने कभी ना खत्म होने वाली अंधी सुरंग के हवाले सोमू को कर दिया था। आज किसी के कंधों के सहारे की बहुत जरूरत महसूस हो रही थी।काश! अपने कंधे पर सर रख पाता। पर ऐसा संभव कहाँ होता है।” 

सोमू सोचते हुए दोनों हाथों के संपुट में चेहरा छिपाकर फूट-फूट कर रो पड़ा था। कहाँ तो मामा से मिलकर उन्हें दिखाने आया था कि,”उनका सोमू अब लापता नहीं, बापता हो गया है। अब वे जितनी चाहें,उतनी चिट्ठियाँ उसके पते पर भेज सकते हैं और अपने सुख-दुःख बाँट सकते हैं अब अपनी ख़ुशी वह किससे कहे? मामा कहीं बाहर यूँ ही घूमने-फिरने भी नहीं जा सकते हैं।उसके भीतर से दिलासा का एक स्वर उभरा तो लेकिन हर वक्त सिर पर सवार रहने वाला निराशा का भूत कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था।

इस बिना पर अब मंदिर में उसके रुकने का कोई औचित्य नहीं। मामी किसी भी क्षण आ जाएँगी और उसमें कीड़े निकालने शुरू कर देंगी। पिछले सालों में मामी ने सोमू के नाम के साथ लगाने के लिए न जाने कितने नए-नए विशेषण कंठस्थ कर रखे होंगे। उसने अपने आँसू पोंछे और चलने को उद्दत हुआ ही था कि अपने पीछे उसे आहट सुनाई पड़ी। घूमकर देखा तो सामने मामी खड़ी थीं, सफेद साड़ी में। उसके भीतर मामा के प्रति सिर उठा रहे संदेह की पुष्टि हो गई थी। उम्र के बोझ से सिकुड़ गई अपनी आँखों को और सिकोड़ कर वे एकटक-अपलक उसी की ओर देखे जा रही थीं। कुछ देर देखने के बाद बोलीं।

"तुम सोमू हो ना?" मामी के शब्दों ने आशंका को मुँह चिढ़ाते हुए, मिश्री की डली से कुछ शब्दों ने सोमू के कानों में रस घोला था। उससे भी बढ़कर निराशा व निरावलंवता की आंधी में तिनके से उड़े जा रहे उसके वजूद को मामी के शब्दों ने सहारा भी दिया था। अभी वह अपनी सोच में डूबा ही था कि मामी ने उसके दोनों कंधों पर हाथ रख दिए, वह भी प्यार से। उसे अपनी आँखों पर भरोसा नहीं हुआ था। वह नींद में है या जाग में। जरूर सपने की जद में है वह, उसे लगा। उसने जोर से अपना सर झटका। अपने बालों पर हाथ फिराया तब भी सम्मुख जो दृश्य था नहीं बदला। तब जाकर वह समझ पाया कि जो वह देख रहा है, वाकई सच है। उसकी मामी ही उसे प्यार से देख रही हैं। उनकी आँखों में ममता का वही सागर लहलहाता दिखा जो मामा की आँखों में वह देखा करता था।


"अरे!ऐसे का देखि रहे हौ 'भूलि गये का हम तुम्हरी मामी! अच्छा हमार ऐस पहिरावा देखि के…।" मामी ने बुत बने सोमू को अपनी ओर ताकते पाकर आँसू भर कर कहा। साड़ी के छोर से आँखें पोछीं और दीर्घ निश्वांस छोड़ते हुये फिर बोलीं। "का कीन जाये बच्चा 'जौन किस्मत माँ लिखा होत है वई होत है।'तुमरे मामा का और हमरा इतनेइ दिन का साथ बदा रहा। बस्स।

 

मामी उसके बालों में प्यार से उँगलियाँ फिराने लगी थीं। सोमू किंकर्तव्यविमूढ़ मामी के इस अस्वाभाविक आचरण पर खुश होने की बजाय अचंभित एक टक उन्हें देख रहा था साथ आशंकित भी हो रहा था। नहीं समझ पा रहा था कि जिन मामी की जिह्वा की नोक पर उसके लिये अंगारे और आँखों में घृणा की चिंगारियाँ समाई रहती थीं, उन्ही मामी का कायांतरण कैसे हो गया? और क्यों हो गया? एक पल को तो उसके जी में आया कि ममता के इस सागर में डूब कर वह मामा की मौत का मातम ले अपने भीतर बह रही तरलता को मामी के आँचल के हवाले कर किंचित राहत पा ले। भूल जाये कि मामी ने कभी चैन की एक साँस तक के लिए उसे तरसा दिया था। सहसा उसका हाथ अपने पैरों की गाठों पर पड़ गया था। उस जान लेवा जलन की याद आते ही वह बुरी तरह सहम गया था। पर विचारों को झटक कर मामी को देखने लगा


मामी इन दो वर्षों में घटने वाली सारी घटनाओं का ब्योरा दे रही थीं कि,”मामा का एक रात सोते-सोते हार्टफेल हो गया। उनके मरते ही गाँव वालों ने योगी भैया को सिखा पढ़ाकर बंटाई वाली जमीन पर एक तरह से कब्जा कर लिया है, बस दूर वाली जमीन बाकी बची है।” 


मामी को बातों को सोमू जैसे सुन कर भी कुछ सुन नहीं पा रहा था। एक तो मामा की मौत की बात सुनकर उसके कोमल मन को ताड़-ताड़ तोड़ कर रख दिया था। ऊपर से मामी के दुःख में वह रो भी नहीं पा रहा था क्योंकि वे बातें वह बिल्कुल भूला नहीं था। जिनमें मामी कैसे उसके मामा के आँसुओं को उपहास का विषय बना दिया करती थीं। उनकी हँसी उनके चिढ़ का कारण बन जाया करती थी। अगर वह मामी से लिपट कर रोया तो वे उसके आँसुओं का भी मजाक का विषय न बना दें? क्योंकि मामी की गहरी मान्यता थी कि पुरुषों को घोर से घोर विपत्ति में भी पुरुष को रोना शोभा नहीं देता। रोते-बिसूरते स्वभाव वाले पुरूषों को वे जनाने स्वभाव का मानतीं थीं। ऊपर से मामी का अकल्पनीय अस्वाभाविक आचरण किसी आने वाले तूफान की पूर्व पीठिका तो नहीं? कहीं मामी उसके लिये भी वैसा ही लाक्षागृह तैयार तो नहीं कर रहीं हैं? जैसा मामा बताते थे, उसके पिता के लिए किया था। जिसमें उनका जीवन मान-सम्मान सब कुछ होम हो गया था और आज सोमू की बारी हैआज तो मामा भी नहीं हैं।” बचपन की धुँधली यादों ने उसे घेर लिया तो उसने उठ कर भाग जाना चाहा था मगर तब तक उसकी मामी पानी के साथ लड्डू ले आईं और खाने का आग्रह करने लगीं। बच निकलने की गुंजाइश ना देख उसने मामी के हाथ से पानी का गिलास लिया और एक साँस में ही पूरा पी गया।


मामी के स्वभाव में परिवर्तन देख उसको कहीं पढ़े हुए कुछ शब्द याद आ गये।मरने वाले अकेले नहीं मरते अपने पीछे रह जाने वालों को भी मार जाते हैं।’ "लगता है मामा! उसकी माामी की बुराई को मारकर अपनी अच्छाई उनके भीतर रोप गये हैं। मामा ने सोचा होगा सोमू अकेला रह जायेगा तब मामी के कोप से कौन बचायेगा उसे। काश! मामी का ये रूप अपने जीते जी मामा भी देख लेते तो उम्र भर रिश्तों का दंश तो उन्हें ना भोगते रहना पड़ता। वे भी चैन की मौत मर सकते। मामा-मामी, सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर पति-पत्नी जरूर थे पर उम्र भर एक दूसरे को काटते-छीलते हुए अपने बीच की दूरी वाला पाट चौड़ा करते रहे थे। उनमें ना तो बात व्यवहार की समानता थी, ना सोच व पसंद ही मिलते थे। मामा की इच्छा का सम्मान करना तो दूर उन्हें खुशी व राहत देने वाली सारी बातें उनके निशाने पर रहती थीं। मामा के होठों की हँसी नोच लेना, उदासी व अवसाद को मजाक का विषय बना देना, मामी का मन पसंद कार्य था। 

दरअसल भोग-विलासता वाला जीवन पसंद करने वाली मामी, मामा की ज़मीन-जायदाद की पूरी मिलकियत के साथ-साथ उन्हें कठपुतलियों की भूमिका में देखना चाहती थीं। उसके लिए मामी ने अपनी उँगलियों में कुछ अदृश्य डोरियाँ भी बांध रखी थीं। मगर मामा उनकी डोरियों को अंदेखा करते हुए केवल अपना मनचाहा करते रहे थे। वे भी जिद्दी थे मामी के सरोकारों से निर्लिप्त-निर्विकार बने रहने वाला भाव भी मामा ने अपना लिया था। हद तो तब हो गई जब उन्होंने अपनी सारी जायदाद के दो हिस्से कर दिये, जिसमें एक अपने नाम रखा और एक अपनी बहन सुमित्रा के नाम कर दिया था। प्यार से जिसे वे मित्रो! कहते थे। 

मामी के मन में एक विष बीज पड़ गया था। उन्होंने मामा के मत का विरोध ये कहकर जताया कि,"सुमित्रा तो खुद ही इतनी बड़ी जमीन-जायदाद की मालकिन हैंहमारे योगी का हिस्सा काहे दे रहे हो उन्हें?" 

"जब बहन को हमने माँ-बाप बनकर पाला है तब उसका ध्यान हम ना रखेंगे तो कौन रखेगा। रही सातनपुर की जायदाद की तो वह जमीं तो विवादों में फँसी है। हमने महेंद्र जी से कह दिया है कि जिंदगी की कीमत पर जायदाद लेने की जरूरत नहीं है।" मामी की मर्ज़ी के खिलाफ़ मामा के पास लंबी चौड़ी दलील थी, जिसने मामी की बोलती भले बंद कर दी थी पर मामा की इस सदाशयता के लिए मामी ने कभी माफ नहीं किया था उन्हें। मामा, मामी और माँ का क्या बिगड़ा होगा? ये बात तो वही जाने पर इस सबके बीच सोमू तो त्रिशंकु बन गया। जहाँ मामा की जान बसती थी सोमू में। वहीं मामी के प्राण सूख जाते थे सोमू को देखते ही उनकी जिह्वा की नोक पर रखेकुत्ता, हरामी...जैसे शाब्दिक खंजर सीधे सोमू की छाती में उतर जाया करते थे।" दुःख की गाँठें सोमू के मन मे भी कम नहीं थीं। उसकी रुलाई फिर फूट पड़ी थी।


"लेव चाय पिऔ कब के चले हुइऔ मुँह देखौ कैसन उतरि गवा है।" मामी ने उसकी सुप्त और बहकी हुई चेतना के द्वार खटकाये तो सोमू गहरी नींद से जैसे जागा था। आज उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। मामी की हँसी भी नहीं जो पता नहीं कितनी असली और कितनी नकली है। उसे अपने चतुर्दिक एक अजीब से रहस्य का जाला सा बना दिखाई पड़ रहा था। तभी लाइट चली गई, कमरे में अंधेरा और गाढ़ा हो गया था। रात और अंधेरे का महामिलन एक रहस्य लोक की-सी रचना कर रहा था। एक वर्ष पूर्व तक उसकी सात पुश्तों तक को खूनी हत्यारा बलात्कारी कहकर कोसने वाली मामी अचानक किस मजबूरी के तहत सोमू को योगी भैया की जगह बैठा रही थीं। उसे उसके सोमुआ के नाम से नहीं सोमू के नाम से पुकार रही थीं। योगी भैया का उगला खाना खिलाने वाली मामी ने उसे माफ किया तो कब जब देखने को मामा ही नहीं रहे थे। जाहिर है मामी की नाराजगी सोमू से रही तो फिर उसके पिता से भी रही होगी। पर अब जब उनकी पूरी जिंदगी जेल की सलाखों में कट गई तब माफ करने का फायदा ही क्या? कुछ गलतियाँ माफी के लायक नहीं होतीं। सोमू क्या करे? मामी को उनकी किस-किस गलती की सजा दे और किस-किस के लिए माफ करे।सोमू गहरी सोच में डूबता जा रहा था।

"खाओ बेटा! तुमने तो अबे पहलेई वाली नहीं खाई।मामी एक प्लेट में पकौड़ियाँ ले आई थीं।अच्छा छोड़ो यह ठंडी हो गई है तुम ये खाओ गरम-गरम।मामी ने गरम पकौड़ियाँ प्लेट में रख दीं और कुछ देर उसे देखती रहीं फिर बोलीं, "बबुआ अब जो हो गवा, सो हो गवा। मामा तो तुम्हरे रहे नहीं। मुला तुम अब हमई का मामा की जगह समझो। हियों का सब कुछ अब तुमही को देखै का है, बच्चा! तुम्हरे मामा की आत्मा को तबहीं शांति मिलेगी योगी तो कौनो काम के निकरे नहीं। गाँव वालों की गिद्ध-निगाहें लगी हैं हमारी जमीन-जायदाद पर।मामी सरगोशी के स्वर में बोलती जा रही थीं। वह कुछ बोलता, मामी ने इस बार चाय का कप उठाकर उसके हाथ में पकड़ा दिया था। "लेव चाय पियो, ठंडी हुई रई है।" उसने ठंडी हो चुकी चाय को जैसे-तैसे कंठ से उतारी और झटके से उठ खड़ा हुआ।

"मामी, मैं जरा अपनी किताबें दे..ख..ना!" उसने हिचकते-हिचकते मामी के सामने अर्जी रखी।

"अरे! पूछत का हौ, तुम्हरा घर है, जो चाहे सो…।" मामी ने अतिरिक्त लाड़ घोलकर कहा। सोमू ने जैसे ही एक कदम आगे बढ़ाया की मामी ने पीछे से हांक लगाई-" बेटा किताबें जरा संभाल के निकालेव, देखौ कहूँ कीड़ा-मकोड़ा ना बैठा होय।मामी के मन की अतिरिक्त चिंता देख सोमू को मामा की याद आ गयी तो उसका मन भीग आया था। छोटी उम्र में अंतिम बार अँधेरे में देखे माँ के चेहरे का अक्स उसकी आँखों में उभर आया था। लंबे-लंबे डग भरता हुआ वह मामा के कमरे में घुस गया।  किताबों का तो बहाना था, उसे मामा की लिखी गयीं बिना पोस्ट की गयीं चिट्ठियों की तलाश थी वह जनता था कि भले मामा की लिखी चिट्ठियाँ उसे बहुत समय से नहीं मिली पर मामा ने लिख कर रखी ज़रूर होंगी। उसके मामा का सोमू से बातें करने का यही तरीका था। वे चिट्टियाँ लेकर रख लेते थे और जब वह आता था तब उसे दे देते थे। वह भी मामा की चिट्टियाँ उनके सामने न पढ़कर ले जाकर हॉस्टल के अपने रूम में एक-एक कर हर रोज पढ़ता था। उसे चिट्ठियाँ खोजने में ज्यादा माथापच्ची नहीं करनी पड़ी। सदा से मामा की सबसे महफूज जगह रामायण में रखी चिट्ठियाँ देख उसने झपटकर उन्हें उठाया और माथे से लगा लिया। बहुत देर से भीतर ही भीतर शांत मन आँसुओं का बांध तोड़कर उबल पड़ा। वह चिट्ठियों की छुवन में मामा का साथ महसूस कर रहा था। उसने चिट्ठियों को उलट-पलट कर देखा और सबसे ऊपर वाली चिट्ठी खोलकर पढ़ने लगा।

 

प्रिय बेटा सोमू!

 

अभी तक की लिखी गयी चिट्ठियों और इस चिट्ठी में जमीं आसमान का भेद है। मैं जो लिखने जा रहा हूँ, उम्मीद है तू समझ सकेगा। तेरे पिता जेल में जितने तड़पते हैं, उतना ही मैं इन घरनुमा दीवारों में तड़पता हूँ। जब से मेरे जीवन में वह हादसा हुआ है तब से तुम और तेरे पिता ही मेरी दो आँखें हो। हाँ, एक आँख में रोशनी की उम्मीद तो अब बची नहीं। दुनिया को अब तेरी वाली आँख से देखने की उम्मीद कर रहा हूँ। बेटा, तुझे शिकायत होगी कि अब तक मैंने तुझसे ये सारी बातें छुपा कर क्यों रखी। तुझे क्यों नहीं बताया कि तेरे जिस पिता के नाम पर तेरी मामी और दुनिया वाले कीचड़ उछालते आ रहे थे। जिसे तेरी मामी का बलात्कारी व तेरी माँ का कातिल ठहराया जा रहा था। वह निर्दोष है। उनकी इसी बेगुनाही के लिए उन्हें हुई फाँसी की सजा को उम्र कैद में बदलवाने के लिए रात-दिन एक करता रहा। अगर ऐसा न होता तो मैं क्यों करता? मेरे इस करने पर कई बार तेरी भी आँखों में एक टीसता हुआ सवाल देखा था मैंनेपर तब तू इतना छोटा था कि दुनिया के छल युक्त भारी-भरकम शब्दों से तेरा परिचय कराने के लिए हिम्मत नहीं जुटा पाया था। सोचता रहता था, तू अपनी परिपक्व सोच के साथ जब दुनिया देखना शुरू करेगा तब खुद ही मेरी करनी के मायने तुझे समझ आ जाएँगे। 

बेटा तूने तो सिर्फ अपनी माँ की रक्तरंजित लाश देखी थी। अपने पिता को पुलिस वालों के साथ जाते देखा था। उस घटना पर लोगों की प्रतिक्रियाएं सुनी थीं। घटना के पीछे का सच तुझे किसी ने नहीं बताया। तेरे पिता को बेकसूर कहने वाला और मानने वाला मैं अकेला था इसलिए उन्हें बेगुनाह साबित नहीं कर सका। कैसे करता? एक तरफ मैं अकेला और दूसरी ओर दुश्मनों की फ़ौज। तेरे पिता के सौतेले भाइयों ने उनकी दौलत हथियाने के लालच में ये साजिश इतनी गहराई और सफाई से रची थी कि उन्हें बेकसूर ठहरा पाना नामुमकिन-सा हो गया था। सही में जिस आदमी ने तेरी माँ का खून किया था, वह उसी रात कुँए में गिर कर मर गया था या मार दिया गया था, कोई साबित नहीं कर सका। इधर दुःख में बौखलाए तेरे पिता तेरी माँ के पेट में घुसा चाकू निकाल रहे थे, उधर साजिश कर्ताओं ने चिल्लाकर आधा गाँव इकट्ठा कर लिया। दूर से भले ये सिनेमा का सीन लगे मगर थी हकीकत। गाँव वालों के आगे मैं गिड़गिड़ाता रहा मगर सबने माना वही जो अपनी आँखों से देखा।


तेरे पिता के खिलाफ़ कोर्ट के पास एक नहीं, दर्जनों गवाह थे। फिर भला कातिल को फांसी की सजा सुनाने में क्या दिक्कत थी। जब कोर्ट ने उन्हें गुनहगार मान लिया तो समाज को तो मानना ही था। ऊपर से जो इंसान एक औरत की इज्जत लूट सकता है, वह अपनी ही पत्नी का कत्ल क्यों नहीं कर सकता? इसकी अपनी पत्नी में दिलचस्पी ही नहीं रही होगी तभी ना उसका खून….? इस तरह की बातों का ओर-छोर नहीं था।

मेरे लाख न चाहने के बाद तेरे पिता ने अपने सौतेले भाइयों की वजह से उम्र कैद की सजा भुगती। रही बात तेरी मामी के बलात्कार के आरोप की तो तेरे पिता किसी औरत की ओर आँख उठाकर तक नहीं देख सकते थे फिर ये तो मेरी पत्नी और तेरी मामी थीं। तेरी माँ का कत्ल जैसा अपराध करना तो दूर वे सपने में भी नहीं सोच सकते थे। 


उन्हें मैं शायद उन से भी ज्यादा जानता था। तू नहीं जनता होगा तेरे पिता और तेरा मामा सहपाठी रहे थे। छठी से लेकर 12वीं तक की पढ़ाई हमने साथ-साथ ही की थी। स्कूल में लोग मुझे राम और उन्हें हनुमान कहते थे। तेरे पिता मेरे अंधभक्त रहे थे सदा। नहीं तो भला मैं किसी ऐरे-गैरे के साथ अपनी इकलौती बहन के भविष्य की बात सोच भी कैसे सकता था? पर कहाँ जानता था कि मैं अपनी बहन के लिए जिस सुनहरे आगत की रूपरेखा तैयार कर रहा हूँ, उस में आग लगाने के लिए कोई पलीता तैयार किए पहले से बैठा है। मेरी आँखों के सामने ही तेरे पिता का जीवन षडयंत्रो व कुचक्रों के लाक्षागृह में भस्म कर दिया गया और मैं अपनी बहन को खोकर भी कुछ नहीं कर सका। हो सके तो मुझे माफ कर देना बेटा! 

तेरे पिता चलते-फिरते पत्थर के बुत बनकर रह गए हैं। उन्हें देखने वाले कहते हैं कि वे इतने वर्षों में किसी से भी एक शब्द नहीं बोले हैं। मैं जब उनसे मिलने जाता हूँ, मुझे भी वे टुकुर-टुकुर ताकते रहते हैं बहुत हुआ तो धारो-धार आँसू बहाने लगते हैं। मैं जब तेरी राजी खुशी का समाचार उन्हें देता हूँ तब जाकर उनके आँसू थमते हैं। इस बात पर कई बार पूछा कि सोमू को ले आऊँ? क्या देखना चाहते हो? पर वे हमेशा मना कर देते हैं। एक बार जब बहुत कहा तब सलाखों से सिर पटक कर माथा फोड़ लिया। मैंने भी कहना छोड़ दिया। बेटा इस दुनिया में इंसान से बड़ा कोई फरिश्ता नहीं है तो उस से बड़ा कोई दरिंदा भी नहीं। वरना तेरी मामी अपने एक छत्र साम्राज्य की स्थापना के लिए अपनी अस्मिता को दाँव पर न लगा देतीं? और एक मासूम बेगुनाह इंसान को इस तरह जलील व लांछित होकर रात के अँधेरे में मुँह छुपा कर भागने पर मजबूर न होना पड़ता। 

 

मुझे तो लगता है कौरव पक्ष के किसी क्रूर योद्धा ने ही तेरी मामी के रूप में जन्म लिया और दुर्भाग्य मेरा कि वह मेरी पत्नी बनकर मेरी दुर्दशा की इकाई बन गयी। उसे उसके इस कृत्य के लिए मैं इस जन्म में तो क्या अगले सात जन्मों तक क्षमा नहीं कर पाऊँगा। मैंने उसे वह सब दे दिया है जो वह चाहती थी। बेटा, पैसे से अधिक माया-मोह रखने वाले इंसानों से ज्यादा लगाव नहीं रखते तू भी दूर ही रहना। दौलत की भूखी तेरी मामी ने इस घर को अवसाद, उदासी और दुख का स्थाई बसेरा बना दिया है। योगी हमारा नहीं, उसका बेटा है,उसे सुधारने का वक्त बहुत पीछे छूट गया है। वैसे मैं समझाऊं भी तो क्या! मेरी बात उसने कभी मानी ही नहीं। खैर,जो होना था हो गया, उसे बदला नहीं जा सकता।


मैंने तेरी मामी की एक छत्र साम्राज्य की इच्छा ज़रूर पूरी कर दी मगर खुद को उस से काटकर बाहर वाले कमरे में सीमित कर लिया है। अब ना मैं उससे कोई मतलब रखता हूँ ना हाय हाय ना किट किट। मेरा खाना-पीना तेरे मुन्ना मामा के यहाँ से चलता है। मैंने अपने लिए वह नदी पार वाला खेत रखा है बस। इससे मेरा खर्च आराम से चल जाता है। मेरे बाद वह तेरे नाम रहेगा। तेरे पिता को पेड़-पौधों से बहुत प्यार था। इसलिए पुराना बगीचा मैंने उनके नाम कर दिया है। जेल से छूटने पर उनसे कहना कि वे उसी में रहे। वहाँ बने कोठार में एक लैट्रिन बाथरूम और बन जाए तो ठीक रहेगा। हो सका तो जल्दी ही यह काम भी करवा दूँगा। उनका खोया मान सम्मान और जेल में गल गए उनके 14 वर्ष तो कोई वापस नहीं कर सकता पर सोमू बेटा! अपने पिता की बाकी बची जिंदगी में इतनी खुशियाँ देना उन्हें कि वे अपने छिन्न-भिन्न विगत को सिरे से भूल जाएँ। और मैं ये जानता हूँ कि तू ये सब करने में सक्षम है। तुझे जमाने भर की ख़ुशी का आशीर्वाद देते हुए लिखना बंद करता हूँ। 

 तुम्हारा मामा!


चिट्ठी का एक-एक शब्द सोमू के आंतरिक घावों पर मरहम लगा रहा था और उसके सत्य का खुलासा करता हुआ लगा रहा था। सोमू का मन भींग रहा था। मामा ने कितने जतन से उसके पिता को बचाए रखा और उसे भी। वरना क्या वह खुद बचा रह पाता? जब पिता से मिलने का वक्त करीब आया तब मामा…। मामा की तकिया पर सिर रखकर वह फूट-फूटकर रो पड़ा। काश आज मामा होते तो देख पाते कि उसके भीतर कितना बड़ा परिवर्तन आ गया है इन दो सालों में। उसकी छाती पर मामी ने जो ग्लानि व अपराध बोध की भारी शिला रखी थी, वह कब की हट गई है। जब भी मामी के काटते-छीलते शब्दों से उसकी आत्मा से खून रिसने लगता, मामा झट नपे-तुले शब्दों का मरहम चुपड़ देते थे उसके घावों पर। नियति ने मेरे मामा को रिश्तो की कंगाली क्यों सौंप दी? सुना था स्त्री के हृदय में करुणा का सागर बसता है। काश मामी भी एक सहज सामान्य औरत होतीं। एक विकृत मानसिकता कैसे एक हँसते- खेलते परिवार को नर्क में झोंक सकती है, उसे सब याद आ रहा था। उस बाकिए को गुजरे भले सत्रह-अट्ठारह वर्ष हो गए हैं, पर वे रातें और उनके खौफनाक मंजर आज भी उसकी आँखों की नींद नोच लेते हैं। मामी की चीखें उसके कानों में शीशा उड़ेलने लगती हैं। पिता का भय से सफेद पड़ा चेहरा! उनकी थरथर कांपती देह... और माँ का रक्तरंजित शव। पुलिस का पिता को घसीट कर ले जाना। कुछ भी तो नहीं भूला वह। उस त्रासदी के बाद मामा का सोमू को लेकर इस घर में आना। मामी का उसकी सात पुस्तों का अर्पण-तर्पण करते उसका हाथ मुँह धुलाना। फिर उसके आगे खौलते दूध का कटोरा पटक कर पीने के लिए बार-बार कहना।गर्म दूध के छींटों से पाँव में पड़े फफोलों के निशान आज भी उसके दाहिने पाँव की पिंडलियों पर मौजूद हैं। एक-एक कर मामी के किये कुकृत्य उसे याद आने लगे थे। वह बेचैन हुआ जा रहा था।

अतीत की काली परछाइयों के पीछे कब तक भागते रहोगे ? इस अंधी सुरंग के बाहर आने वाला सुनहरा कल तुम्हारा इंतजार कर रहा है।उसके भीतर से शायद नन्हा सोमू बोला था। उसकी आव़ाज पर मन केन्द्रित कर उसने सोचा,”इससे पहले कि बदली हुई मामी उसे खाने के लिए कमरे में बुलाने आए,उसे यहाँ से भाग जाना चाहिए। बुरे व्यक्ति का आपा कब पलटी खा जाए कौन जाने? अब तो मेरे मामा भी दुनिया में नहीं, मैं अगर फँसा तो कौन छुड़ाएगा?” उसने जल्दी से चिट्ठियों के साथ मामा की रामायण सीने से चिपकाई और दबे पाँव आँगन से निकलता हुआ बहार सड़क की ओर भाग लिया। दूर से एक बस आती हुई उसे दिखाई पड़ी थी। वह जल्दी से सड़क की दूसरी ओर जाकर खड़ा हो गया। मामा की चिट्ठी पढ़ने के बाद से उसका मन किसी घायल पंछी-सा धड़क रहा था। उसने स्थिर होने की चेष्टा में सोचा,”आती हुई बस भले गंतव्य पर न ले जाकर कहीं और भी ले जाएगी, बैठ जाऊँगाजहाँ चाहकर भी मामी का साया उस तक न पहुँच सकेगा।बस आई, और सोमू को लेकर चल पड़ी। मामा की चिट्ठी के अनुसार जेल से छूटने पर सोमू पिता को अपने जीवन में जिंदादिली से शामिल करने की भूमिकाएँ बनाने लगा था। अंदर से दहकते मन को जब खिड़की से आती हवा ने गुदगुदाया तो अनायास वह सीट से टिक गया राहत ने सोमू के मन को थपकना शुरू किया तो उसकी ठंडक महसूस कर उसकी आँखें बंद होती चली गईं  

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लेखिका का परिचय 

शशि श्रीवास्तव का जनमतिथि 16/8/54 जिला कन्नौज उत्तर प्रदेश. रचना-कर्म   सत्रह वर्ष की उम्र में कविता से लेखन की शूरूआत ।पर अट्ठारह वर्ष बाद 1992 में दैनिक आज में पहली कहानी के साथ विधिवत लेखन की शुरूआत ।देश के लगभग सभी प्रमुख हिंदी दैनिकों व लघु पत्रिकाओं यथा परिंदे अक्षरा अक्षर पर्व निकट वर्तमान साहित्य लमही उत्तर प्रदेश व कई अन्य पत्रिका ओ में  कहानियां आलेख व समीक्षायें  प्रकाशित हो चुकी हैं। दो कहानी संग्रह प्रकाशित तीसरा प्रकाशन के अंतिम चरण में । 6/80 पुराना कानपुर/ कानपुर 208002 / मोबाइल 9453576414

Comments

  1. शशि जी की यह कहानी एक ऐसी स्त्री की है जो जमीन जायदाद की चाहत में अपने सगे रिश्तों ननद- नंदोई का खून करवा देती है। कहानी पढ़ते हुए मन उद्वेलित होता रहा। जबकि स्त्रियाँ कितने करुणा वरुणा अपने अंतस में छिपाए रहती हैं और एक कहानी की स्त्री ..... तोबा तोबा. लेखिका को अनेक बधाई!

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