एक पत्ता चाँद कहानी भालचंद्र जोशी
समय के प्रतिष्ठित एवं ख्याति लब्ध लेखक भालचंद्र जोशी की कहानी "एक पत्ता चाँद" पर कल्पना मनोरमा की टिप्पणी! |
![]() |
स्त्री-अस्तित्व की सहज स्वीकारोक्ति की कहानी है एक पत्ता चाँद !
बहुपठित व प्रतिष्ठित लेखक भालचंद्र जोशी जी की कहानी “एक पत्ता चाँद” अभी हाल ही में पढ़ी। कहानी पढ़ते हुए जो सबसे पहले ख्याल आया,ये कहानी बाहर से नर्मदा उसके वन्य क्षेत्र, बाढ़ और बस्तियों के अतिक्रमण की बात भले कहती दिख रही हो लेकिन है ये पूरी तरह प्रकृति और पुरुष की तादात्म की, उनके नैसर्गिक-प्रेमिल संबंधों की कहानी है। पुरुष के द्वारा पूरे मन से स्त्री अस्तित्व के स्वीकारोक्ति की कहानी है। स्त्री के स्वतंत्र निर्णय लेने की कहानी। पुरुष के द्वारा क्रियाशील व विवेकी मुखर स्त्री को सुनने, समझने और देखने की कहानी पढ़ते हुए ये भी लगा कि विमर्श और अर्थ के बिना पर यह कथा बहुपरतीय बन पड़ी है।
सदियों
से चलते-चलते स्त्री-पुरुष उस दौर में आकर खड़े हो गये हैं जहाँ छीना-झपटी,अविश्वास, अंधविश्वास, हिंसा, रिश्तों
में धोखाधड़ी का दौर अपनी ऊँचाइयों पर चढ़कर बोल रहा है। यहाँ कौन किसे नीचे धकेल
रहा है बताया नहीं जा सकता और कौन ऊपर बढ़ने में किसी की मदद कर रहा है, वह भी
भरोसे लायक नहीं रह गया है। अगर हम पीछे विगत की बात करें तो पुरुष को महान और
स्त्री को निरीह पाते हैं। गयी सदी की स्त्री हो या उसके पीछे की सदियों की, स्त्री
बोझ ढोने वाली जीव (वैशाखनंदन) ही बनी रही है। वह अपनी संतति के दायरे में एक धाय
माँ के किरदार में दिखी तो पुरुष-पति के खाँचे में उसकी कामेच्छा की पूर्ति करने
वाली एक ऐसी इकाई जो अपनी तुच्छता की परिधि कभी लाँघ ही नहीं सकी के रूप में….।
इससे ज्यादा स्त्री-जीवन की कोई उपादेयता या उपयोगिता दिखती नहीं है।
लेकिन
साहित्य कहता है,
समय का बर्तन घिसता भी है, फूटता और
पुराना होकर उसके बदलने की बात भी आती रही है। भले समय को बाँधा नहीं जा सकता
लेकिन साहित्य,
समय के बदलते रूपों को अपने में रोक लेता है। इसी
बिना पर उक्त सारी बातों को धता बताते हुए लेखन ने एक ऐसे स्त्री-पुरुष पात्रों का
निर्माण किया है जो एक दूसरे के पूरक भी हैं और अपनी-अपनी परिधियों में स्वतंत्र
भी हैं। साथ में किसी को किसी के प्रति दुर्भावना नहीं है। भले कहानी के दौर जैसा
हमारे पास दौर नहीं है लेकिन हम कल्पना तो कर ही सकते हैं और कल्पनाएं ही साकार
होती हैं।
इसी बिना
पर लेखक ने नदी की निरन्तरता, तरलता, स्वतंत्रता और
दयालुता के रूप में स्त्री को व्याख्यायित कर उसे, उसके विराट रूप में
स्थापित करने का एक सघन विचार साधा है। जिस तरह पृथ्वी के उदयकाल से नदियाँ
जीवनदायनी रहती आ रही हैं, स्त्री का औदार्य भी उसी के सदृश्य लिखा गया है। मानवीय
सभ्यता ने नदियों के तटों पर अपने को फलते-फूलते हुए पाया है। स्त्री भी शिशु के
रूप में उन्नत सभ्यता के मानकों को जन्म देकर संस्कृति को परिष्कृत करने का
असाद्ध्य कार्य मौन हो करती चलती आ रही है।
कहानी का
नायक पुरुष पितृसत्ता का वाहक न होकर बानी (स्त्री) के प्रति सहृदय है। उसकी बानगी
कहानी का प्रथम अन्तरा बयान करता है। ”नाव में भीड़ थी। एक
ही व्यक्ति के लिए जगह थी। मैंने जिद की तो बानी चली गई।” “कुछ देर बाद तो ऐसा लगा जैसे नाव नहीं, बानी ही पैदल नर्मदा पर चलती हुई उस पार जा रही है। मैं नर्मदा के पानी पर
बानी के पैरों की छाप खोजने लगा।” स्त्री के पाँवों की
छाप सदियों से कौन पुरुष खोजने का अभिलाषी है? बल्कि उसके पदचिन्हों
को पुरुष रौंदता जरूर आया है। कहानी का नायक पितृसत्तात्मक नज़रिए का होता तो शायद
ये घटना संभव हो ही नहीं पाती।
यहाँ से
स्त्री-पुरुष की निकटता का प्रस्थान बिंदु शुरू होता है। आगे-आगे स्त्री नर्मदा की
बेटी होने की बात जब करती है तब पुरुष प्रतिवाद करता है लेकिन बानी कहती है भले
स्त्री माँ न बन सके लेकिन वह पालनहारी बन सकती है। यशोदा इसका प्रशंसनीय उदाहरण
है। कथा-पुरुष जब बानी को इस तरह बात करते हुए सुनता है तो उसका नदी की विकारलता
के प्रति डर जाता रहता है। वह किसी दुर्घटना का अनुमान भी नहीं लगना चाहता है।
बल्कि दोनों के बीच एक संवाद की स्थिति बनती है। नायक जब नर्मदा की बाढ़ के प्रति
उत्तेजित होता है तो बानी उसकी मुखालफ़त करती है,”जिन लहरों में मैं काल का नर्तन देख रहा था, बानी उसमें प्रत्यक्ष सौन्दर्य का दृश्य देख रही थी।” यहाँ भी
स्त्री के मन की बात को तवज्जोह देता हुआ कथा-पुरुष स्त्री
को इंसान होने की सीमा के अन्दर देखता है। स्त्री किसी भी सामान्य से दृश्य में भी
सौन्दर्य को खोजना जानती है। वहीं उसके इस जानने में उसे कीमत भी चुकानी पड़ती रही
है लेकिन बानी का पुरुष ऐसा नहीं है, वह उसे सुनता भी है
और उसके निर्णय को स्वीकार भी करता है। कथांश देखिये-
“मैं
कोशिश करूँ तो भीतर के इस सूने जंगल में उतर सकता हूँ। भीतर की बारिश में अकेले
भीगना चाहता हूँ। फिर लगता है, भीतर का
कोई एक हिस्सा ऐसा भी है जो अभी भी सूखा है। बारिश भीतर के जंगल के उस हिस्से तक
नहीं पहुँची है। बहुत मुमकिन है कि उस हिस्से पर बारिश हुई हो, लेकिन बारिश के बाद पेड़ों पर ठहरी रह गई हो और नीचे जमीन और जंगल की जड़ें
सूखी रह गई हों। जैसे कपड़ों पर बारिश की बूँदें गिरे और देह की त्वचा सूखी रह जाए।
कई बार तो देह की त्वचा पर बारिश की बूँदें गिरती रहती हैं फिर भी मन का हिस्सा
सूखा रह जाता है।”
कथा-नायक
का आत्मावलोकन इस अंश में प्रकट होता है। संवेदनाओं के वृत्त स्त्री पुरुष दोनों
के मन में बनते-बिगड़ते रहते हैं लेकिन सत्ताधारी पुरुष संवेदना को कब जंगल में
तब्दील कर लेता है, कहा नहीं जा सकता है। जंगल यानी वह जगह जो अविकसित, निर्जन, झाड़-झंखाड़, वन्य
जीवों और हिंसक जंतुओं से भरी होती है- इस अंश को देखिये-”मैंने पेड़ की छाया से निकलकर हथेली बारिश को सौंपी तो बारिश की बूँद मेरी
हथेली पर गिरी। हथेली के दबाव के साथ उस बूँद को मैंने अपने धड़कते सीने पर रख
दिया।” बानी के पुरुष के पास च्वाइस थी जंगल और जंगली बन
जाने की लेकिन वह सहृदयता नामक बारिश की नमी की बूंदों को अपने सीने पर रख लेता
है। यानी अपने दिल को स्त्री के प्रति नरम और तरल बनाने की जुगाड़ करता है। बानी के
मन को और नदी के तटों को देखते हुए नायक अपना चेहरा आसमान की ओर उठा देता है और
आसमान से गिरती बूदें कुछ उसे गीला करती हैं और कुछ को वह निगल जाता है। आसमान
अपने आप में बेलौस खुलेपन का द्योतक है यानी बानी का पुरुष अपने बाहर यदि खुलापन
चाहता है तो अपने भीतर भी सकारात्मक खुलेपन को उतरने देता है।
सत्ताधारी
पुरुष स्त्री की परवाह उसके अस्तित्व को लेकर नहीं करता, अगर करता
भी है तो अपने ऐश-ओ-आराम में खलल न पड़े, स्त्री को अपने
इर्द-गिर्द चाहता है लेकिन बानी सौभाग्यशाली है। उसका पुरुष उसके होने में स्वयं
को तलाशता है।
जब नायक नायिका से पूछता है तुम जंगल के रास्ते क्यों
आई तो वह कहती है-‘‘क्योंकि मुझे मालूम था कि इस रास्ते से
तुम मेरी आवाज सुन लोगे।‘‘ स्त्री के भीतर सृजन
की अनमोल शक्ति है इसलिए वह जीवन के सारे दाँवपेंच भी जानती है मगर प्रयोग में तभी
ला सकती है जब उसका साथी उसे स्पेस मुहैया करवाता है। यहाँ बानी जानती है कि जंगल
एक निर्जन प्रदेश होता है इसलिए एक ओर से दी गयी आव़ाज सहज ही दूसरी ओर सुनी जा
सकती है। जब व्यक्ति का मन शांत और विचारशून्य होगा तभी वह किसी की बात सुन सकेगा।
लेखक ने यहाँ आशा-विश्वास का एक सुंदर प्रयोग किया है।
“वह आँगन
से भीतर के कमरे में आई तो भीतर का कमरा भी गीला होने लगा। निचोड़ने से साड़ी से
पानी की एक धारा निकली थी शायद नदी अभी भी साड़ी में बह रही थी। नदी साड़ी में बह भी
रही थी और बरस भी रही थी।”
यहाँ इस
कथांश को पढ़ते हुए महाभारत का वह दृश्य याद आता है,“साड़ी बीच नारी है या
नारी बीच साड़ी है। नारी ही की ही साड़ी है या साड़ी ही की नारी…” बानी
मानवीय मूल्यों से ओतप्रोत तो है ही, उसे ढँकने वाले कवच
भी नदी जैसी शीतलता समेटे हुए हैं। तभी वह जहां जाती है वहां कथा पुरुष को नमी, गीलापन
महसूस होता है।
प्रकृति और पुरुष के मिलन को लेखक ने बहुत सहजता और
सजगता से लिखा है,
कहीं भी कोई बात अशोभनीय नहीं दिखती। साड़ी में नदी का
बहना और बरसना दोनों रूपकों की ध्वनि अलग होकर भी स्त्री से जुड़ी रहती है। बहना -
प्रवाहित होना,
द्रव्य का ढुलकना, द्रव्य पदार्थ का
किसी नीचे तल की तरफ़ गिरना,अधिक मात्रा या मान में निरंतर किसी ओर गतिशील होना
है। वहीं बरसना- बादलों से पानी की बूँदें गिरना, आकाश से वर्षा होना, बूँदों
की तरह गिरना, बहुतायत से किसी का प्राप्त होना, चारों ओर से ख़ूब
मात्रा में कहीं पहुँचना है। यानी नदी जो धरती पर बहती है वह अपने साथ हो सकता है
कि कूड़ा-कबाड़ भी समेट लाये लेकिन जो सम्वेदनाओं की नदी बरस रही है, वह बेहद
स्वच्छ और निर्मल होगी। जो बहने वाली नदी को भी साफ़ करने का माद्दा रखती है। इस
कहानी की भाषा और प्रतीक-बिम्ब इतने अनूठे हैं कि समझते हुए अर्थ की आँधी-सी आई
प्रतीत होती है। लगता है पहले कौन सी बात को कह दिया जाए।
कहानी
में युगल प्रेमालाप में प्रकृति की अक्षुणता, विकलता, साधुता
और अखंडता का भान होता चलता है। प्रेमतृप्त स्त्री बानी को जब प्यास लगती है तो वह
खुद नदी तक नहीं जाती बल्कि अपने पुरुष से पानी लाने को कहती है- जबकि हुकूमत करना
तो पुरुष का अधिकार क्षेत्र है पर बानी के पुरुष का अहम् घायल नहीं होता है। वह
बानी की ओर सहजता से देखता है– “बानी ने
हाथ के संकेत से उसे पास बुलाया। उसने टहलते हुए तट पर आदर से सिर झुकाए खड़े पेड़
से एक बड़ा-सा पत्ता तोड़ लिया। -‘‘मुझे
प्यास लगी है। नदी से एक पत्ता पानी ले आओ।‘‘ कहकर उसने पत्ता मेरे हाथ में दे दिया।”
जबकि
पत्ते पर पानी ठहरता नहीं फिर भी बानी उसे पत्ता देती है। क्यों? क्योंकि
पानी और हरियाली एक दूसरे की पर्याय है। पत्ता देकर बानी अपने सजीव होने का ऐलान
करती है। कथानायक हरे पत्ते पर पानी के साथ चाँद भी ले आता है। जिसे बानी दोने या
कटोरे की शक्ल बनाकर पानी में चाँद को निहारती है। जबकि बानी ने चाँद तो माँगा ही
नहीं फिर क्यों वह ले आया? क्योंकि वह जानता है,स्त्री और चाँद का
सम्बंध पुराना है। वह स्त्री के समर्पण को औचक सम्मानित करना चाहता है इसलिए जल
में चाँद की छाया को ले आता है। वैसे भी स्त्री को चाँद अति प्यारा है। वह कभी उसे
प्रेमी के रूप में देखती है,कभी सखा और कभी सरकार के रूप में भी देखते हुए अपनी
शिकायतें भी करती है। कथांश देखिये-
‘‘हम लोग
बचपन में माँ के साथ पानी भरने आते थे तो सारे बर्तन इसी तरह चाँद से भर जाते थे।
हमारे घर चाँद का पानी रहता था।‘‘ कहकर
मैंने उसे एक पत्ता चाँद से भरा पानी दिया। बानी के चेहरे से अब विस्मय नदारद था।
वह खुश हो गई। उसकी खुशी चाँद से भरी थी। एकाएक उसका चेहरा भी चाँद हो गया। उसके
चेहरे के आलोक में नदी की जलराशि बिल्लौरी हो गई। नदी के तट की रेत काँच-सी चमकने
लगी।” युगों-युगों से स्त्री को बहला कर पुरुष अपना काम
निकलवाने के एवज में चाँद लाने की बात करता आ रहा है लेकिन कभी उसने लाकर दिया
नहीं। ‘पत्ता भर चाँद’ कहानी का नायक यशोदा वाली युक्ति जानता है। जिस तरह
कृष्ण कहते हैं,“मैया मैं तो चन्द्र खिलौना लैहों…।” तो यशोदा परात में
पानी भरकर कान्हा से कहती हैं कि लाला ले चाँद उतर आया है तेरे आँगन में आओ पकड़
लो। उससे भिन्न कथानायक अपनी नायिका को बिना माँगे चांद का उपहार देकर उसे प्रसन्न
और संतुष्ट होते देखना चाहता है।
“बहती हुई
नदी कनखियों से हमें देख रही है। आगे बढ़ते हुए भी पीछे पलटकर देख रही है। बानी का
हाथ मेरे हाथ में है। उसका सिर मेरे कंधे पर टिका है। वह गहरे अनुराग से नदी को
देख रही है।”
बहती नदी
का कनखियों से देखना स्त्री-पुरुष को तृप्त कर जीवन नदी का मदिरिम गति से बहना है।
ये सब भले कल्पना के पालों पर लिखी इबारत है लेकिन इस तरह के जीवन का सपना शायद
प्रत्येक दंपत्ति देखता चाहता होगा। खास तौर पर एक स्त्री तो ज़रूर ही….।
“हम दोनों
टहलते हुए रोशनी का पीछा करते तट से थोड़ी दूर चले गए। यहाँ झाड़ियों की संख्या बहुत
कम थी। पेड़ बिल्कुल नहीं थे। गीली जमीन दूर तक निर्जन और वनस्पति विहीन थी।”
बानी और
उसका पुरुष भावुक भावनालोक में विहार करते हुए जब यथार्थ की ठोस भूमि पर पाँव रखते
हैं तो उन्हें संवेदना की गीली जमीन भी निर्जन, सन्नाटे से भरी दिखती
हैं। ये आज की सच्चाई है।
पूँजीवाद
और बाजारवाद ने स्त्री पुरुष दोनों के मनों को विचार विहीन, संवेदनहीन
बना डाला है। जिस प्रकार पृथ्वी से वनस्पतियों का नाश होने पर रोग बढ़ने की
सम्भावना बढ़ने लगती है, उसी तरह मन को मन से जोड़ने वाले तंतु यदि घल जाते हैं
तो एक भयावय वैक्यूम क्रियेट होता है। उस खालीपन में सहृदयता नामक वनस्पति सूख
जाती है। बानी यथार्थ में आकर भी उसे भरने के लिए उपवन नहीं, जंगली
पौधों नामक विचारों से भरना चाहती है। पुरुष यहाँ वाद-प्रतिवाद में उलझता है लेकिन
स्त्री पौधा रोपने लगती है और उसके इस काम में तमाम जीव जन्तु साथ देते हैं। कहा
जाता है किसी भी काम का आरम्भ कठिन होता है जो उसे शुरू कर दे वही चतुर सुजान। “जंगल की
भी अपनी एक बस्ती होती है।‘‘ इस बात को कहते हुए उसकी
यानी बानी की जिद मुस्कराने लगती है। कामायनी एक अलंकारिक महाकाव्य है, उसी तरह
ये कहानी भी स्त्री-पुरुष के शाश्वत प्रेम के चिन्ह पाठक के मन पर छोड़ती है। मनु, इड़ा और
श्रद्धा जैसे व्यक्तित्व जो वेदों में पाए जाते हैं। कहानी में बानी और उसका
कथा-पुरुष भी उसी तरह दीखता है।
“मैं थककर
चूर जब तट की रेत पर मुर्छा में गिरा तो असंख्य प्राणियों का शोर धीमा होता गया।” यहाँ भारत भूषण की कविता राम की जल समाधि की कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं —“पश्चिम
में ढलका सूर्य उठा वंशज सरयू की रेती से/ हारा-हारा, रीता-रीता, निःशब्द
धरा, निःशब्द व्योम/ निःशब्द अधर पर रोम-रोम था टेर रहा सीता-सीता।” राम की
तरह कथा नायक बानी की स्मृतियों में नदी के गीले और रेतीले किनारों पर जैसे ही
अपने को निढाल छोड़ता है, वह अपने दुखों और अन्य आवाजों से दूर होने लगता है। दुनियावी कोलाहल मंद पड़ने लगता है। उसी
प्रकार संसारी हूकों में अस्त-व्यस्त पुरुष का स्त्री के पहलू में जाने का इतिहास
भी कम लंबा नहीं है। नदी रूपी स्त्री अपने जीवन के रेतीले गीले तटों पर कंकड़ों-पत्थरों को भूलकर शरणागत
को सुकून देने में कोताही नहीं बरतती है। इस प्रकार लगता है, “एक पत्ता
चाँद” कहानी लिखकर लेखक ने मानव मन का एक ऐसा सपना लिख दिया है जो अगर सच हो जाए
तो संसार,संस्कृति और मानवीय सभ्यता स्वत: ही सँवर जाएगी। अस्तु!
****
![]() |
कहानीकार : भालचंद्र जोशी |
कहानी : एक पत्ता चाँद
बारिश तेज हो गई। कुछ देर पहले नदी के दूसरे किनारे पर नजर आ रही बानी अब एक
रंगीन धब्बा हो चुकी थी। कुछ देर पहले वह इसी पार थी। नाव में भीड़ थी। एक ही
व्यक्ति के लिए जगह थी। मैंने जिद की तो बानी चली गई। मैं काफी देर तक नाव में खड़ी
बानी को देखता रहा था। कुछ देर बाद तो ऐसा लगा जैसे नाव नहीं, बानी ही पैदल नर्मदा पर चलती हुई उस पार जा रही है। मैं
नर्मदा के पानी पर बानी के पैरों की छाप खोजने लगा। पानी लगी मिट्टी पर चलते हुए
पैर थोड़े धँस जाते हैं। मैंने सोचा, बानी के पैर भी नर्मदा पर दौड़ते हुए थोड़े धँसे होंगे, लेकिन जल पर बानी के पैरों के निशान नहीं थे। उसके पैर
नर्मदा की जलराशि में धँसे नहीं होंगे या फिर बारिश ने मिटा दिए हैं। बानी ने
बताया था, नर्मदा कितने भी गुस्से में हो, कितनी भी उफान पर हो, उसे डर नहीं लगता है। नर्मदा और बानी के बचपन से गहरे और
आत्मीय सम्बन्ध रहे हैं। जैसे कहें कि जन्म से ही गहरे संबंध हैं। बानी तो कई बार
कहती है कि मुझे लगता है मैं अपनी माँ की नहीं, नर्मदा की बेटी हूँ।
-‘‘लेकिन नर्मदा तो चिर कुँवारी है।‘‘ मैंने उसे रोका था।
वह क्षण भर चुप रही थी फिर बोली थी, -‘‘तो क्या हुआ ? वह माँ नहीं बन
सकती थी, लेकिन माँ कहीं तो जा सकती है।‘‘
बानी की बातें सुनकर मेरे मन से नदी का डर पूरी तरह से तो नहीं गया, लेकिन उससे उस तरह का प्रतिवाद करना बंद कर दिया। जब बानी
की बातें भरोसे से भीगने लगी तो मुझे भी नदी में, उफनती नदी में सौन्दर्य नजर आने लगा। मुझे यह बात भी ठीक
लगी कि नदी की बाढ़ में बस्ती का पानी से घिर जाना नदी का दोष नहीं है।
-‘‘बताओ तुम, बस्तियों में बाढ़ का पानी आ जाए तो इसमें नदी का क्या दोष ?‘‘ बानी ने उसकी बात का विरोध किया था।
-‘‘बस्तियाँ बरसों पुरानी हैं।‘‘ मैंने बानी को समझाना चाहा
था।
-‘‘कितनी पुरानी ? नदी तो हजारों बरस से बह रही है। हमने उसके किनारों पर गाँव बसाए। उसके
विस्तार के रास्ते पर बस्तियाँ बसाई।‘‘
वह नदी के खिलाफ कुछ भी नहीं सुनना चाहती थी। मैंने उसे बहुत समझाया था कि
गाँवों में बाढ़ का पानी घुसने से लोगों को परेशानी होती है, लेकिन नदी के प्रति उसका लगाव जिद की हद तक था।
-‘‘नदी के किनारे रहने का सुख उठाने के लिए समझो यह छोटी-सी
कीमत है।‘‘ वह हँसकर बोली थी।
नर्मदा की बाढ़ उसके मन को अदम्य उत्तेजना से भर देती है। घर से हम लोग सिर्फ
नर्मदा के इस तट तक आए थे, लेकिन उफनती नर्मदा में बानी के लिए क्षिप्र खिंचाव था। वह दूसरे तट पर जाने
के लिए बेचैन हो गई। नाव में एक ही व्यक्ति के लिए जगह खाली थी तो वह उसकी परवाह किए बगैर नाव में बैठ
गई। जाने कौन-सी अजान बुलाहट थी उसे कोलाहल करती जलराशि में कि बानी नाव में सवार
हो गई। जो मेरे लिए भय था वह उसके लिए आनंद था। जिन लहरों में मैं काल का नर्तन
देख रहा था, बानी उसमें प्रत्यक्ष सौन्दर्य का दृश्य देख रही
थी।
मैं बारिश से बचने के लिए तट पर पेड़ के नीचे आ गया। बारिश के कारण तट निर्जन
हो गया था। धीरे-धीरे मुझे लगने लगा कि बाहर से ज्यादा बारिश मेरे भीतर हो रही है।
माहौल में नमी का स्पर्श बस चुका था। मेरे भीतर एक हरा जंगल है जो निरन्तर इस
बारिश में भीग रहा है। मैं कोशिश करूँ तो भीतर के इस सूने जंगल में उतर सकता हूँ।
भीतर की बारिश में अकेले भीगना चाहता हूँ। फिर लगता है, भीतर का कोई एक हिस्सा ऐसा भी है जो, अभी भी सूखा है। बारिश भीतर के जंगल के उस हिस्से तक नहीं
पहुँची है। बहुत मुमकिन है कि उस हिस्से पर बारिश हुई हो, लेकिन बारिश के बाद पेड़ों पर ठहरी रह गई हो और नीचे जमीन और
जंगल की जड़ें सूखी रह गई हों। जैसे कपड़ों पर बारिश की बूँदें गिरे और देह की त्वचा
सूखी रह जाए। कई बार तो देह की त्वचा पर बारिश की बूँदें गिरती रहती हैं फिर भी मन
का हिस्सा सूखा रह जाता है।
बादल कुछ घने हो गए तो पेड़ के नीचे हल्का-सा धुँधलका बढ़ गया। हल्के अँधेरे में
भी बारिश नजर नहीं आती है, लेकिन बारिश के होने का एहसास बना रहता है। बानी इस समय मेरे साथ नहीं है, लेकिन उसके साथ होने का एहसास है। जैसे बानी मेरे भीतर है।
मेरे भीतर अँधेरे में हो रही बारिश को मैं सुन रहा हूँ। फिर लगा, बानी भीतर हो रही बारिश में भीग रही होगी। वह मेरे भीतर भीग
भी रही है और बारिश को सुन भी रही है। अँधेरे में हम दोनों बारिश का संगीत सुन रहे
हैं।
मैंने पेड़ की छाया से निकलकर हथेली बारिश को सौंपी तो बारिश की बूँद मेरी
हथेली पर गिरी। हथेली के दबाव के साथ उस बूँद को मैंने अपने धड़कते सीने पर रख
दिया। यह सोचकर कि उस बूँद की नमी को बानी भीतर बैठे महसूस करेगी। बारिश की उस एक
बूँद की नमी में वह मेरे धड़कते दिल की आँच भी महसूस कर रही होगी। भीतर के सूने, अँधेरे जंगल में मैं भी अकेला भीग रहा हूँ, वह भी अकेली भीग रही है। फिर यह लगा कि भीतर बैठी बानी जैसे
जंगल में किस तरफ है यह मुझे जंगल में भटक कर पता लगाना है। मैं बारिश के बीच पेड़
के नीचे अचल खड़ा था।
क्या बानी भी नदी के दूसरे तट पर अकेली खड़ी भीग रही है ? मैं पेड़ की छाया से बाहर आया। पेड़ के नीचे बारिश नहीं थी।
पेड़ के बाहर बारिश थी। भीतर और बाहर दो हिस्से थे। भीतर के हिस्से में पेड़ था, जहाँ बारिश पेड़ के ऊपर रूकी थी। पेड़ के बाहर बारिश थी। मैं
भीतर से बाहर आया। मैं दौड़कर तट पर गया। बानी दूसरे तट पर एक रंगीन धब्बा बनी भीग
रही थी। मैंने आसमान की ओर सिर उठाकर देखा था। कुछ बूँदें मेरे चेहरे पर, कुछ मेरे मुँह के भीतर गिरी। मुँह में गिरी बूँदें कंठ के
रास्ते नीचे उतर गई।
मैं वापस पेड़ के नीचे आ गया। बानी वापस मेरे भीतर के जंगल में ठहर गई। मेरे
कंठ से उतरी पानी की बूँदों का स्वाद बानी के कंठ में भी ठहर गया होगा। उसे भी
मेरी आसक्ति का स्वाद महसूस हो रहा होगा। मैं उससे कहना चाहता था कि इस स्वाद में
शताब्दियों का प्रेम घुला है। इन बूँदों में एक महासागर छिपा है। फिर मुझे लगा, ऐसा कहना अस्वाभाविक और अति रोमानी लगेगा।
मैं थक कर वापस लौटा तब तक बारिश धीमी हो गई थी। दूसरे तट पर रंगीन धब्बा
दिखाई देना बंद हो गया था, तभी लौटा। कपड़े बदलने के बाद भी मुझे नमी का एहसास हो रहा था। भीगे कपड़े आँगन
की रस्सी पर लटके हैं। भीगे कपड़ों में भी मेरा कुछ हिस्सा रह गया होगा। वह बचा हुआ
हिस्सा भीगे कपड़ों में दुबका नमी से बचने की पुकार लगा रहा होगा।
घर में सभी लोग सो गए थे। मुझे रह-रहकर बानी की चिंता हो रही थी। मैं दो बार
उठकर खिड़की से झाँक चुका हूँ। जैसे यहाँ घर से ही नदी का दूसरा तट और फिर वहाँ से
बानी का घर दिखाई दे जाएगा। यह मुमकिन नहीं था। विवश मैं हर बार खिड़की से लौटकर
कुर्सी पर बैठ जाता था। नींद नहीं आ रही थी। नींद बाहर आँगन में खड़ी बारिश में भीग
रही थी। संभवतः भीतर तो आ गई थी और मेरी आँखों की कोर पर बैठी मेरे भीतर हो रही
बारिश में भीग रही है। यदि भीतर भी उतर गई तो भीतर के जंगल में भटक कर गुम हो
जाएगी। पूरी रात जाग कर काटनी होगी। बानी इस समय सो रही होगी। उसके हिस्से की
बारिश भी मेरे भीतर के जंगल में हो रही है।
एकाएक आहट हुई। आहट घर के दरवाजे पर नहीं। आहट मेरे भीतर के जंगल के मुहाने पर
हुई। मैं चौंक गया। पहले मुझे लगा कि नींद जंगल में भटक गई है और आवाज लगा रही है।
ध्यान से सुना तो लगा आवाज नींद की नहीं, बानी की थी। आवाज अब करीब से आ रही थी।
मैं जंगल के मुहाने पर पहुँचा तो देखा बानी खड़ी है। मैं चकित रह गया।
-‘‘तुम्हें नींद नहीं आई ?‘‘ मैंने जंगल के मुहाने पर खड़ी बानी से पूछा।
-‘‘नींद तो भीग गई है। जंगल में भटकते हुए ठिठुर रही है।‘‘
कहकर वह हँस पड़ी। उसकी हँसी में गीलापन नहीं था। उसकी हँसी एकदम उजली और खिली-खिली
धूप-सी थी।
-‘‘इस रास्ते क्यों लौटी ?‘‘ मैंने पूछा।
-‘‘क्योंकि मुझे मालूम था कि इस रास्ते से तुम मेरी आवाज सुन
लोगे।‘‘ कहकर वह मेरे करीब आ गई। उसकी भूरी आँखों में एक धुँधला जंगल था। उसकी
गोरे रंग की देह पर पानी की बूँदों के टूटने के निशान थे। उसके रक्ताभ कपोल बारिश
में धुलकर उजले हो गए थे। उस पर बारिश की रगड़ नहीं, जल का दुलार था।
मैंने उसे हाथ पकड़कर जंगल के मुहाने से घर के दरवाजे के भीतर खींच लिया। उसकी
देह बारिश में धुली ताजा वनस्पति की तरह कोमल थी और जल की बूँदों की भाँति तरल और
टूटने को आतुर। उसकी देह पर बारिश का जल था, लेकिन वह खुद एक अजान आँच में थरथरा रही थी। वह आँगन में
खड़ी हो गई और साड़ी को घुटनों तक उठाकर निचोड़ने लगी। साड़ी के सिलवटों में बह रही एक
अदृश्य नदी साड़ी से निकलकर उसकी मुट्ठियों से होती हुई पैरों पर गिरने लगी। उसके
पैर और ज्यादा उजले हो गए।
वह आँगन से भीतर के कमरे में आई तो भीतर का कमरा भी गीला होने लगा। निचोड़ने से
साड़ी से पानी की एक धारा निकली थी शायद नदी अभी भी साड़ी में बह रही थी। नदी साड़ी
में बह भी रही थी और बरस भी रही थी। कमरा गीला न हो इसलिए वह फिर आँगन में उतर गई।
जैसे नदी कमरे से आँगन में उतर गई। मैं थोड़ी देर तक आँगन में बह रही नदी को देखता
फिर धीरे-धीरे आगे बढ़कर नदी के करीब आ गया। बानी के भीतर बहती नदी देह के तट तोड़ने
को आतुर थी। मैं भीग रहा था और तप रहा था। मैं जितना भीग रहा था उतना तप रहा था।
मैंने बानी के कंधे पर हाथ धर दिए। उसका सिर मेरे सीने से आ लगा। बहती हुई नदी की
धारा बदल गई। नदी धीरे-धीरे अब मुझमें भी बहने लगी। मेरी देह का हर हिस्सा अब नदी
के हवाले था। नदी अब मुझसे होकर बह रही थी। नदी का वेग भी बढ़ने लगा।
नदी के एक तेज लहर मेरे होंठों से टकराई। उस उफनती और वेगवती लहर में एक ऐसी
तड़प थी जो होंठों से टकराकर वापस नहीं लौटती थी, बल्कि वहीं से कोई दूसरी जगह का रास्ता तलाशने लगती थी।
उफनती हुई नदी के बहाव में एकाएक दो भारी चट्टाने मेरे सीने से आकर टकराई। मुझे
लगा कि उन भारी चट्टानों के भीतर भी जैसे एक नदी उफन रही थी। उन दो ठोस भारी
पत्थरों के भीतर जैसे ठोस नदी कैद थी।
बानी के देह से कपड़े बहकर आँगन में फैल गए थे। बानी की देह की नदी का उफान
उसकी आँखों में दिखाई दे रहा था। उसकी आँखों में एक अबूझ और गहरा भँवर था जो आँखों
से उतर कर देह के दूसरे हिस्सों पर उतर रहा था। मुझे लगा, उस भँवर में एक ऐसा खिंचाव था जो उसमें डूब जाते और गुम हो
जाने के लिए उकसा रहा था। मेरी देह के कपड़े बह रहे थे। कच्चे आँगन की जमीन पर पानी
का बहाव बढ़ने लगा। नदी मेरे भीतर, मेरे ऊपर से बह रही थी। मैं आकंठ नदी में डूबा था। दो भारी पत्थरों का दबाव
मेरे सीने पर था, लेकिन शायद जल
में डूबे होने के कारण उसका भार नहीं महसूस हो रहा था, लेकिन देह का रेशा-रेशा उस दबाव की उत्तेजना में था। बहती
हुई नदी में पता नहीं कौन से खनिज एकाएक घुल गए थे कि बानी की देह की नदी एकाएक
ज्यादा उजली और पारदर्शी हो गई थी। चट्टानें जल से धुलकर बेहद उजली और लवण स्वाद
से भरी और भारी हो गई थी। नदी के उफान में मैं चट्टानों के दबाव से निकला तो अगली
लहर के धक्के से पलट गया और चट्टानों के ऊपर औंधे मुँह गिरा। मेरा सिर अब चट्टानों
के बीच फँसा था। उजली और धुली हुई चट्टानों की धड़कनों के राग मेरे कानों में बज
रहा था। उस राग में एक बेकली थी जो देह की नदी में घुल रही थी। नदी छटपटा रही थी।
वह अपनी बेकली से छुटकारा पाने के लिए उस राग को वापस बानी की देह की नदी में
विसर्जित करना चाहती थी। इन सबके बीच नदी
का एक अदृश्य और अनबजा गर्जन था जो तट के सारे बंध तोड़ने को उतावला था। फिर
मुझे लगा, जैसे नदी अपनी बेचैनी में उन दो पत्थरों या
चट्टानों में दाखिल हो गई जिनमें धड़कनों का राग बज रहा था। तेज लहरों का गर्जन
जैसे तट से टकराता है वैसे ही वे पत्थर अपने भीतर उफनती नदी का वेग सँभालने में
असमर्थ हो रहे थे। उफनती लहरों का दबाव उन पत्थरों में से होकर मुझे महसूस हो रहा
था। वे चट्टान नुमा दो भारी पत्थर नदी के वेग और बहाव से भर आए थे। हर अगली लहर के
साथ वे भारी पत्थर साँस की सतह पर आते फिर नीचे तल में धँस जाते। अजीब बात यह थी
कि मैं चट्टानों के ऊपर था फिर भी चट्टानों का भार मुझे लग रहा था। मैंने उस अजान
और गोप्य भँवर में गिरने से पहले इतना महसूस किया कि चाहे यह जीवन का अंतिम क्षण
हो, लेकिन इस राग की बेकली को दूर करने की इसके
अलावा कोई राह भी नहीं है।
नदियों के उफान और लहरों के उग्र घमासान के बाद एक भीगा हुआ सन्नाटा फैल गया।
नम मिट्टी में लिथड़ी दोनों की निर्वस्त्र देह बाढ़ के बाद तट की वनस्पति के अवशेष
की भाँति पड़ी थी। एक-दूसरे की देह के तट से लौटती नदी देह के ऊपर से गुजरते हुए
हाँफ रही थी। उसी के साथ बानी की देह की दो चट्टानें मेरे सीने के नीचे दबी हाँफ
रही थी। यह एक गहरे उफान के बाद की थकान थी।
मैंने सिर उठाकर देखा, अब हम आँगन में नहीं, नदी के गीले तट पर थे। पता नहीं, एक दूसरे की देह की नदी को हम नदी में विसर्जित करने के लिए यहाँ आए थे या फिर
नदी का बहाव हम दोनों को इस तट पर छोड़ गया था। मैं देख कर खुश हो गया कि मैं नदी
के दूसरे तट पर था। संभवतः जंगल का रास्ता एक दूसरे तट तक आता है। यह भी हो सकता
है कि नदी हमें यहाँ तक छोड़ गई हो। मैं उठकर नदी तक गया। नदी में जल की सतह पर
बानी के जाते हुए पैरों के निशान थे, आते हुए पैरों के निशान नहीं थे। फिर मुझे याद आया, बानी नाव से गई थी। फिर एकाएक मुझे यह भी याद आ गया कि मैं
दूसरे पट पर बानी के साथ हूँ तो यह बानी के पहले तट से आने के निशान हैं जो अब
दूसरे तट से उल्टे दिखाई दे रहे हैं। मैं बानी के आते हुए पैरों के निशान को दूसरे
तट से देख रहा हूँ।
बानी उठकर कपड़े पहन रही थी। तब मुझे ध्यान आया कि मैं निर्वस्त्र हूँ। मुझे भी
कपड़े पहनना है। कपड़े रेत में शंख की सीपियों के साथ धँसें थे। मैंने कपड़े खींचकर
हाथ में लिए और कुछ देर खड़ा रहा। नदी का बहाव अब उग्र नहीं था। जल की सतह के ऊपर
से देखने पर उसकी उग्रता का अनुमान लगाना भी कठिन है। कहते हैं नर्मदा का बहाव सतह
के नीचे बहुत तेज होता है। नर्मदा अपने आवेश के अतिरेक में भी उग्रता को सतह के
नीचे रखती है। एक सतह नीचे। संभवतः यह प्रेम और ममता को बचाए रखने के लिए सतर्कता
हो।
मैं कपड़े पहनने लगा। फिर हम दोनों तट पर बैठ गए। बहती हुई नदी कनखियों से हमें
देख रही है। आगे बढ़ते हुए भी पीछे पलटकर देख रही है। बानी का हाथ मेरे हाथ में है।
उसका सिर मेरे कंधे पर टिका है। वह गहरे अनुराग से नदी को देख रही है। उसके पैरों
से टकराते नदी के जल में जाने कौन-सा संदेश था कि वह आहिस्ता से मुस्करा रही है।
बादल छँट गए थे। एक हल्की नीली रोशनी नदी की सतह पर फैल गई थी। जिसकी
प्रतिछाया तट पर बिछ रही थी। बानी उठी और नदी के तट पर बिछी महीन रेत पर टहलते
लगी। उसके टहलने से रेत पर बिछी रोशनी क्षण भर के लिए रेत में धँस जाती थी फिर कदम
उठाते ही वह कदम के निशान पर ठहर जाती थी। बानी ने हाथ के संकेत से उसे पास
बुलाया। उसने टहलते हुए तट पर आदर से सिर झुकाए खड़े पेड़ से एक बड़ा-सा पत्ता तोड़
लिया।
-‘‘मुझे प्यास लगी है। नदी से एक पत्ता पानी ले आओ।‘‘ कहकर
उसने पत्ता मेरे हाथ में दे दिया।
-‘‘मैं नदी से एक पत्ता नहीं, एक चाँद पानी भर कर देता हूँ।‘‘ कहकर मैं पलटने लगा तो उसकी
विस्मित हँसी ने मुझे रोक दिया।
-‘‘एक चाँद पानी..... ?‘‘ वह मेरे हाथ से पत्ता लेकर उसे प्याले की शक्ल में ढालने
लगी।
मैं उसे वापस नदी किनारे ले आया। चाँद भी नदी किनारे की जलराशि में काँप रहा
था। मैंने बानी के हाथ से पत्ते का प्याला लेकर नदी में चाँद की जगह पर डूबोकर
उसमें पानी भरा और क्षण भर पत्ता वहीं पकड़े रहा। अब चाँद पत्ते के प्याले में था।
-‘‘हम लोग बचपन में माँ के साथ पानी भरने आते थे तो सारे बर्तन
इसी तरह चाँद से भरते थे। हमारे घर चाँद का पानी रहता था।‘‘ कहकर मैंने उसे एक
पत्ता चाँद से भरा पानी दिया। बानी के चेहरे से अब विस्मय नदारद था। वह खुश हो गई।
उसकी खुशी चाँद से भरी थी। एकाएक उसका चेहरा भी चाँद हो गया। उसके चेहरे के आलोक
में नदी की जलराशि बिल्लौरी हो गई। नदी के तट की रेत काँच-सी चमकने लगी।
हम दोनों टहलते हुए रोशनी का पीछा करते तट से थोड़ी दूर चले गए। यहाँ झाड़ियों
की संख्या बहुत कम थी। पेड़ बिल्कुल नहीं थे। गीली जमीन दूर तक निर्जन और वनस्पति
विहीन थी।
-‘‘नगर के जिम्मेदार लोग बता रहे थे यहाँ बस्ती बसेगी।
नगर-विस्तार यहाँ तक होगा।‘‘ मैंने बानी को बताया।
बानी के चेहरे का चाँद क्षण भर के लिए धुँधला हुआ।
-‘‘उनके नगर बसाने से पहले हम यहाँ जंगल लगा दें तो कैसा रहे ?‘‘ बानी के पास एक विकल समाधान था।
-‘‘हम दोनों मिलकर कितने पौधे लगा पाएँगे ?‘‘ मैंने अपनी असमर्थ जिज्ञासा रखी जिसमें उसे उसके समाधान को
रद्द करने के संकेत दिखाई दिए।
-‘‘कहते हैं कि खरदूषण ने एक रात में एक नगर बना दिया था तो
हमारे पास भी एक रात है। नगर बसाने से आसान जंगल लगाना है। यह नदी का इलाका है। यह
हिस्सा नदी की सम्पत्ति है। यहाँ बस्ती नहीं, जंगल बस सकता है।‘‘ बानी के चेहरे की रोशनी थोड़ी तमतमा रही
थी।
-‘‘जंगल बसता नहीं है। जंगल लगाया जाता है।‘‘ मैंने उसके वाक्य
को दुरूस्त किया।
-‘‘नहीं, जंगल भी बसता है। जंगल की भी अपनी एक बस्ती होती है।‘‘ उसकी जिद मुस्कराने
लगी।
उसने मेरा हाथ पकड़ा और पौधे लगाने की तैयारी करने लगी। उसने वहीं कहीं से एक
नुकीला पत्थर उठाया और गड्ढा तैयार किया। खोजकर एक पौधा लाई और वहाँ रोप दिया।
पहला पौधा रोपते ही नदी के असंख्य जीव बाहर आए। कोई पास के जंगल से पौधा लाया। कोई
गड्ढे करने लगा। कोई पौधे लगाने लगा। एकाएक सारे प्राणी जैसे इसी काम में जुट गए।
फिर तो पास के जंगल से भी प्राणी आकर जुटने लगे। पहली शुरुआत बानी ने की थी जो
मुझे कठिन काम की शुरुआत लग रही थी, लेकिन अब तमाम गोचर-अगोचर प्राणी इसी प्रयोजन में जुट गए थे। छोटे-मोटे
कीड़े-मकोड़े और पंछी जैसे एकाएक इसी काम के लिए कटिबद्ध हो गए थे। रात थी कि खत्म
नहीं हो रही थी। बानी के चेहरे की रोशनी हर प्राणी के चेहरे की रोशनी हो गई थी।
मैं थककर चूर जब तट की रेत पर मुर्छा में गिरा तो असंख्य प्राणियों का शोर धीमा
होता गया।
सुबह होश आया तो देखा, मैं और बानी नदी तट के एक नए और घने जंगल में थे। नदी बहुत धीमे-धीमे शांत बह
रही थी। जंगल की कोमल छाया नदी की जलराशि पर गिर रही थी।
000
भालचन्द्र जोशी
‘एनी‘, 13, एच.आई.जी. ओल्ड हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी,
जैतापुर, खरगोन 451001 (म.प्र.)
मोबाईल नं. : 08989432087
बहुत ही सुंदर कहानी, कल्पना मनोरमा जी की विस्तृत टिप्पणी ने इसे और सार्थक बना दिया है
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद अनीता जी!
Delete