बीस साल का लड़का

 

 


आज की जनधारा 2025 के प्रेम विशेषांक में प्रकाशित कहानी....!


 

    चोटियों से गिरकर खाइयों में पड़ा था। मनोज आकर पूछने लगा—तुम मरते-मरते बच कैसे गए..?” 

आप सोचेंगे कौन मनोज…

   मनोज मेरा मित्र! मेरा यार ! हम दोनों इसी गाँव में पले-बढ़े। तालाब नहाए। सिघाड़े तोड़े। जामुन खाए। पुजारी कक्का के खेत से गन्ने चुराए और चूसे। हमारी आवारा कफलिया का सरदार मनोज,कमाऊ निकल गया..! वह जिद्दी और जुनूनी रहा हमेशा। जो चाहा,जब चाहा,हासिल कर लिया। 

मुझे हताश देखकर वह फिर बोला—तुम रुआँसे क्यों बैठे हो?” 

 

बस, जो है– सो ठीक ही है।मैंने भी कह दिया।

   वह रूठ कर उठने लगा। दो वर्षों के बाद मुझे कोई अपना-सा मिला था। मैंने चिरौरी कर बिठा लिया। मनोज ने सहारा देकर मेरी पीठ से तकिया लगा दिया। दाहिने पाँव में घुटने तक प्लास्टर चढ़ा था। किसी तरह कोहनी पर टिक कर मैं आपबीती सुनाने लगा। 

 

मनोज बोला–भुवन रस नहीं आ रहा। गाँव की नापो यार!

 

  “तीन गाँव की ठेठ पुरबिया में कथा पल्ले किसके पड़ेगी?”  मैंने कहा।

वह चिहुँक कर बोला—अब तो पहले तीन गाँव का किस्सा ही सुनूँगा।” 

 

तीन गाँव का किस्सा आप भी पहले सुनें—

 

   मेरी अम्मा और आजी में छत्तीस का आँकड़ा रहा। घर में आए दिन घमासान मचा रहता। तंग आकर पिताजी ने मेरे नाना और अपने मामा को खेड़ेगाँव बुला भेजा। घर-परिवार के लोग जुट गए। पाँच दिन पंचायत चली। निर्णय निकला—अम्मा और आजी अलग-अलग दिशा में रहेंगी। अम्मा जबखेड़ेगाँवरहेंगी। आजी तबभीतरगाँवअपने मायके रहेंगी। मैं बहुत छोटा था। अम्मा मायके जातीं, घंटी की तरह मुझे बाँध लेतीं। मामा के बच्चों के साथ रिल-पिल मैं, उनकी बोली सीखने लगता। आजी की बारी आती, वे अपने मायके लेकर चल पड़तीं। जहाँ रहूँ, वहाँ के बच्चे मुझे अपना समझें, प्रेम करें। मैं उनकी बोली सीखने लगता। और कम समय में ही, उनका चहेता और प्रमुख बन जाता। 

 

   अम्मा-आजी के अनोखे समझौते से परिवार में किसका भला हुआ, नहीं पता। पर तीन गाँव की माटी की भाषा, मेरे भीतर चौकड़ी मारकर बैठ गयी। दीदी नौ-दस साल मुझसे बड़ी हैं। पिताजी की स्नेही पात्र रहीं। दीदी को पिताजी ने कभी अपनी नजरों से दूर नहीं किया। इस तरह दीदी की बोली पंचमेल खिचड़ी बनने से बच गयी। पिताजी का जीवन क्लेश रहित भले हुआ लेकिन मैं, वैसा नहीं बन सका, जैसा–अम्मा-पिताजी चाहते थे। धीरे-धीरे गाँव के उन लड़कों में शुमार होता चला गया, जो आवारा थे। बेतरतीब थे। जिन्हें बदतमीज कहने से कोई गुरेज नहीं करता था। रोज स्कूल जाकर भी एक कक्षा को दो साल लगाए बिना, पास नहीं कर पाया। अच्छा ये हुआ– स्कूल में उम्र घटाकर लिखवाई गयी थी। 

 

     अच्छाई कहो या नियति बचपन में तीन गाँव भटकते रहने से बोली-भाषा सीखने का जो जूनून रहा, उसी का करम, आज खड़ी हिंदी में बोल पा रहा हूँ।

 

 वरना तो निठल्ले और आवारा घूमने के संस्कार पक्के होते चले गये थे। सबकी नजरों से गिरकर भी मलाल नहीं होता। मेरे बाबत अम्मा अपने जीवन को कोसने लगतीं। उनके या किसी के रवैये से मेरी बोली, भाषा, उठक-बैठक में कोई अंतर नहीं आया।

 

    शहरी भाषा से मुझे कितनी चिढ़ रही। लेकिन अब लगता है—खड़ी बोली का अपना एक व्याकरण होता है। अपनी ठसक होती है। जो शहर में रहकर ही सीखी जा सकती है। और सब जगह बोली जा सकती है। 

 

    मैंने सिर्फहमकी जगहमैंको ही साधा। फिर जो हुआ, तुम देख ही रहे हो।

 

  मनोज की आँखें विस्मित हो उठीं। कहने लगा—कमाल है भुवन! तुम्हें जानकर भी पूरा-पूरा न जान सका। अपनी मर्जी से बोलो।मनोज मेरे पास में लेट गया।

 

 दूसरी कहानी यहाँ से—

 

    उस दिन बे-मौसम बादल बरस कर बंद हुए थे। पनीली धूप खिली थी। मैं अभी कहीं टहल कर लौटा था। अम्मा ने गीली चादर पकड़ा दी। मैं छत पर सुखाने पहुँचा– श्याम भैया की छत,मेरी छत से जुड़ी है। उनकी छत पर एक लड़की खड़ी थी। जिसका कद लंबा। छरहरी काया। साँवला रंग। हवा के आसमानी झोंके उसके बालों से उलझ रहे थे। अब तक देखी गयी लड़कियों में–थी वह भी लड़की। मगर इतनी भिन्न कि आँखें जाकर जब लौटीं तो वैसी नहीं बचीं, जैसी थीं। मेरा कुछ बहुत अपना-सा वहीं छूट गया। एक थरथराहट के साथ मेरी धड़कन आपा खोने लगी। उल्टे पाँव, सीढियाँ फलाँगते, मैं आँगन में बाँस की खटिया पर पसर गया। मन था कि छत से उतरने का नाम नहीं ले रहा था। आँखें इन्द्रधनुषी रंग से भर गयी थीं। सब ओर बस रंग ही रंग।

 

  मैंने खुद से पूछा—"क्या बे भुवन! ये तमाशा क्या हुआ...?" 

 

 कुछ क्षण पहले जो घटा, भुवन की ताकत के बाहर की बात थी। भीतर एक खलबली मची थी।

 

    उस बार मैंने दसवीं की परीक्षा दी थी। इतनी उम्र तक आते-आते, सारे नशे चख चुका था। मगर लड़की का नशा..! अलग था। सबसे कड़ा…। असरदार। हफ्तों खोया-सा डोलता रहा। फिर एक दिन मुन्ना से पूछ लिया। वही बब्बन का लौंडा..। साला अनाप-शनाप बकने लगा। घंटों पहले हँसा, फिर बोला—भुवनवा, तोय परेम हुई गवा है।

 

मतलब..?” मैंने पूछा।

 

   मुन्ना, हँसता रहा। मतलब नहीं बता सका। उसकी बातों का असर ऐसा कि मेरी छाती घायल कबूतर-सी फड़फड़ा उठी। मैंने उससे कई बार पूछा– प्रेम होता क्या है? कैसे हो जाता है ? क्यों होता है …? पर मुन्ना के पास कोई उत्तर नहीं था। बात मज़ाक में आई-गयी हो गयी।  मगर उस घटना का असर खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था। ये कमाल पहला था सो एक दिन अम्मा ने भी पूछ लिया—भौन, आज काल काहे पागल निया घुमत रहत हो?” 

 

   सुनकर धक्का लगा। भक्क से गर्म हवा आँखों से निकल गयी। मानो दिल का हाल अंग-अंग पर लिखा था, अम्मा ने भी पढ़ लिया। मैं उठकर बाहर भाग गया। लड़के मज़ाक बना रहे थे। अस्त-व्यस्त रहने वाला भुवन, दिन में कई-कई बार शीशा देखने लगा। लड़की को देखने की फिराक में डोलने लगा। दिन में कई बार छत पर जाने लगा। दरवाजे के बाहर घंटों बैठने लगा। बे-काम श्याम भैया के घर जाने लगा। भाभी एक दिन मुस्कराकर बोल पड़ीं—का हो बबुआ केहिका देखन आबत हो?” 

 

  झेंपकर भाग आया। महीनों उनके घर नहीं झाँका। पता लगाया, लड़की स्कूल किस रास्ते से जाती है…? वही रास्ता पकड़ लिया। 

 

दूर से ही सही, आँखें दरस-परस से ठंडी होने लगी थीं।

 

    अब तक खबर उसे भी हो गयी थी—कि मैं देखता हूँ। लेकिन थी संतुलित लड़की। रास्ते में अपनी सहेलियों के साथ जाते हुए मुड़कर देखती तो माथे पर बल पड़ जाते। जैसे वह मुझे ऐसा करने को मना कर रही हो। चूँकि उसकी हँसी मन में बस चुकी थी इसलिए गुस्से में भी वह मुझे बड़ी प्यारी लगती। 

 

    देखने का चस्का धीरे-धीरे उसे अपनी बाहों में देखने में बदल गया। फिर तो मन की डिज़ाइन ऐसी बिगड़ी कि रात सोने जाता तो अजीब-अजीब ख्याल घेर लेते— जो दीवार हमारे घरों की छतों को वर्षों से उठाये थी–दुश्मन लगने गयी। उसके गिरने की कल्पना करने लगा। इधर से मैं, उधर से वह नववर्ष का कैलेंडर इसी दीवार पर बदल रही होगी। सोचकर पुलक उठता।

 

   एक दिन—बात फ़ैल जायेगी का जोख़िम उठाते हुए मैंने दीदी से पूछ लिया। पहले तो दीदी बहुत देर हँसती रहीं। उन्हें अचम्भा हो रहा था– मेरे जैसा उजड्ड लड़का, लड़की के बारे में पूछ कैसे सकता है? लेकिन मैं पूछ रहा था। दीदी को बताना पड़ा— 

 

   “वो लड़की बगल वाले श्याम भैया की साली है। उसका नाम पिंकी है। श्याम भैया की बीवी को जुड़वाँ बच्चे हुए हैं न! मदद करने आई है। भैया की माँ नहीं हैं। जब तक बच्चे बड़े नहीं होते, पिंकी यहीं रुकेगी। अच्छा किया उसके पापा ने— जोभवानीदेवी माध्यमिक विद्यालयमें उसका एडमिशन करवा दिया। भुवन, तू क्यों पूछ रहा है ?”  

 

"ऐसे ही…। पड़ोस की बात,! मुझे पता नहीं थी..!मैंने झेंपते हुए कहा। 

 

"तू रहता ही कब होश में। न ढंग से पढ़ता-लिखता है। न कामकाज में जी लगाता है।....सारा दिन भटकने से क्या मिलेगा....? देख ले भुवन! अब सुधर जा। ठीक से पढ़ाई किया कर। नहीं तो अगले साल तेरे ब्याह की सोच रही हैं अम्मा।" बड़ी-बड़ी कत्थई आँखें काढ़ते हुए दीदी ने कहा।

 

अभी ब्याह..? मुझे नहीं करना ब्याह-फ्याह।मैं बच्चा-सा बन गया।

 

  “अगले हफ्ते मैं चली जाऊँगी। कौन समझाएगा अम्मा को….?” 

 

   दीदी मुझे पढ़ाई के रास्ते लगाना चाहती थीं। जब से बिगड़ने का लेबल माथे पर चिपका—अम्मा-पिताजी ने मेरी ओर देखना ही छोड़ दिया। मेरे सुख-दुःख की साथी, मेरी दीदी ही बन गयीं। 

 

 मैंने दीदी सेठीक हैकहा और लग गया, लड़की से मिलने के उपाय खोजने। 

 

   अब तक पिंकी और उसकी सहेलियाँ मुझे जान चुकी थीं। एक दिन स्कूल से लौटते उसकी चप्पल टूट गयी। लड़कियों के साथ वह पुलिया पर रुआँसी बैठी थी। मैं जान-बूझकर वहीं से निकला।

 

 “भुवन, कुछ कर न? पिंकी की चप्पल टूट गयी है।उन में से एक लड़की बोली। 

 

  पहले सोचा कह दूँ—आ जा मेरी सायइकिल में बैठ जा।मगर पिताजी का चेहरा याद आ गया। प्लान केंसिल करना पड़ा। इतने में जुगाड़ याद आई। बबूल का काँटा इस मर्ज का सही इलाज है। तोड़ लाया। रबर की चप्पल में तले की ओर से लगा दिया। लड़कियाँ हँसती हुईं चली गयीं। मैं खड़ा देखता रहा। मन की रेशमी हलचल को शब्द देना, तब भी मुश्किल था–आज भी। 

 

    मनोज, सच कहूँ तो मेरे कठिन और सच्चे प्रयास रंग लाने लगे थे। पिंकी से बातें होने लगी थीं। स्कूल में देखती तो मुस्कुरा पड़ती। वह हँसती तो जहान भर की ख़ुशी से सराबोर हो उठता। प्रार्थना-सभा में अपनी पंक्तियों में अलग-अलग मगर बराबर में हम खड़े होने लगे थे। उसकी जुबान पर मेरा नाम अच्छा लगता था मुझे।

 

दीदी कई बार ससुराल से घर आ-जा चुकी थीं। ये वाकया किसी को पता नहीं चला था। 

 

   मैंने दोस्तों की सलाह से कई-कई रसिक उपन्यास पढ़ डाले थे। प्रेम को शब्दों में और अर्थों में समझ लेना चाहता था। पिंकी से बात गाढ़ी होती जा रही थी। अब मिलने का इन्तजार सिर्फ मुझे ही नहीं, उसे भी रहने लगा था। कभी-कभी स्कूल हम साथ ही जाते। साथ बतियाते हुए लौटते मगर गाँव में घुसते तो अलग-अलग। पिताजी के नाम में बट्टा न लगे, सोचता रहता। बावजूद इसके मिलने के मौके खोजता रहता।

 

  एक दिन अम्मा घर पर नहीं थीं। मैं आँगन में बैठा प्रोजेक्ट लिख रहा था। पिंकी अपने भांजे-भांजियों के कपड़े सुखाने आई थी। आँगन में झाँकने लगी। मैंने कहा— वहीं बगल में सीढ़ियाँ हैं, उतर आ नीचे। उसने कहा–नहीं, यहीं ठीक हूँ। आँगन के जाल पर झुककर वह मुझे देख रही थी। हँस रही थी। कुर्ते के दो बटन खुले दिख रहे थे। मेरी नज़र बार-बार उधर जाते देख, उसने दुपट्टा नीचे खींच लिया। मेरा पूरा शरीर काँप उठा। लगा, ऊपर से पिंकी नहीं, बर्फ़ गिर रही हो। पता नहीं क्या सनक आई, मैंने उससे पूछ लिया—

तुझे कुछ देना चाहता हूँ, बोल क्या दूँ।

कुछ नहीं ।

बता न!

मुझे कुछ चाहिए ही नहीं, क्या बताऊँ?” उसका मुँह लाल हो आया। कान मेरे भी जलने लगे थे।

 

  बहुत देर हम दोनों बातें करते रहे।मैं सच में कुछ निशानी देना चाहता हूँ।बोलता जा रहा था। वो मना करती जा रही थी। मुझे जिद्द आ गई। वह भाग गयी। उसके बाद जब भी मिलती—क्या दूँ तुझे बोल न! पिंकी, बोल न!...” 

 

छोड़ न परे! कुछ नहीं चाहिए।सुनते ही वह चिढ़-सी जाती।

 

    एक दिन छत पर मैंने उसे घेर लिया। गर्मी की दोपहर थी। पिंकी कच्चे आम का छीला (अमचुर) सुखाने ऊपर आई थी। लू से बेहाल सब कमरों में दुबके थे। हमारी छत पर एक नीम झुक आया था। नीम की सुनहरी छाया में उसका हाथ पकड़ा और अपनी ओर खींच लिया। वह झटके से मेरे सीने से आ लगी। कोयलें बोल उठीं। वह अपनी ओर खिंचने लगी। उसका चेहरा लाल और पसीने से तरबतर हो आया। मेरे हाथों से अपनी कलाई छुड़ाने की जिद करते देख, मैंने कहा—तुझे भले कुछ नहीं चाहिए, मुझे चुम्मी दे न!मेरे मुँह से निकला शब्द…वह रोने-रोने को हो आई। अजीब लड़की थी। कहने लगी—मैं तेरी अम्मा से शिकायत करूँगी…।मैंने कहा–कर देना पर एक चुम्मी दे न!” 

 

   उसने शर्माते हुए कहा–शादी के बाद..!मैंने कहा–कर लेते हैं शादी।उसने कहा—पहले ये बता, खिलायेगा क्या? रखेगा कहाँ?” मैंने कहा–जैसे अम्मा रहती हैं, तू भी रहेगी, खा भी लेगी, कुछ न कुछ।उसने कहा—अम्मा के लिए पिताजी कमाते हैं।मैंने कहा–तो मैं भी कमाने लगूँगा।उसने कहा–कैसे?” मैंने कहा–नौकरी कर लूँगा।उसने कहा—पहले पास होकर तो दिखा।मैंने कहा–हो जाऊँगा।उसने कहा–पहले बोलना सीख। भाषा सुधार। कौन रखेगा तुझे नौकरी पर? नौकरी करना है।” 

 

अंतिम वाक्य मुँह बनाकर बोला था उसने।

 

 मुझे गुस्सा चढ़ गया। हाथ की पकड़ ढीली पड़ी, वह पटपट सीढियाँ उतर गयी। मैं ठगा-सा देखता रह गया। 

 

    अजीब लड़की थी।बोलना सीख…!” “नौकरी कर..!मतलब क्या…? क्या मेरी बोली अब तक खटक रही थी उसे ? साल से ऊपर हो चुका था, फिर भी…? माना कि वह कस्बाई बोलती थी। तो क्या हुआ..! मुझे मेरी बोली प्रिय है। मुझे बड़ा धक्का लगा। भयानक अपमान महसूस होने लगा। अपनी बोली और आवारापन, मेरा बजूद रहा, कैसे छोड़ दूँ। और क्यों छोड़ दूँ—अपना गाँव…? अपनी माटी।” ….क्यों करूँ नौकरी-फौकरी? क्यों सीखूँ शहर की मैं मैं मैं..?”

 

   छत से तनतनाते हुए मैं नीचे उतर आया। तय किया, अब कभी उससे बात नहीं करूँगा। माफ़ भी नहीं करूँगा। हफ़्तों उससे नहीं मिला। यद्यपि उसके बिना अकेलापन बहुत ज्यादा लग रहा था। फिर भी एक जिद हर समय देह में भन्नाती रहती। प्राण फुद्कू चिड़िया से उछलते रहते। थोड़े दिनों के बाद अहसास जब गहरे द्वंद्व में बदलने लगा। मन खिन्न रहने लगा। जितना लड़की को देखने, सुनने, बोलने से रोकता, उतना उसे ही सोचता। एक दिन पेट ऐंठने लगा। मुझे गुस्सा चढ़ गया। रोना आने लगा। रोकर निवृत्त हुआ, तो अनायास निर्णय ले लिया—कर लेता हूँ नौकरी। सीख लेता हूँ शहरी भाषा। पिंकी को जो पसंद है… क्या बुरा है उसमें..?”

 

   और ऐसे..! किसी के लिए कुछ भी न सोचने वाला मैं—एक रात अम्मा से बोला–अम्मा, मैं नौकरी करना चाहता हूँ।पहले अम्मा देखती रहीं। फिर कहने लगीं—कहाँ जाएगा रे भौन! तोय कौन राखेगा नौकरी पय। जैसा है, चुप्प चाप पड़ा रह आँखिन के सोझा।

 

   अम्मा का अकेला लड़का मैं। मोह बोल रहा था उनका। वैसे अम्मा ठीक भी कह रही थीं। मेरे पास शहर में नौकरी लायक न बुद्धि थी न भाषा, न ही सलीक़ा और न ही डिग्री। खेतों में हल, चला नहीं सकता था। जीवन को सिधाई में कभी देखा ही नहीं था। बस आवारापन! हुल्लड़बाजी ही मेरा जीवन रहा। बावजूद इसके नौकरी करने की जिद चढ़ गयी। जब बात पिताजी तक पहुँची। पिंकी वाली नहीं, नौकरी वाली। तो पहले उन्होंने हवा में उड़ा दी। लेकिन अम्मा ने जब मेरी मंशा और दृढ़ता,बतायी। तो मान गये। कहने लगे—भुलऊ के पास दिल्ली जा सकता हूँ।” 

 

भुलऊ उर्फ़ भोला चाचा का पता वे जल्दी ही ले आये। 

 

   भोला चाचा पिताजी के ताऊ के बेटे हैं। सीकिया पहलवान। गोरा रंग। सुनहरापन लिए दाड़ी और मूँछें। नहीं, मूँछें अब नहीं रहीं। लगता ही नहीं, वे उम्र की सीढियाँ चढ़ भी रहे हैं। उन्होंने अभी तक शादी नहीं की है। जब भी कोई कहता–भुलऊ,तुम्हरी उमिर ब्याहे की भई…।चाचा लड़ पड़ते। शहर में ऊँचे पद पर वे काम करते हैं इसलिए सब मौन रह जाते। 

 

  पिताजी के पाँच भाइयों में दूसरा लड़का मैं, नौकरी पर जा रहा था। उत्सव जैसा माहौल था घर में। पिताजी को विश्वास था कि भोला चाचा, मुझे नौकरी से जरूर लगवा देंगे। 

 

    पहली बार मेरे निमित्त पिताजी रुचि ले रहे थे। मुझे कैसा लग रहा था, बताने लायक शब्द नहीं। पर लग ग़जब रहा था। पिताजी मेरी अटैची लगा रहे थे। घर में मामा, बड़ी मौसी और दीदी आ चुकी थीं। मेरे दिल में पिंकी के प्रति ठहरी खामोशी थरथरा रही थी। 

 

  सबकी आँखों से मेरेसुधरनेका सुख छलक रहा था। 

 

   बड़ी मौसी अम्मा को भाग्यवान कह रही थीं। मामा, पिताजी से हँसी-मज़ाक कर रहे थे। अब तक की गयीं मेरी गलतियों पर पिताजी ने मिट्टी डाल दी थी। वे मेरे प्रति मुस्कुरा रहे थे। चाचा का पता ध्यान से रखवा दिया था। दीदी, बटुआ के साथ एक लाल पर्स ले आयीं। कहने लगी–पिताजी, इसे भी रख दो अटैची में।हमने अचम्भे से देखा। दीदी समझ गयीं।

 

शेविंग का सामान है। नौकरी में दाड़ी बढ़ाए अच्छा नहीं लगेगा तू।सब हँस पड़े। 

 

मनोज ने उत्सुक होकर पूछा—घर वाले तुम्हारा लफड़ा जान गये थे?” 

 

 वैसे तो ये बातें छिपती नहीं, लेकिन मैंने किसी को हवा नहीं लगने दी। अपने सुख-दुःख बचपन से अकेले सहने का आदी हूँ। रही बात पिंकी से मिलने की— तो मन नहीं था। क्योंकि मिलने का प्रयास उसने भी नहीं किया था। और ये भी सोचा–नौकरी के साथ बाबू बनकर मिलूँगा। अच्छी भाषा में आई लव यू बोलकर उसे दिखाऊँगा। वह मुस्कुराएगी। उसकी आँखों में झिलमिला उठूँगा मैं।

 

   पर मन नहीं माना। मैंने छत पर जाकर अपना नंबर दिया तो उसने भी एक पर्ची थमा दी। बोली–घर जाकर पढ़ना। किसी ने हमें साथ में देख लिया तो मरना हो जाएगा। पर्ची लेकर मैं लौट पड़ा। उसकी आँखों का ताप पीठ पर महसूस हो रहा था। सीढ़ियों पर लड़खड़ाते बचा। नीचे आकर पर्ची खोली—भुवन, जब अपना मोबाइल खरीद लूँगी तो अपनी तरफ से बात करूँगी। तेरा नंबर मेरे पास है। अगर जरा-सा भी प्यार करता है, तो जीजा-दीदी के फोन पर फोन मत मिलाना, कभी भी। तू तो जानता है– मेरी माँ नहीं है। किसी की आँखों में अपने लिए घृणा, मैं देख नहीं सकती। तू समझ रहा है न!

 

   मैंने पर्ची अटैची में रख ली। रात भर मुझे नींद नहीं आई। सुबह उठा तो देखा—अटैचियाँ आँगन में तैयार रखी हैं। अम्मा भावुक हो रही थीं। दीदी के साथ मौसी, मामा, पिताजी भी रुआँसे दिखे। पिताजी स्टेशन छोड़ने आये। दिलासा देते हुए कहा–भुलऊ अच्छी जगह रहता है। काम भी अच्छा है उसका। जल्दी ही लगवा देगा काम पर…।” 

 

   भरोसा देकर पिताजी जब लौटने लगे। लगा, उनके साथ सब कुछ लौट गया। भुवन लौट गया। गाँव लौट गया। दिन भर दौड़ते हुए रेल ने मुझे रात को दिल्ली पहुँचाया। 

 

   जो तस्वीर भोला चाचा ने दिखाई थी, टूटी तो नहीं, दरक ज़रूर गयी। चाचा के हिसाब से मुझे किसी बढ़िया इलाके में होना था। लेकिन था—बदबूदार नालियों से अटे किसी बस्ती के एक मुहल्ले में। मैंने पता निकालकर देखा। दरवाज़ा खटखटाया। दरवाज़ा खुला। अद्धे निक्कर में चाचा कुछ ज्यादा ही अमर्यादित शहरी लगे। क्योंकि अब तक तो मैं भी लुंगी बाँधने लगा था।

 

 ”आने से पहले बताना था। लेने आ जाता।चाचा हल्का-फुल्का गुस्साए।

पिताजी ने कहा–घर में कोई खबर देकर जाता है..?” 

 

   चाचा एक फोल्डिंग पर लेट गये। बोले–कुछ बचा हो—तो खा ले और आ, मेरे साथ ही सो जा।”  

 

   मैंने नजरें घुमाई। कमरे में एक पुराना सोफा पड़ा था। उसी पर लेटने के लिए मैंने कहा। चाचा मान गये।

 

    “तू कौन-सी नौकरी करने आया है...?” चाचा की नींद शायद टूट चुकी थी। मैंने कहा–जिसमें तुम लगवा दोगे।चाचा बोले–नौकरी यहाँ क्या उगती हैं?” मैं चुप रह गया। 

अच्छा चल, उदास मत हो। अभी सो जा, कल एक लोग से मिलवाता हूँ। 

 

   “ओहो! नौकरी लोगों से मिलकर ही मिल जाती है।नाहक ही अच्छी पढ़ाई न करने का मलाल लिए मरा जा रहा था। थोड़ी देर में चाचा के खर्राटे बजने लगे। मेरी रात गहरे दुःख में सरकने लगी। पिंकी से दूर होने का दुःख, घर, गाँव, दोस्त छूटने का दुःख। नई बोली-भाषा सीखने का दवाब। मैं कब सोया, पता नहीं चला। सुबह चाचा की आवाज से आँख खुली। मुँह में दुःख का कुल्ला-सा भर आया। दिन के उजाले में कमरे की दयनीयता रात से कहीं ज्यादा घनी लगी। 

 

  दस बजे हम चाचा-भतीजा सड़क पर थे। मकड़ी का जाल खाया हैलमेट पहनने को देकर चाचा ने मोटरसाइकिल स्टार्ट की। मैं पीछे बैठ गया। चाचा ने बोलना नहीं, भड़कना शुरू किया—जो काम कुछ बरस पहले मैंने किया, उसी को तू दोहरा रहा है। ठीक से पढ़-लिख लेता तो बात ही कुछ और होती। लेकिन चल, देखता हूँ।….एक चीज ध्यान रख भुवन…गाँव की बोली एकदम छोड़ दे। तू जोहम’ ‘हमरटता है, इसे तो छूत समझकर छोड़…। जबान से काम मिलता है यहाँ। तू गाँव की अबर-दबर करेगा तो पगार भी अच्छी नहीं मिलेगी और लोग मज़ाक भी उड़ायेंगे।

 

   चाचा की बातें और हैलमेट, लगा बाइक से कूदकर गाँव भाग जाऊँ।  

 

  “सुन भुवन, चप्पल सरका-सरका कर चलता है न! इस आदत को भी छोड़। जल्दी-जल्दी चलना सीख। बात-बात मेंसॉरी’, ‘थैंक्यू’, ‘वेलकम’, ‘एक्स्यूज मीशब्द रट डाल। नौकरी में अगर समाना है तो। ये शहर है। उसमें भी दिल्ली।” 

 

   भोला चाचा ने कहते हुए गाड़ी रोक दी। थोड़ी दूर चलकर एक आदमी से मिलवाया। मिलते ही वह समझाने लगा–हमारे यहाँ प्रोडक्ट डिलीवरी के अनुसार वेतन दिया जायेगा। प्रत्येक डिलीवरी पर पैंतीस से चालीस रुपयेडिलेवरी ब्वॉयको मिलते हैं। ब्लिंकिट कंपनी की सर्विस सुबह सात बजे से रात एक बजे तक चलती है। जितनी ज्यादा डिलेवरी,उतनी जयादा सैलरी! और हाँ, तुमने अगर किसी और को सर्विस से जोड़ा तो महीने के चार सौ रुपये और मिलेंगे। पहले एक किलोमीटर की दूरी में डिलेवरी पहुँचाना सीखो। फिर पाँच किलोमीटर तक काम मिलने लगेगा। इसके लिए तुम्हें, शहर में चलना, फिरना, बात करना सीखना पड़ेगा। अपनी भाषा पर ध्यान देने की जरूरत है। सैलरी महीने, पंद्रह दिन या साप्ताहिक जो ठीक लगे बता देना। मिल जाया करेगी।” 

 

   आदमी चला गया। भोला चाचा चिंतित दिखे।डिलेवरी ब्वॉयका काम चाचा भी करते हैं और गाँव में साहबी…। मैंने माथा पकड़ लिया। 

 

अभी तक मनोज, मैं शहर के भीतर कई शहर देख चुका था। फिर भी गाँव फीका नहीं पड़ा था।

 

कैसे?” मनोज हँसा।

 

   “रेलवे स्टेशन वाला अपंगता से भरा शहर। चमकती कोठियाँ, चौड़ी सड़कों वाला शहर। चौराहों पर भिखमंगों से भरा शहर जब दिखता तो मन कसैला हो जाता।

 

मनोज मेरे कंधे सहलाते हुए बोला–चुप क्यों हो गया भुवन!” 

 

जो कथा मैं सुना रहा था— मेरे जीवन का वह दौर था,जिसमें गन्ने की तरह पिर रहा था मैं।  

 

  मैंने मनोज से प्रश्न कर दिया–अच्छा बता, मेरी उम्र कितनी है?” 

मेरी उम्र का ही तो है। जोड़ ले 20-21 या ज्यादा होगी तो बाईस…।हँसकर कहने लगा।

अपनी इतनी उम्र में सिर्फ तीन साल, चार महीने, पन्द्रह दिन ही याद क्यों हैं मुझे?  

मतलब जितना समय पिंकी के साथ तुमने गुजारा, उतना ही जिंदा रहे। बाकी…?” 

 

मनोज का चेहरा उतर गया था। मेरा गला भर आया। मैं आँखें पोंछने लगा। वह उदास हो गया। 

 

तू तो शहर बड़ा बनने गया था न! और बना भी!मनोज सांत्वना देने लगा।

 

    वह नहीं जान रहा था—भुवन बड़ा नहीं, कमज़ोर और छोटा बनकर लौटा था। घर-घर सामान पहुँचाने वालों की भीड़ में अजनबी-सा एक देहाती लड़का। जिसके भीतर उसका अपना सब कुछ होते हुए भी वह लगातार अपने स्वाभिमान को गिरते हुए देख रहा था। देख रहा था अपनी बोली-भाषा के विलय को भी। रोज सुबह उठकर अपनी बोली को मार कर बिस्तर में सुला देना। और पिट्ठू बैग के साथसॉरी, थैंक्यू उठा लेना। न जाने कैसे-कैसे शब्द अपनाने की कोशिश में लग जाना। स्वाभिमान कितनी बार टूटता, गिन न पाता।

 

  ये बात मैं भूल रहा था—जो भाषा मुझे पहचानती ही नहीं, उसे अपना बना भी कैसे सकता था। खोखली, बेस्वाद, बेतासीर भाषा मुझे एक आँख न भा रही थी। फिर भी सीखने को मजबूर था। इस जद्दोजहद में मेरे भीतर एक ज्वालामुखी जन्म ले रहा था। सभ्य बनने की जुगत में जिसे दबाने, सुलाने, अनदेखा करने में लगा रहता। साथ में वह दर्द कभी पीछा नहीं छोड़ता–पिंकी ने अभी तक एक बार भी फोन नहीं किया था। छह महीने के ऊपर का समय बीत चुका था। एक-एक दिन पहाड़ बनकर बीत रहा था।

 

  अपने वादे के अनुसार मैंने कभी उसके घर फोन नहीं किया। अब मुझे मोबाइल हमदर्द नहीं, बेदर्द डिवाइज़ लगने लगा था। दिन-रात उस घंटी का इंतजार रहता, जिसके कहने पर मैंने ये सब भौंडा-सा स्वीकारा था। अपनी बादशाहत-नंबरदारी छोड़ी थी। फक्कड़ों की औकात नामवरों से ज्यादा मानता था….। 

 

    कभी जब घर से फोन आता तो लगता कि पूछ लूँ— पिंकी कैसी है? हो सके तो बात करवा दो। पर कह नहीं पाता। जमाने भर का संघर्ष साथ लिए घूमता रहता। वे बदलाव बाहरी नहीं, आत्मा के थे। समय मानो देह से खाल उतार कर नई चढ़ा रहा था। कमाने का भूत चैन से बैठने नहीं देता। अब मैं आधी रात तक सड़कों पर जूता घिसता रहता। चाव एक ही कि जब पिंकी से मिलूँगा तो उसकी आँखों की चमक देख सकूँगा..! वह इसरार करेगी। मैं मनुहार करूँगा।

 

   चाचा की बस्ती में हर चेहरा बेचारा देख-देखकर ऊब होने लगी थी। सब एक अंजान हँसी ओढ़े, जिए जा रहे थे। सबके सब अपने गाँव-कस्बों को मारने की जुगाड़ में दिन-रात लगे रहते।ब्लिंकिट वेयर हाउससे सामान उठाकर घरों तक पहुँचाते रहना। दिन में डिलेवरी की संख्या पर नजर रखना। मिनट-मिनट का हिसाब रखना। जल्दी के चक्कर में एक दिन नहीं, कई-कई बार लाल बत्तियाँ फलांग जाता। पुलिस चालान काट देती। एक बार पूरी रात थाने में गुजारी। नानी याद आ गयीं।

 

    मेरे पाँव को देख रहे हो न मनोज। एक दिन रात डिलीवर करने जा रहा था। उस दिन सुबह पता चला—भोला चाचा के किसी औरत के साथ संबंध हैं। मेरी वजह से मिलने नहीं आ रही है वह। झूठ बोलकर चाचा अक्सर रात में गायब हो जा रहे थे। उनका शादी न करने का राज चारों खाने खुल गया था। दिमाग भन्ना गया। उसी दिन चाचा से जैसे एक विरक्ति-सी हुई। अकेले रहने का निश्चय करने लगा। सोचा, कुछ दिन बाद नई जगह अपना कमरा तलाश लूँगा। घर जाने की प्रतीक्षा विस्फोट की तरह हमेशा सीने में सुगबुगाती रहती। पिंकी को लेकर अजीब बेचैनी बनी ही थी। यानी डबल-ट्रिपल परेशानी में उलझा मन लिए उसी रात डिवाइडर से गाड़ी भिड़ा बैठा। चप्पल पहनी थी, पाँव का अँगूठा टूट गया। 

 

   अथाह दर्द। निराशा। उजाड़पन लिए जब तक पाँव का प्लास्टर उतरा, चाचा घर जाने की तैयारी में लग गये। सवा साल नहीं, पौने दो साल बाद शहर को साथ लेकर गाँव जा रहा था। 

 

   एक दिन सामान से खचाखच भरे कई-कई बैग लिए हम लोग रेलवे स्टेशन पहुँचे। गाँव का आदमी कुली-उली के चक्कर में रहता नहीं। चाचा ने बिजली वाली सीढियाँ लेने को कहा। उस दिन भीड़ नहीं थी। मगर मेरा पाँव कैसे फिसला या उल्झा…आसमान से पाताल में आ गिरा। लगा मर गया। तब तक सीटी बजाती हुई रेल आ धमकी। पाँव घसीटते हुए बैठ गया। सोचा थोड़ी बहुत चोट लगी होगी? लेकिन घर पहुँचते-पहुँचते हालत खराब हो गयी। बुखार के साथ पाँव में करेंट सा चढ़ गया। आनन-फानन पिताजी, अस्पातल ले गये। बाकी तुम देख ही रहे हो। 

 

  मनोज हँसता रहा। बोलता रहा। मेरा मन बहला लेना चाहता था। वह चाह रहा था कि उसके बिना बोले—मैं अपने अतीत को भूल जाऊँ।मुन्ना को बुला लेता हूँ। अच्छा लगेगा।फोन निकालते हुए मनोज ने कहा। बड़ी मुश्किल से रोक पाया। सबके साथ एक जैसी आत्मीयता नहीं होती। 

 

  भरोसेमंद साथी के रूप में मनोज था। उसकी जगह कोई नहीं ले सकता…।

 

थोड़ी देर मनोज मौन बना रहा। फिर अचानक बोल पड़ा–पिंकी आई थी देखने…?” 

मैंने कहा—बस, यही मत पूछो।

 

     जब अस्पातल से लौटा तो आधा गाँव देखने आया। पिंकी नहीं आई। मेरी आँखें खोज उसी को रही थीं। एक दिन। दो दिन। तीन दिन। चौथे दिन श्याम भैया जैसे ही गये–मैंने अम्मा से पूछ लिया।

 

अम्मा हँसकर बोली—-का रे भौनवा..! ओखा काहे पूछत हो? बिहाय हुई गवा पिंकी कय। चली गयी ऊ अपनी ससुररिया। भली बटिया रही।” 

 

   “ओ तेरे की…अब...?” मनोज की आँखो में प्रश्न ही प्रश्न उमड़ पड़े। मैंने तकिया के नीचे से सिगरेट की डिब्बी निकलते हुए कहा।दरवाज़ा बंद कर लो।मनोज ने दरवाज़ा उढका दिया। कहने लगा—एक मेरे लिए भी सुलगा लेना।” 

 

 मनोज,धीरे-धीरे धुएँ के कश खींचने लगा। मुझे धुवाँ के छल्लों में भी शान्ति नहीं मिल रही थी। 

 

"हादसे कितने डरावने और जीवन कितना निरापद! जीने की जद्दोजहद में कितने जीवन बनते-बनते बिगड़ जाते हैं। मेरा जीवन भी हादसों में शुमार हो गया…।”  

 

 बहुत देर वह मुझे देखता रहा। बोला—बाकी तो समझ रहा हूँ लेकिन फिलासपर कब बन गए तुम.?” 

 

  अरे! जब नौकरी और भाषा सुधारने की जद्दोजहद में फँसा था? एक रात तुम्हें फोन कर दिया—तुम ने कहा था–भाषा सुधारना है तो साहित्य पढ़ा कर।उसके बाद तो डिलेवरी करते-मरते हुए भी न जाने कितनी किताबें पढ़ डालीं। हस्र ये निकला। मनोज ने सिगरेट पाँव से मसल दी और मुखातिब होकर बैठ गया।

 

छोड़ो न यार! अपनी तबियत सुधारो। चाचा के पास जाने का इरादा बनाओ? नौकरी करने का मन बानाओ। ऐसे काम नहीं चलेगा।

नहीं। अब कुछ नहीं बचा।

मतलब छोकरी नहीं मिली तो नौकरी भी नहीं करोगे…।अच्छा-ख़ासा कमा रहे थे। मैं तो कहूँगा, लौट जाना चाहिए तुम्हें उसी दुनिया में। मैं भी जा रहा हूँ, दो-चार दिन में काम पर।"

नहीं, मेरा मन नहीं, कहीं जाने का।

"क्यों?"

"मेरे पास कोई कारण नहीं…।"

यहाँ, मन नहीं लगेगा। शरह में रहने का एक अलग नशा होता है। मानो कहना…। खेती का काम कठिन होता है…।

उतना कठिन नहीं, जितना किसी को भुलाना…।

चाचा के पास कितनी खेती है?”

होगी कितनी भी, नहीं पता।

लोग ऑर्गेनिक चीजें खाना बहुत पसंद करते हैं। जैविक खेती करने की सोचो अगर गाँव में रहना है तो। वीडियो यूट्यूब पर बहुत मिल जाएँगे। तुम्हें बताया नहीं, मैं एक ऑर्गेनिक फार्म में काम करता हूँ। इसलिए बता रहा हूँ। मन का मन लगा रहेगा और खूब कमाई होगी। मैं तुम्हारी मदद करता रहूँगा।

“..........”

"भुवन, अगर देखा जाए तो तुम्हें तुम्हारा रब मिल गया। चाहे रास्ता कोई भी रहा हो।

रब मिल गया होता तो बात ही क्या थी! ये यातना का विस्तार है।

मत कहो गलत-सलत…।”  

जिसके लिए खुद को बदला। वही नहीं मिला। तो क्या शहर, क्या गाँव?” 

 

पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं, कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं।” 

मतलब …?” 

   मनोज नहीं बोला। सिर झुकाए बैठा रहा। फिर बाँहों में मुझे कस लिया। भरा-भरा मैं बरस पड़ा। देर तक वह कसे रहा। जिंदा बने रहने के गुर सिखाता रहा। बुदबुदाता रहा कान में बचपन की बातें। कठिनाइयों से निकलने की तरकीबें। मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। मगर हमदर्दी की एक महीन लकीर खिंचती जा रही थी, मेरे भीतर।

 

   दुष्यंत कुमार के शेर गुनगुनाने, खुश रहने की हिदायत देकर मनोज चला गया। देर तक मैं उसे जाते हुए देखता रहा। उसके जाने में, लौटने का भरोसा था, लेकिन …?

*************


 

 


 


Comments

  1. ये कमेन्ट सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर भूपेन्द्र कुमार जी ने व्हाट्सएप पर भेजा है.....

    कल्पना जी आपकी कहानी आज की जनधारा में पढ़ी। कहानी में ग्रामीण क्षेत्र के युवाओं के सपने,संघर्ष और पलायन की अच्छी खासी पड़ताल की गयी है।

    आधुनिक समय के कथाकार गाँव और कस्बे की समस्या पर आधारित कहानियाँ लिखना जैसे मुनासिब नहीं समझते हैं। या फ़िर शहर में बैठकर गांव को लिखते हैं जो सिर्फ खानापूर्ति से ज्यादा नहीं। उनमें कल्पना मनोरमा का लेखन अपवाद है। "बीस साल का लड़का" कहानी की मूल संवेदना और चरित्र चित्रण में साम्य बिठाने की चाहत और कोशिश बहुत महत्वपूर्ण लगती है।

    अभी तक डिलीवरी ब्वॉय पर शायद ही करूण रस की कहानी लिखी पढ़ी गई हो! इस तरह लगता है कि आपने नये विषय को लेकर कथानक पेश किया है। कहानी दिल को छूने वाली है।
    व्यक्ति के जीवन में भाषा और बोली को लेकर संवेदनशील विमर्श खड़ा किया गया है।
    यह कहानी आपको आत्मविश्वास प्रदान कर सकती है। आप समकालीन कथा साहित्य में समकक्ष कथाकारों को आइना दिखा सकती हैं। आवारा पशुओं या ऊलजलूल विषयों पर लिखने वाले इस कहानी से सबक ले सकेंगे। क्योंकि मानवीय संवेदनाओं को अभी भी लिखा जाना बहुत जरूरी और बाकी है।

    इस कहानी में विषय एक नहीं, कई कई डायमेंशन पर कहानी समय समाज और जीवन की बात कहती है। प्रेम इस कहानी का आंशिक पक्ष है। युवा विमर्श के साथ पारिवारिक, सामाजिक, किसान जीवन, गांव से पलायन करते मनों की पीड़ा और इस बनते बिगड़ते समय में एक अच्छे मित्र की जरूरत और उसकी उपस्थिति की भी बात कहती है।लेखन जिंदगी को महसूस करने की
    चीज है।
    कोई कलम का सौदागर बन जाये तो बात ही जुदा है।

    कहानी में वर्तनी की त्रुटियां अखरी। लेखिका इसका ध्यान रखेंगी।

    अंत में बस इतना ही कि कहानी के नायक भुवन के लिए निदा फाजली की ये पंक्तियां भरपूर याद आती हैं।

    बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यूं नहीं जाता
    जो बीत गया वो गुजर क्यों नहीं जाता।

    भूपेंद कुमार

    ReplyDelete
  2. "बीस साल के लड़का" पर ये प्रतिक्रिया डीयू यूनिवर्सिटी की गणित की प्रोफेसर कामिनी रावत जी ने fb पर पोस्ट की है. जिसे मैं कहानी के साठ संरक्षित कर रही हूँ. स्नेह और आभार के साथ...


    आज की जनधारा-2025 में कल्पना मनोरमा की कहानी 'बीस साल का लड़का' पढ़ी। भाषा केवल संवाद का माध्यम ही नही हमारे व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति का भी साधन होती है। कहानी में वो प्यार दिखाया है जो 20-21 साल की उम्र में अपने बगल वाली छत पर किसी लड़की को देख कर युवा मन मे हिलोरे लेने लगता है, उसे पाने के लिए अपने भीतर सालों से पक कर तैयार कुछ भी बदलने को तैयार रहते हैं। लड़का आवारा, खिलन्दड़ स्वभाव का है, जो अपनी खिचड़ी भाषा से बेपरवाह है। छत वाला उसका प्यार उसकी बोली पर ताना मारता है तो लड़का सभ्य बनने के लिए शहर निकल पड़ता है । शहर पहुंचकर उसके मन मे बैठी हुई शहर की सुंदर तस्वीर भी दरकती है, जब उसका सामना बदबूदार नालियों से अटी बस्ती से होता है। लड़का डिलिवरी बॉय की नौकरी करता है। अपनी खिचड़ी बोली को तिलांजलि देकर शहरी भाषा को अपनाने की लड़ाई लड़ता है। शहरी भाषा से उसका संघर्ष जारी रहता है। उसके भीतर के देहातीपन से शहरीपन की जद्दोजहद जारी रहती है। अपनी बोली में विलय के साथ वो हर दिन अपने वजूद का हिस्सा दरकता हुआ महसूस करता है । दो साल बाद जब घर जाता है तो पता चलता है कि छत वाला प्यार तो किसी और का हो गया। जिसे पाने के लिए खुद को बदला, वो ही नही मिली। कहानी का शीर्षक एकदम सही है 'बीस साल का लड़का'। बीस साल के लड़के की छत वाले प्यार की यही परिणती हो सकती है।

    कहानी में लड़के के भीतर शहरीपन और देहातीपन की जद्दोजहद के माध्यम से दिखाई देता है कि बोली-भाषा कैसे तुम्हारे वजूद का हिस्सा होती है। कहानी में युवा मन में उड़ान लेते सपने और सच्चाई से सामना होने पर उनका दरकना दिखता है।

    कामिनी रावत

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  3. बहुत अच्छी कहानी, अब जब भी किसी डिलीवरी बॉय को देखा तो उसके पीछे और भी कुछ दिख जाएगा, उसकी बेबसी और उसका बलिदान

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