इत्ती-सी खुशी

 

घरों की मुंडेरें हों या कॉलोनी के पेड़-पौधे, सभी पर छोटे-छोटे बल्बों की रंगीन लड़ियाँ लगा दी गई थीं। उजाले का मर्म अबोले कहाँ जानते हैं; वे तो स्वयं उसको पाकर उत्स में बदल जाते हैं। चौंधियाती साँझ रात बनकर अपने प्रेमी, चाँद के साथ पसरने को बेताब थी लेकिन चारों ओर बिजली का रुआब इस क़दर तारी था कि पेड़ों के हरे रंग के साथ धरती का भी रंग खिल उठा था। इस बार दीवाली आने से पहले मेरे घर का भी पता बदल गया था। भले एक कमरे का ही सही, अपना घर खरीदकर केतन ने मेरी जिंदगी को रोशन कर दिया था। किराए के सीलन भरे घर से निजात मिल चुकी थी। जिंदगी की भव्यता का छोटा-सा ही सही,मुझे पहली बार परिचय मिला था।

सातवीं मंजिल पर खड़ी मैं नीचे झाँक-झाँक कर देखे जा रही थी। पार्क का मनभावन दृश्य, धूसर हो चुकी मेरी आँखों के लिऐ भोर की नरम ओस जैसा लग रहा था। पलट कर मैंने अपने चारों ओर देखा तो जल्दी-जल्दी बालकनी में पड़ीं अपनी उदास,पुरानी और बेरंग चीज़ों को धकेलकर किनारे ढक दिया। दो चार ठीक-ठीक गमलों को थोड़े-से ऊँचे पर रख दिया ताकि आठवीं मंजिल से हम अच्छे दिख सकें।

"आजकल का मूलमंत्र भीतर कुछ भी हो लेकिन बाहर से सुंदर दिखो। ये उचित नहीं।" 

जैसे खुदी ने खुद को बरजा तो मैं पौधों पर जमी मिट्टी को साफ करने लगी लेकिन  मन नहीं माना; मैंने फिर नीचे झाँक कर देखा। एक महिला सुंदर परिधान में लिपटी बाहर निकली और चट से गाड़ी में बैठकर फ़ुर्र हो गयी।

"ये निश्चित ही कुछ खरीदने जा रही होगी।" 

मैंने अंदाजा लगाया तो मन ने हामी भर दी

"हाँ हाँ दीवाली है भई!" 

"तो क्या मुझे भी इस धनतेरस कुछ ख़रीदना चाहिएवैसे तो न जाने कब से जिंदगी की मीनमेख ने धनतेरस को कुछ भी ख़रीदवाना बंद ही करवा दिया था। पर इस बार क्या सच्ची में कुछ ख़रीद लूँ? एक कटोरदान, जैसा वृंदा मौसी के घर देखा था।" 

मैंने हवा में फिर से एक प्रश्न उछाला, उत्तर मिला 

"न न बेटे से इतना ख़र्च करवा तो लिया है। उसके बाद धनतेरस का शगुन करने के लिए भी तू उससे कहेगी। बस इतना ठीक है, इस दीवाली।" 

अब केतन के पिता होते तो कुछ बात और ही होती। सोचकर मैंने भी अपने आपको समझा लिया। कुछ 'ना' के बाद भी मन हल्का-हल्का था। मैंने आँखें उठा कर अपने सिर के ऊपर तनी और झुकी-सी छत को शुक्रिया के साथ निहारा तो आँखों के किनारे नम हो आये

मैं अपने विचारों में निमग्न बालकनी में पड़ी कुर्सी में बैठ गयी और धीरे-धीरे धनिक बस्ती में शर्मीली शाम का उतरना देखने लगी। आज थके हुए दिन की ढलन कुछ अलग लग रही थी। मन जीवन के किनारों पर शांत हुआ ही था कि अचानक कान हरकत में आ गए और घर के भीतर हो रही खुरस-फुसर पर केंद्रित हो गए।

"मेट्रो सिटी में रहने के अपने ही अलग दुख होते हैं भाई।"

"क्यों भाई?"

"अरे! यहाँ न चैन से जिया जा सकता है और न ही मरा।"

एक आदमी ने दूसरे से बोला था। उसको सही ठहराते हुए दूसरे ने अपनी मोटी आवाज़ में कहा,"तुमने सुना नहीं लगता! अक्सर यहाँ रहने वाले हजारों लोग आपको ये कहते मिल ही जाएँगे कि "महानगर में तो हम रहते हैं, लेकिन यहाँ बृहस्पतिवार की लोई के लिए गाय नहींनवरात्रियों में कन्यायें नहीं और दाता को जल्दी से सच्चे जरूरतमंद नहीं मिलते। और मिलते भी हैं तो जुआरी-शराबी। जिनको कुछ देना मतलब उनके परिवार को विपत्ति में डालना। उनसे तो लोगों को तौबा ही कर लेनी चाहिए।

"चल छोड़ो यार! बे-मतलब की बातों में अपनी जान क्यों फंसाए हो? आज तो अपनी जमेगी न..?"

दोनों आवाज़ें थमी तो खिखियाकर हँसने का समिलित स्वर गूँज उठा। अब मेरे लिए अपनी जगह पर बैठे रहना मुश्किल हो गया था झपटकर मैंने अंदर झाँकते हुए बेटे से पूछा। 

"केतन,ये कौन है? जो बड़ी अजीब-अज़ीब बातें करता जा रहा है?" मेरे चेहरे पर नए स्थान पर नए होने का अजीब-सा डर छितरा चुका था। 

"अम्मा! आप परेशान मत हो मैं बताना भूल गया था। दरअसल मुख्य द्वार पर बत्ती वाली बंदनवार लगाने के लिए मैंने ही इलेक्ट्रीशियन को बुलाया था। वही अपने हेल्पर के साथ आया है।

"अच्छा! बड़ी अलग-सी बातें कर रहे हैं दोनों।"

"अम्मा, धीरे बोलो प्लीज़! अब आप गलियों में नहीं एक संभ्रांत सोसायटी में रह रही हो। और वे लोग अपनी बातें कर रहे हैं। उससे हमें क्या! और वैसे भी जीवन के प्रसंग सबके अपने-अपने होते हैं। मेरी भोली अम्मा। अच्छा चलो आपके छालों की दवाई दिलवा लाता हूँ। देर होगी तो बाज़ार में ठेलम-ठेल मच जाएगी।

मुझे समझाकर वह तुरंत भीतर की ओर मुड़ गया।

"अम्मा जल्दी करना...!" उसने फिर कहा।

"हाँ, इन लोगों के जाने के बाद ही न!"

हाँ जी अम्मा!

सही तो कहा केतन ने। बाज़ार का दूसरा नाम  ठेलम-ठेल ही होता है। लाने को मैं खुद भी दवाई ला सकती थी लेकिन त्योहार के दिनों में बच्चे जितना नज़दीक रहें, उतनी ज़्यादा ख़ुशी मिलती है। वैसे देखा जाए तो आजकल के बच्चे नौकरी की चकल्लस में नाक तक डूबे रहते हैं। कब वे अपने साथ बैठें और कब परिवार के। अब देखो न! आज घर से निकलने का मेरा भी बिल्कुल मन नहीं था लेकिन शरीर की व्यथा कहाँ समझती है मन के संकल्पों को।

"चलता हूँ सर!" अपनी ऊब-चूब में डूबी मैं फिर से बालकनी में जा बैठी थी कि अचानक उन दोनों ने जाने की आज्ञा बेटे से माँगी तो मुझे भी छुट्टी मिली।

"चलो अच्छा हुआ जल्दी चले गए। केतन कौन-से कपड़े पहनूँ?" 

"अम्मा जो आपको पसंद हों।" बेटे ने कमरे की खिड़की बंद करते हुए कहा।

"बस दो मिनट का समय और दो, अभी चलती हूँ।" कहते हुए मैंने अलमारी खोली। एक तोतयी रँग का कुरता मेरे हाथ में आया। उलट-पलटकर देखा और वापस रख दिया। अब इसे बाहर नहीं पहनूँगी पहले की और बात थी और एक ठीक-ठाक साड़ी निकालकर पहन ली।

घर से निकलते हुए बेटे ने कहा,"क्या बात है अम्मा? आप किन ख़्यालों में खोई हो? सब ठीक तो है न! छाला ज्यादा दर्द कर रहा है?"

"नहीं,जब उम्र बढ़ने लगती है तो चिंताओं की सूची बनिये के ब्याज जैसी बढ़ने लगती है बेटा! कहना था लेकिन कुछ ख़ास नहीं, कहकर शांत हो गयी। 

दो कदम आगे बढ़ते हुए उसने कहा,"अम्मा! मुझे कुछ गैस्टिक जैसी फ़ील हो रही है, लिफ्ट की जगह सीढियाँ ले लें?" सोचा बच्चे ने इतने मन से हमारे सीढि़यों वाले जीवन में लिफ्ट को प्रगटाया है तो क्या हुआ! चलो उसके कहने का मान रख लेती हूँ किन्तु मेरे घुटनों ने सिरे से इनकार कर दिया और हम चुपचाप लिफ़्ट से उतर गए।

"सारा दिन कम्प्यूटर से चिपके रहते हो गैस नहीं बनेगी तो और क्या होगा? थोड़ा-बहुत घूम-टहल लिया करो बेटा!" कह कर मैंने उसकी बात न मानने की अपनी ग्लानि थोड़ी कम कर ली थी

बेटा ड्राइविंग सीट पर बैठ गया और मैं उसकी बगल में। हम गेट पर पहुँचे तो सलाम कर गार्ड ने गेट खोल दिया। अब गेट खोलना तो उसकी ड्यूटी बनती थी लेकिन सलाम ठोकने की क्या जरूरत थी? गाड़ी चल रही थी सो सड़क पर पहुँचते ही रफ़्तार में आ गयी । 

मैंने सोचा, जाने दो जिसको जो करना है करे, मुझे क्या? लेकिन फिर एक अजीब-सी  जिद्द उठकर मेरे दिमाग को खटखटाने लगी और मैंने बोलना शुरू कर दिया।

"गार्ड से कह देना, जिसे पसंद हो उसे सलाम किया करे बार-बार कम से कम मुझे तो न ही करे तो अच्छा होगा। उम्र देखी है उसकी? मेरे पिता के बराबर होगी। और तुम! गाड़ी ज़रा आराम से चलाया करो! साहब होगे सबके लिए पर मेरे वही केतन हो जो कंधे से लटक-लटक कर टॉफी माँगा करते थे।" 

एक साँस में बहुत कुछ कहते हुए स्टेयरिंग पर हाथ रख मैं ढेर भड़क गयी। 

उसने मुस्कुराकर अपने माथे पर पड़े बालों को सम्हालते हुए कहा। "जब तुम मेरे साथ हो तो न मुझे कुछ होगा और न ही गाड़ी को। और हाँ ये 'मिडिल क्लासियत' छोड़ो अम्मा।" कहकर होंठो को गोल-गोल बनाकर सीटी बजाने लगा। उसका आख़िरी वाला वाक्य शायद गार्ड वाली बात के लिए था। 

दौड़ती हुई गाड़ी थोड़ी-सी स्लो चलने लगी थी मुझे लगा कि मेरे कहने का गाढ़ा असर हुआ है बेटे पर लेकिन मैं गलत थी। गाड़ी लाल बत्ती पर रुकने के लिए स्लो हुई थीऔर देखते ही देखते हम कतारों में आ गये थे। ये नज़ारा कभी टी.वी पर देखा करती थी। आज अपनी गाड़ी में हूँ। सोचते हुए बेटे पर नाज़ हो आया। खिड़की की तरफ़ वाले हैंडिल कोे पकड़ बाँह पर सिर टिका लिया। कोई-कोई बात सार्थक होने में आदमी की तिहाई जिंदगी ले लेती है। सोचते हुए जितना सामने से देख सकती थी देखने लगी। क्योंकि घर से बाहर निकल कर ज़्यादा चकमक करना भद्रता की निशानी नहीं होती। केतन के पिता ने मुझे कई बार समझाया था।  

मेरी तन्द्रा तो खिड़की के काँच पर पड़ने वाली धप-धप से टूटी। देखा एक लड़की मैले-कुचैले कपड़े,उलझे बाल और पपड़ाये होंठ लिए एक मरघिल्ला-सा उघारे बदन बच्चा काँख में दबाये,बार-बार दाँत निकाल शीशे से हाथ लगा-लगाकर माथे से लगाये जा रही थी।बिना देर किये मैं पर्स से सिक्के वाली थैली निकालने लगी बेटे ने घूमकर मुझे देखा और आव देखा न ताव मेरे हाथ को बीच में ही पकड़ लिया और अपनी कसम दे कर बोला। 

"प्लीज़ अम्मा इसको कुछ देने मत लगना।

क्यों ?”

अरे इनका तो धंधा है ये यह लड़की कोई भिखारी-फिखारी नहीं....।

उसकी ओर से आया अप्रत्याशित वाक्य सुनकर मैं धक्क से रह गयी। मन ग्लानि से भरने लगा। उसके संग-साथ होने की ख़ुशी छिटक कर कहीं छिप गयी और बेटे के ऊपर बहुत क्रोध हो आया। आज की सोच अगर ऐसी हो गयी है तो तुलसी को लिखना ही नहीं चाहिए था। 'तुलसी पंछिन के पिये,घटे न सरिता नीर। धरम करें धन न घटे,जो सहाय रघुबीर।' समय की बे-अदबी पर भारी खिन्नता उमड़ पड़ी

"अपनी कमीबेसी के बावजूद भी जब से याद सम्हाली थी, दोहे के इसी मर्म के सहारे अपने जीवन की ऊँची-नीची पगडंडियों पर चलती आ रही थी। माँ ने भी तो बचपन में यही सिखाया था़ कि "माँगने वालों के हाथ हज़ार-हजार बार मरकर फैलते हैं। जितना हो सके खाली न लौटने देना।" 

"ये मेरा बच्चा है! इतना कम भी नहीं कमाता है और नियति तो देखो इसकी! मन विक्षोभ और क्रोध से भरने लगा था। अपनी बनाईं परम्पराएँ जब अपने ही तोड़ते हैं तो आवाज़ नहीं आती लेकिन दिल जार-जार रो पड़ता है। किसी की रुपया-कौड़ी से मदद कर उसके दर्द में सहभागी होना क्या गलत है? माना कि आदमी उतना ही कमा पाता है जितना अपने ओढ़ने-बिछोने ही धो-सुखा पाए लेकिन चुटकी भर से  क्या....।" 

सोचते हुए मेरा मन चोटिल हो चुका था सो अपने आप मेरा रुख बदल गया। मेरी बात का वह उत्तर देता तब तक लाइट ग्रीन हो चुकी थी इसलिए गाड़ी फिर से अपनी लय में आ गयी। 

"हो गयी न! तुम्हारे मन की।" सिर झटककर मैं बाहर की ओर देखने लगी।

अपनी लेन लेते हुए उसने मेरा सारा गुस्सा एक तरफ झाड़कर स्नेह से अपना हाथ मेरे घुटने पर रख दिया। मैंने उसको झटका तो नहीं। सोचा सयाना हो गया है लेकिन धीरे से नीचे सरका दिया।

"अम्मा आप उसी बात को क्यों पकड़े बैठी हो। थोड़ा प्रेक्टिकल बनना सीखो।" उसकी इस बात पर कुछ नहीं बल्कि बरस पड़ना था मुझे। फिर भी मैं कुछ नहीं बोली लेकिन उसने बोलना जारी रखा।

"आप नहीं जानती हो इसमेट्रो सिटी के तामझाम। यहाँ की संस्कृति बड़ी निराली और नीरस है। यहाँ कोई किसी का नहीं और सभी सबके आपको पता भी नहीं चलेगा..."

तोरहना तो हमें इंसान बनकर ही है न! या हम जानवर बन जाएँ?" 

उसको बीच में टोकते और अपना गुस्सा पीते हुए कहा तो मुझे अपने कान की लवें गर्म होती सी लगीं।

"बराबर, लेकिन यदि हम भिखारियों की बात करें तो ये लोग जो भी भीख माँगते हैं, ‘डायरेक्टउनकीपॉकेटमें कुछ भी नहीं जाता।"

"....."

"अम्मा! यहाँ हर एक भिखारी के लिए अलग-अलग चौराहा एलॉटेड है और बाक़ायदा इनको संचालित करने के लिए इनके ठेकेदार होते हैं। उनका ये बहुत बड़ा कारोबार है।

"क्या मतलब ?"

"मतलब ये कि दिनभर भिखारी अपने प्राण होमकर जितना कमाते हैं, रात को जाकर अपने ठेकेदारों को सौंप देते हैं। इनकी मेहनत का कुछ भाग ही इन्हें नसीब होता है। जिस लड़की के लिए तुम उदास बैठी हो, क्या पता उसकी गोदी वाला बच्चा भी उसका न हो।"

"महानगर की नब्ज़ बेटे ने कैसे और कब पकड़ ली? कहने को मैं भी बीसियों साल से इसी शहर में रहती आ रही हूँ फिर भी इससे अनभिज्ञ ही रह गयी। हाँ, ये हो सकता है कि मेरी पॉकेट ने मुझे बाहर निकलने की कभी इजाज़त ही नहीं दी घर के बाहर क्या हो रहा है शायद इसीलिए नहीं जान पाई।"

"ये खुद से बतियाने का क्या सिस्टम है अम्मा ?"

"तुम भी क्या कहते जा रहे हो केतन! मुझे खुद समझ नहीं आ रहा।"

"आपकी मर्जी...। मैं बिल्कुल ठीक कह रहा हूँ।

उसने ये बात बिल्कुल सपाट चेहरे के साथ बोली थी कुछ बेटे की रुखाई और कुछ महानगरीय कुत्सित भावना को सोच-सोचकर मेरी आँखें फ़ैलती चली जा रही थीं। मुँह का छाला जरूरत से ज्यादा टीसने लगा था। बचपन की वो बात, जब मैं अपना काम ठीक से नहीं करती थी तो माँ कह उठती थी। 

"सबसे भले भीख के रोट, कभी न आये तन पर चोट!

दिमाग़ में ठक-ठक बज उठी थी। उस बिना पर देखा जाए तो यहाँ कुछ भी ऐसा नहीं । भीख माँग कर भी मानवीय तन क्या! इनकी तो आत्मा तक घायल हुई जा रही है । 

"एक क्षण को मुझे लगा कि जैसे बिकराल घंटनाद कर चारों ओर एक साथ लोग करुण कथाएँ बाँचने लगे थे। छाती पर भारी बोझ सा आ गिरा था। कैसा है ये महानगर? यहाँ लड़कियाँ तो सुरक्षित नहीं, बूढ़े लोग नौकरों के हाथों लुट अपनी जान दे बैठते हैंऔर बचे भिखारी तो वे भी भीख जैसा कर्म औरों के लिए करते हैं? इससे तो अच्छा होता ये लोग ज्यादा के फेर में न पड़कर अपने छोटे गाँव और कस्बों में रहते। कम से कम वहाँ रहकर जो जितना रूखा-सूखा कमाता, पूरे स्वामी भाव से उसको अपनी पूँजी समझकर बरतता तो।" 

ऐसा लग रहा था कि विचारों के एक विशाल बवंडर ने मेरे मन की भीतरी परतों को बुरी तरह छील डाला था। मन की उथल-पुथल में लंबे रास्ते भी बौने लगने लगते हैं सो हम भी कब दवा की दुकान के सामने वाले फुटपाथ पर जा पहुँचे, पता ही न चला। अब तक हमारे बीच हँसी-खुशी की सारी खबरें फुर्र हो चुकी थीं। जरूरत भर हम एक दूसरे से बोल रहे थे।

बेटे ने कहा, "अम्मा! आप गाड़ी में बैठोगी या...?"

बिना बोले ही मैंने गाड़ी में बैठे रहने का इशारा कर दिया उसने गाड़ी के शीशे डाउन किए औरप्रिसक्रिप्शनलेकर चला गया।

बढ़े हुए तापमान में पार्किंग में लगी गाड़ी में बैठना भी मेरे लिए एक कठिन काम बन गया था। रिक्शा पर बैठो तो चाहे वह चले या न चले, घुटन न होती थी।

बीते दिनों की यादों ने मन की भूमि को किंछ दिया। कुछ शान्ति के गहरे गड़े बीज अचानक अँखुआ पड़े दिमाग़ बोरियत ओढ़ता उसके पहले मेरी नज़र टाइमपास जैसा कुछ ढूँढने लगी। देखा सड़क की दाहिनी ओर एक कतार में मेगामार्ट,सफ़ल और बेकरी शॉप रोशनी से सराबोर अपने आँचल में हजारों ख्वाहिशें पूरी करने की दमखम समेटे मचल रही थीं। 'रेड लाइट' से ये वाला दृश्य बिल्कुल अलग लग रहा था। यहाँ बड़ी-बड़ी रोशनी की दमकती हुई झालरों में गाड़ियों से उतरने वाले खिले-खिले चेहरे न मेरी तरह छाले के दर्द में थे और न ही उस लालबत्ती वाली लड़की की तरह...। 

"वे तो धनतेरस को सच में धनतेरस का सुख देने आए थे। उसको चमकदार बनाने आये थे। 'तेरस' धन की हो तो धनवान ही न उसका सुख भोगेगा। गरीब के पास न धन होता है और न ही तेरस वाला मन।" 

मैंने सोचा ही था कि "सुगंधा! अब तो कोई नया मुहावरा तलाशो यार! क्या फँसी रहती हो कोल्हू के बैल की तरह अपनी बनाई परिधियों में।

मेरे आत्मबोध ने मुझ पर ही तंज कसा

कुछ मिनट चुप रहकर मैंने अपनी गर्दन बाईं ओर घुमाकर देखा। इस ओर फुटपाथ पर पेड़ों की घनी डालियों के गुम्फ़न के कारण सड़क पर अँधेरा पसरा हुआ था। लग रहा था मानो किसी आलीशान कोठी के पास फूँस की जर्जर झोपड़ी सिर झुकाये, ढेर उजाले के बीच रहकर अपने हिस्से का अँधेरा लीप रही थी। 

"इसी विपर्यता को सम पर लाने के लिए हम दिन-रात दौड़ते रहते हैं। फ़िर भी स्थायी उजाले नहीं जुटा पाते।"

मैंने अकेलेपन का उपयोग करते हुए ज़ोर से बोला और ऊपर की ओर देखने लगी। पेड़ निर्विकार भाव में लीन थे। ऐसे तटस्थ मन मनुष्य को क्यों नहीं मिलते?

खैर, फुटपाथ पर देखा तो चार रेहड़ियाँ खड़ी थीं। उनमें से तीन पर सन्नाटे के बीच एक-एक मोमबत्ती टिमटिमा रही थी जो अपनी अंतिम अवस्था को प्राप्त होने वाली थीं। लगता था इस ओर फुटपाथ की नीरसता ने उनके मालिकों को टिकने न दिया था उन  तीनों रेहड़ियों को एक साँकल से बांधा गया था। एकता के इस रूप का मतलब रेहड़ियों का सुरक्षित बचे रहना था। छोटे दीये-सी खुशी मेरे होठों के भीतरी हिस्से पर तिर आई। 

लगभग दो मिनट बाद मैंने अपने बालों को सम्हालते हुए कार के शीशे से उसी फुटपाथ के दूसरे कोने पर झाँका एक जोड़ा मार्ट से आने वाली धुँधली रोशनी में सुनहरी पन्नी से एक रेहड़ी को सजाने की जुगत में जुटा दिखाई पड़ा। 

"बिकने के लिए चमकना कितना जरूरी है!"

मैंने उन्हें और उनकी जुगत को ध्यान से देखते हुए सोचा देखते-देखते रेहड़ी सजकर तैयार हो गयी। दोनों ने जल्दी से एक लंबे सरिये पर जो ऊपर से झुका था...दूधिया रोशनी छोड़ने वाली नन्हीं सी एल.ई.डी. जला दी। कचरे की बाल्टी में बची-खुची कतरन डालकर किनारे रख दी। कागज की प्लेटें,पानी का लाल कैम्पर, काठ की चम्मचें सही जगह पर रख दी गयी थीं। दो प्लास्टिक की चेयर रेहड़ी से हट कर डाल दी गईं फ़िर थोड़ी दूरी पर रखी बाल्टी से स्त्री ने पानी लेकर अपने हाथ मुँह धोये और छोटे से शीशे में खुद को देखा हथेलियों में बचा पाउडर अपनी धोती से पोंछ रेहड़ी के पास आ भट्ठी के पाँव छू इधर-उधर देखने लगी। ये देखकर उसका आदमी मंद-मंद मूंछों में मुस्कुरा पड़ा। आदमी के सिर पर जमी धूल की परत रोशनी में दूर से दिख रही थी। स्त्री ने उसका सर अपनी ओर झुकाया और साड़ी के पल्ले से साफ दिया 

आदमी ने मद्धिम जलती अँगीठी पर बड़ा-सा चीकट तवा चढ़ा दिया और स्त्री लंबी-सी कलछुल से तवे पर टुनटुन करने लगी। जैसे कोई माँ अपने बच्चे का मन बहला रही हो।लोगों का रेला निकलता तो! लेकिन कोई चकमक करते निकल जाता तो कोई गाड़ी पार्क कर दूसरी ओर रेहड़ी वाली सारे हथकंडे आने-जाने वालों पर अपना रही थी लेकिन कोई उधर फटकने का नाम नहीं ले रहा था। इधर रात बीत रही थी उधर उनके उत्साह का गुब्बारा धीरे-धीरे पिचकने लगा था। 

सड़क पर सामने दुकानों की चहल-पहल देखकर वह अपने आदमी के कंधे के पास मुँह ले जाकर बुदबुदाई लेकिन वह कुछ कतरने में व्यस्त थासो कुछ नहीं बोला। वह फिर रेहड़ी पर तुनक कर खड़ी हो गयी। अब उसकी आँखों से बोझिल ख़ालीपन झरने लगा था

दोनों की उदासी ओवरफ्लो हो हवा के साथ बहती हुई मेरे पास भी आने लगी थी। उनकी लाचारी देखते-देखते मुझे अपने बचपन के गरीब दिन अनायास याद आने लगे। मैं उनकी सूखी आँखों की गमगीन बारिश में भीगती चली जा रही थी। 

"गरीबी के बुखार की दवा आख़िर कब तक बन पाएगी?" 

बुदबुदाते हुए बरबस ही मेरा हाथ अपने माथे पर चला गया। देखा मन के साथ-साथ मेरा माथा भी गरम हो चला था मैंने पीछे सीट का सहारा लेते हुए अपनी आँखें मीचीं ही थीं कि एकाएक अतीत के पन्ने पलटते चले गये। 

"अरी मेरी माँ! कहाँ है तू! जिंदगी कभी-कभी बड़ी बोझिल लगने लगती है? मुझसे नहीं पढ़ा जाता और" मैं अपने तापित नन्हें जीवन के आगोश में विचलित हो उठी

"हाँ बोल न! क्या हुआ तुझे ?"

माँ! तू सुन रही थी?”

हाँ भई बोल न!” 

“माँ एक बात बोलूँ तू बुरा तो नहीं मानेगी?"

"तू बोल और कुछ मत सोच।"

"माँ तुझे गरीबी का अंकगणित लगाते-लगाते और मुझे देखते-देखते, इस बरस मैं आठवीं की परीक्षा दूँगी। लेकिन तेरी गृहस्थी के सवाल हैं कि हल होने का नाम नहीं लेते। हज़ार जुगतों के बाद भी गरीबी का एक हाँसिल तेरे पास बच ही जाता है। इसलिए मैं अब कुछ नहीं जानती इस बार दीवाली पर मुझे भी नई ड्रेस चाहिए ही चाहिए माँ।

माँ क्या जाने कि मैंने अपनी सहेली की नई फ्रॉक की हूक एक साँस में उसके ऊपर उड़ेल पाँव पटकने लगी थी।

"ये क्या कह दिया रे तूने? तू तो मेरा सबसे समझदार बच्चा है।” 

आज नहीं हूँ ….।

“ना सुगंध, ऐसे नहीं कहते। दिदिया के पुराने कुर्ते से मैंने एक बहुत अच्छी कुर्ती तेरे लिए आज ही सिली है। उसके आगे तेरी सारी सहेलियों की नई-नई फ्रॉकें फेल हो जाएंगी।

"अरे माँ! फ्रॉक वाली बात कैसे जान गयी।" अपने आश्चर्य को परे धकेल कर मैं फिर बोल पड़ी  

"झूठ,एकदम झूठ। मैं कुछ नहीं जानती। अगर दिदिया के लिए पीली साड़ी आई है तो मुझे भी चाहिए। जब देखो तब मेरे लिए कभी भाई के कपड़ों से तो कभी दिदिया की उतरन से गूँथन, गूँथती रहती हो।"

"उससे होड़-हिर्स मत कर छोकरी; कुछ दिन की मेहमान बची है कुसुम। अच्छे से घर-वर मिल जाये,बस। अभी से न जोड़ें उसकी पहरावन?" 

माँ ने अपने को जब्त करते हुए कहा

"पट्टी पढ़ाने में एक नम्बर है तू माँ। ठीक है ठीक है। मुझे खाना दे।"

"तुझे अकेले क्या...? सब को बुला न।"

आ जाओ सब लोगभोजन तैयार है,माता ने बुलाया है।" सभी एक साथ जुट आयेदिदिया भी।

"माँ आज हम शक़्कर से रोटी खाएँगे" भाई ने कहा।

"भाई खायेगा तो हम भी...।" मैंने भी कह दिया।

"क्यों? गुड़ और सब्जी काटती है, तुम सबको? जो शक़्कर पर चढ़े रहते हो।

"शक़्कर की वकालत करने पर माँ को इसबार सरकार इनाम देगी, दिदिया।

मैंने माँ पर तंज कसा तो सभी फिक्क से हँस पड़े, दिदिया नहीं...। भाई ने अपनी बात फिर से कह दी,"दे नss…

झुँझलाकर माँ बोली,"सुगंध ले आओ न अमरित!" फिर क्या शक़्कर की कत्थई बोतल दौड़ती हुई हमारे बीच आ गयी और भाई के साथ-साथ सब में चुटकी-चुटकी बाँटी गयी।

"तू भी खाकर देख न दिदिया, बहुत मीठी है शक्कर और माँ तू भी... बहुत अच्छी लगती है शक़्कर से रोटी।" मैंने रोटी का टुकड़ा चुभलाते हुए कहा।

"हाँ हाँ पता है। जाकर रख आ।

"तुझे मेरी कसम माँ एक चुटकी खाकर देख न!"

“मँहगाई देखी है तुम सबने?" माँ होंठों में बुदबुदाई। फिर बोली,"नहीं रे! तेरी दिदिया को ब्याहना है अबकी साल शक्कर खाएँगे तो कैसे काम चलेगा।

अपने ब्याह की बात सुन दिदिया वहाँ से भाग गई लेकिन मैंने माँ से पूछा।

"माँ,तू इतना अपने मन को क्यों मारती रहती है?”

मरने के लिए! जा भाग जा यहाँ से।” माँ ने झुझलाकर कहा

माँ के आगे मेरी एक न चली। मैं बोतल रखने चली गयी लेकिन जब लौटी तो देखा। गीली उँगली के सहारे ज़मीन पर छरके पड़े शक़्कर के दानों को उठा कर माँ अपने मुँह में डाल रही थी। देखकर मुझे बहुत बुरा लगा। मैं चीख पड़ी

"रुक माँss मैं लाती हूँ शक्करss।" कहकर मैं उल्टे पाँव खिड़की की ओर दौड़ पड़ी।

तभी पीं पीं पीं करती हुई बगल से निकलने वाली गाड़ी ने तेज़ हॉर्न बजाया तो एक कौंध के साथ लगा कि सोते से जाग गई मैं। पलकें भारी हो चुकी थीं लेकिन निगाह उठी तो सीधे रेहड़ी पर जा गिरी।

वहाँ अब भी खामोशी का आलम था किन्तु दोनों के हाव-भाव में अब शिथिलता आ गई थी। दूधिया रोशनी मटमैली हो चली थी। उनके लटके चिंताग्रस्त निचुड़े पीले चेहरे देखकर सोचा आस-पास निकलने वालों से चिल्ला-चिल्लाकर कहूँ,”मेरे मुँह में छाले हैंतुम लोग तो कुछ ख़रीदकर खा लो। इनका भी त्यौहार रोशन हो जाएगा” लेकिन मन का सोचा और मूक चीख भला कब किसने सुनी है

खैर,करूँ तो क्या करूँ? भीख देकर उनके स्वाभिमान को मैं गिराना नहीं चाहती थी न ही दान देकर उनकी कार्मिक उमंग को क्षति पहुंचाना चाहती थी। किसी के मन की उथल-पुथल यदि किसी के द्वारा देख सुन ली जाती तो दुनिया का रंग ही कुछ और होता। सोचते हुए मैंने अपना पर्स थथोला। मैंने गुड़ी-मुड़ी पड़े सारे रुपयों को मुट्ठी में लिया और गाड़ी का दरवाज़ा खोलकर सीधे उनकी ओर चलती चली गयी। पास में जाकर देखा तो दृश्य और भी झकझोरने वाला प्रतीत हो रहा था।खैर!

"क्या बना रहे हो भाई आप लोग?"

चिकन टिक्का। खाइए न! बहुत स्वाद है। एक बार खाओगी तो बार-बार आओगी मेम साब! मेरा दावा है"

उसने बड़े विज्ञापनी लहज़े में ललक कर मुझ से कहा था। 

"मेम साब! बनाएँ क्या एक प्लेट...?"

"अरे हाँ हाँ.." उससे बोलकर मैं सोच में पड़ गयी।

मैं तो शुद्ध शाकाहारी हूँ। अब क्या करूँ?" 

अपनी ही असहजता से छाती के अंदरूनी भाग में मुझे जलन का एहसास हुआ।

"ब...न...दो।" मुँह से अस्फुट से आधे-अधूरे शब्द ही निकल सके थे कि अचानक एक आवारा कुत्ता मेरी ओर आते दिखा तो धुँधले पड़ते जा रहे मेरे विचारों में एक ताज़ा विचार कौंध पड़ा। फिर ये भी लगा कि मनुष्यों के खाने वाली चीज़ को मैं भला कुत्ते को... लेकिन दूसरे पलजो हो सो होवाले विचार ने कुछ जादू-सा कर दिया और मेरे मुख से निकल पड़ा।

"अरे! मैं चिकन नहीं खाती तो क्या हुआ? ये तो जरूर खाता होगा। आप दो प्लेट बनाइए"

"क्या मैडम सा…?"

"कुछ नहीं, आप बिना मसाले की दो प्लेट चिकन टिक्का बना दो मेरे लिए"

मेरा ऑर्डर सुनने के बाद भी वह मुझे हैरानी से देख रहा था लेकिन उसकी जनानी ने अपने चेहरे पर आये पसीने को ब्लाउज की आस्तीन से चटपट पोंछा और टिक्का बनाने में जुट गयी। मेरे बार-बार पुचकारने से कुत्ता भी उधर ही रुक कर रेहड़ी सूँघने में व्यस्त बना रहा। मुश्किल से पाँच से दस मिनट लगे होंगे, उसने कहा। 

"लीजिये बन गया मेम साब।

उसका आदमी दोनों हाथों में कागज़ की प्लेटें लिए मेरे सामने खड़ा था।

"कितना दाम हुआ?"

pick credit: Vibhu Bajpai

"दो सौ रुपये।"

"बिना मसाले के भी दो सौ रुपये?"

"आप कहें तो डाल देता हूँ...।"

"न न रहने दो।

मैंने रुपये गिनकर उसको पकड़ा दिए। कुत्ते को फिर से पुचकारा तो वह दुम हिलाकर मेरे पास की जमीन को सूंघने लगा

"आप बुरा न मानें तो ये दोनों प्लेटें मैंने अपने लिए नहीं, इस कुत्ते के लिए ही बनवाई हैं। क्या इसको परोस दोगे?" मैंने संकोच में झिझकते हुए धीरे से कहा।

"हाँ हाँ क्यों नहीं। वैसे भी मुझे तो बेचने से मतलब मैम साब! खरीदने वाला खुद खाए या और कोई।

कहते हुए उसने दोनों प्लेट कुत्ते के सामने परोस दीं और हाथ पैंट से पोंछकर अपनी बीवी की ओर देखने लगा। उन दोनों ने मुझे बचाते हुए आँखों ही आँखों में कुछ कहा जिसे मैं समझ नहीं सकी कुत्ते ने अपने प्राप्य को प्राप्त कर प्रेम से उसे सूंघा, इधर-उधर देखकर पांव फैलाये और मज़े से 'डिश' का स्वाद लेने लगा। 

दो मिनट रुककर मैंने वहाँ देखा तो लगा समय के छोटे-से टुकड़े पर उजला संतोष छलक आया था। मैं गाड़ी की ओर मुड़ चली थी़। थोड़ी सी आगे निकली तो कान में आवाज़ पड़ी। 

"मुझे भी बना दो एक प्लेट।

किसी ने रेहड़ी वाली से शायद कहा था। थोड़ा और आगे चली तब तक बेटा भी दवाई लिए आता दिखा। दूर से उसे देखकर अच्छा लगा उसके लिए जो नाराजगी थी वह खत्म हो चुकी थी। लेकिन बिना उसके लिए रुके मैं सीधे आकर गाड़ी में बैठ गई। 

बेटे का चेहरा देखकर लग रहा था कि वह कुछ पूछना चाहता था़ मुझसे लेकिन न जाने क्यों चुप साध कर उसने गाड़ी स्टार्ट कर दी। अब हम दोनों सफ़र में थे किन्तु अपने-अपने मौन सफर में। हाँलाकि चारों ओर का त्योहारी मौसम शोर में डूबता जा रहा था लेकिन भीतर के सन्नाटे बाहरी रौनक से कब मुखरित हुए हैं? सो मेरे भीतर जो कुछ टूटकर बिखर रहा था, ज़ारी रहा कुछ नया रचने के लिए मन के पास उत्साह नहीं बचा था। गाड़ी थोड़ी दूर चलकर दूसरे रास्ते पर मुड़ चली थी। 

मन में आया कि बेटे से पूछें कि मेरी दवाई कितने की मिली है? उसने अपनी गैस की गोली ली या नहीं…लेकिन मेरे हलक से एक शब्द तक न फूट सका। कुछ अनकही-सी शान्ति मेरे गिर्द घटित होने लगी थी शायद उसी की बिना पर बिना दवाई के ही मेरे छालों के दर्द में कुछ आराम-सा हो चला थाबेटे की ओर से कोई शाब्दिक हरकत नहीं हो रही थीउसके मन का तापमान शायद ज्यों का त्यों बना हुआ था। बात करने का एक भी सिरा मेरी पकड़ में नहीं आ रहा था। बहुत सोचने के बाद भी जब मुझे कुछ समझ में नहीं आया तो गाड़ी में लगे एफ.एम.रेडियो के कान ऐंठ दिए मैंने। अचानक गाना बज उठा,"इत्ती-सी हँसी...,इत्ती-सी खुशी...इत्ता-सा टुकड़ा चाँद का..! मैंने कनखियों से देखा तो केतन के चेहरे पर हँसी तो बिल्कुल नहीं लेकिन एक मासूम-सी सहजता जरूर पसरने लगी थी।

***

लेखिका:कल्पना मनोरमा 






भारतीय रेल पत्रिका  के२०२१  मई अंक में प्रकाशित 




Comments

  1. बहुत सुंदर मनोरमा जी..😊

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  2. अपने अनुभव से ही दूसरे की पीड़ा महसूस होती है। बहुत अच्छी कहानी। बधाई।

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  3. अत्यंत सुन्दर रचना, बहुत-बहुत बधाई हो इतनी सहजता से वास्तविक कहानी लिखने के लिए।

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