चित्र : गूगल से साभार एक नई शुरुआत वे खुशनुमा मार्च के दिन थे। गुनगुनी बताश में तितलियाँ अठखेलियाँ कर रही थीं। सुनहरे दिनों की आमद , ललिता के घर काम का सैलाब ले आई थी। ऊनी कपड़ों की पोटलियों में नैपथलीन की गोलियाँ डाल कर संदूक में सुरक्षित कर दी गई थीं। गर्मी के कपड़े दुरुस्त किए जा रहे थे। पुरानी साड़ियों की धज्जियों से पांवदान बनाये जा रहे थे। नयी साड़ियों में फ़ोल टाँकी जा रही थी और उनके मैचिंग ब्लाउज सिले जा रहे थे। बची कतरन से हथपंखों में फुंदने लगाए जा रहे थे। बिजली चली जाने पर इन्हीं पंखों का उपयोग ललिता चाव से किया करती थी। इस तरह समझा जा सकता था कि वह भले नौकरी-पेशा स्त्री नहीं थी पर कामों की उसके पास कोई कमी नहीं थी। पति के ऑफिस की पार्टियों में जाना , सैर करना , कहीं घूमने-फिरने के लिए जाना और किसी के पास बैठकर खाली समय में बिताने को वह पाप समझती थी। वहीं उसका पति उसके इस तरह के जीवनयापन पर उसे अन्तर्मुखी , घुन्नू , घर-घुस्सू , अकुशल एवं अव्यवहारिक स्त्री कहता थकता ही नहीं था। ललिता को इस बात का कोई मलाल भी नहीं था। " किसी को कुछ भी मान लेने में दोष उसी दृष्टि का
ReplyDeleteनमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 11 जनवरी 2021 को 'सर्दियों की धूप का आलम; (चर्चा अंक-3943) पर भी होगी।--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteसुन्दर सृजन। विश्व हिन्दी दिवस पर शुभकामनाएं।
ReplyDeleteआप सभी हिंदी साहित्य से जुड़े हुए सुधी जनों का हार्दिक आभार !
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता।
ReplyDeleteअति सुन्दर भावाभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सृजन।
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