और शाम को क्षितिज पर उड़ते पखेरू उसे अपने साथ थोड़ा-सा उड़ा ले जाते हैं! कल्पना मनोरमा की शाब्दिक सड़क पर लोकचेतना की रचनाओं के सुर-ताल तब बनने आरंभ हुए, जब उन्होंने संसार को चालाकी और साफगोई से अपनी बात कहते, पर करते कुछ और देखा और सुना। अपनी कही बात से मुकर जाना कल्पना को मरने के बराबर लगता है, फिर संसार द्वारा की गई मौकापरस्ती वह कैसे सहन कर सकती थीं! इसीलिए मौखिक रूप से नहीं, तो लेखन के माध्यम से उन्होंने अपना विरोध दर्ज कराना शुरू किया। कल्पना जब से लेखन के क्षेत्र में आई हैं, उन्होंने स्वयं को किसी लेखकीय दौड़ का हिस्सा न मानकर निरंतर चलने के संकल्प के साथ मंथर गति से साहित्यिक यात्रा तय करने में सहजता महसूस की है। उनका मानना है कि हड़बड़िया लेखन न तो अधिक दूर तक जा सकता है, न ही लेखक का मन हल्का कर सकता है — और जब लेखक का मन ही हल्का न हो, तो पाठक को सहूलियत, आनंद और प्रोत्साहन कैसे मिलेगा! कल्पना मनोरमा के अनुसार लेखन एक अत्यंत ज़िम्मेदारी का विषय है, जिसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। यदि रचना समाज से उत्पन्न होती है, तो समाज के प्रति उसकी जवाबदेही भी बनत...
ReplyDeleteनमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 11 जनवरी 2021 को 'सर्दियों की धूप का आलम; (चर्चा अंक-3943) पर भी होगी।--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteसुन्दर सृजन। विश्व हिन्दी दिवस पर शुभकामनाएं।
ReplyDeleteआप सभी हिंदी साहित्य से जुड़े हुए सुधी जनों का हार्दिक आभार !
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता।
ReplyDeleteअति सुन्दर भावाभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सृजन।
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