प्रिय जिज्जी! बहुत दिन हुए, आपका हाल-चाल नहीं मिला। मन में बस एक उम्मीद बनाए रखती हूँ कि सब ठीक-ठाक होगा। मगर जब से सुना है—तेज़ बुखार में आपकी सुनने की शक्ति जाती रही। मन कच्चा-कच्चा बना रहता है। कान को लेकर बचपन से दुःखी रहीं आप। न अम्मा ने झापड़ मारा होता , न ही बधिरता की शिकार हुई होतीं…। आपके दाहिने कान से हमेशा पानी बहता रहा। जब आप माँ बनी , शरीर कमज़ोर हुआ। फिर तो पस बहने लगा। और अब दोनों कान ख़राब। कितना अच्छा होता , आप सुन सकती। हम चारों बहनें फोन पर मिलजुल बतिया लिया करतीं। पर अपने तो भाग्य ही हेठे हैं…। मेरा पत्र जब आप तक पहुँचेगा तो चौंकेगीं जरूर आप। क्योंकि चिट्ठी लिखने में आलसी लड़की चिट्ठी लिख रही है। लिख इसलिए रही हूँ ताकि आप बार-बार पढ़कर विचार कर सकें। अब इस उम्र तक आते हुए लगता है कि बार-बार किसी बात को क्यों आप पूछती हो। सच कहें—बाल की खाल उधेड़ने वाला रोग अब मुझे भी लग चुका है। जयंती और कुन्नी के साथ अक्सर बहस हो जाती है। जब बात समझ ही नहीं आएगी तो पूछना ही पड़ेग...
ReplyDeleteनमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 11 जनवरी 2021 को 'सर्दियों की धूप का आलम; (चर्चा अंक-3943) पर भी होगी।--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteसुन्दर सृजन। विश्व हिन्दी दिवस पर शुभकामनाएं।
ReplyDeleteआप सभी हिंदी साहित्य से जुड़े हुए सुधी जनों का हार्दिक आभार !
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता।
ReplyDeleteअति सुन्दर भावाभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सृजन।
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