एक नई शुरुआत
चित्र : गूगल से साभार एक नई शुरुआत वे खुशनुमा मार्च के दिन थे। गुनगुनी बताश में तितलियाँ अठखेलियाँ कर रही थीं। सुनहरे दिनों की आमद , ललिता के घर काम का सैलाब ले आई थी। ऊनी कपड़ों की पोटलियों में नैपथलीन की गोलियाँ डाल कर संदूक में सुरक्षित कर दी गई थीं। गर्मी के कपड़े दुरुस्त किए जा रहे थे। पुरानी साड़ियों की धज्जियों से पांवदान बनाये जा रहे थे। नयी साड़ियों में फ़ोल टाँकी जा रही थी और उनके मैचिंग ब्लाउज सिले जा रहे थे। बची कतरन से हथपंखों में फुंदने लगाए जा रहे थे। बिजली चली जाने पर इन्हीं पंखों का उपयोग ललिता चाव से किया करती थी। इस तरह समझा जा सकता था कि वह भले नौकरी-पेशा स्त्री नहीं थी पर कामों की उसके पास कोई कमी नहीं थी। पति के ऑफिस की पार्टियों में जाना , सैर करना , कहीं घूमने-फिरने के लिए जाना और किसी के पास बैठकर खाली समय में बिताने को वह पाप समझती थी। वहीं उसका पति उसके इस तरह के जीवनयापन पर उसे अन्तर्मुखी , घुन्नू , घर-घुस्सू , अकुशल एवं अव्यवहारिक स्त्री कहता थकता ही नहीं था। ललिता को इस बात का कोई मलाल भी नहीं था। " किसी को कुछ भी मान लेने में दोष उसी दृष्टि का
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (१५-०८-२०२०) को 'लहर-लहर लहराता झण्डा' (चर्चा अंक-३७९७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
बहुत ही सुंदर रचना
ReplyDeleteकिन्तु मर्यादा का भी होता है
ReplyDeleteअपना महत्व.
वरना टूटते ही मर्यादा
ReplyDeleteनदियों की।
खो देते हैं तट
अस्तित्व अपना।
सैलाब में
उसकी निर्लज्जता के!
......... आभार और बधाई आपकी सुंदर रचना के।
वाह!!!
ReplyDeleteशानदार सृजन
नदी ने कहा
तुम सब सहयोगी हो
मेरी यात्रा के
महत्पूर्ण अंक और अंग हो
किन्तु लक्ष्य नहीं
बहुत सुंदर गहन सार्थक भाव लिए सृजन।
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