मैं पेड़ होना चाहती हूँ
मन यूँ करता है अब
कि कुछ दिन ही सही
न भूख लगे,
न प्यास की उठे कोई पुकार
देह अपना बोझ ख़ुद ही
उतार कर फेंक दे
और मैं सिर्फ़ स्वांस भर रह जाऊँ
न बच्चों को चुगाने की चिंता हो,
न समय के दाँत काटने का डर
यह इनकार नहीं है जीवन से,
बस पल भर के लिए
शोर से बाहर आना चाहती हूं
मैं उस पेड़ पर रहना चाहती हूँ
जहां जड़ें उसकी हों,
और भरोसा मेरा
जहाँ हर प्रश्न का उत्तर
फल की तरह नहीं,
छाया की तरह उतरे मेरे भीतर
मैं किताब में खोना चाहती हूँ
अक्षरों के बीच
अपना नाम भूलकर
पन्ने पलटते हुए
सबसे बुरी कथा की किरदार बन
पाठकों की आँखों में
झांकना चाहती हूँ
चिड़ियों से बातें करना चाहती हूँ—
बिना अर्थ का बोझ ढोए
जो जानती हैं चिड़ियां
सीखना चाहती हूँ
और उन्हें बताना चाहती हूँ कि
उड़ान कोई उपलब्धि नहीं,
एक सहज आदत है
हवा में उड़ना चाहती हूँ
बिना दिशा,बिना मंज़िल
जहाँ से लौटना अनिवार्य न हो
और ठहरना अपराध न बने
किसी अनजाने जंगल में
खो जाना चाहती हूँ
मैं ख़ुद को थोड़ी देर
जीने देना चाहती हूँ
मैं पेड़ होना चाहती हूँ।
कल्पना मनोरमा
व्यष्टि का समष्टि में घुल जाना लक्ष्य नहीं, मानवता की विवेकशील समृद्धि की ओर होती यात्रा का पड़ाव है। लक्ष्य है प्रकृति से एकाकार होना। इसके अवयवों से अन्योन्याश्रयता। प्रस्तुत कविता का मन:भाव एक-एक कर ऐसे ही पहलुओं को खोलता जाता है। प्रकृति से एकाकार हो जाने की परम नकधुन्नी ही तो किसी मनस को 'गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि' या फिर 'चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम्' के लिए आलोड़ित करती है। जहाँ प्रकृति और परम दो इकाइयाँ नहीं रह जाते।
ReplyDeleteलेकिन आपकी इस अभिलाषा में चामत्कारिक विविधता है। जो मानव मन को समुच्चय में बघारता है, 'अक्षरों के बीच / अपना नाम भूल कर / बुरी कथा की किरदार बन... ' यह आयाम तो शुभाशुभ के संतुलन की व्यावहारिक चर्चा है जिसे अपने वांङ्गमयों ने बार-बार उद्बोधित किया है। इस समझ के पग जाने के कारण ही यह कहना सहज-सरल हो पाता है, '.. उड़ान कोई उपलब्धि नहीं, / एक सहज आदत है / यात्रा पर रहने की'
प्रस्तुत कविता वस्तुत: एक उपलब्धि है, आ० कल्पना मनोरमा जी। हृदयतल से बधाई स्वीकार करें। अलबत्ता एक बात अवश्य कहना चाहूँगा। 'मैं पेड़ होना चाहती हूँ' को अलग से न लिखें। यह पूरी कविता की उपसंहार-स्वीकृति नहीं है। बल्कि, 'किसी अनजाने जंगल में' वाली अभिव्यक्ति का ही भाग है।
बहरहाल, पुन:बधाई। बहुत-बहुत बधाई
सौरभ पाण्डेय
पेड़ होकर ही पेड़ को जाना जा सकता है, जाना जा सकता है, धूप, हवा और धरती व आकाश को !! सुंदर कविता अपने विस्तार को पाने की ललक जगाती हुई
ReplyDeleteमैं भी बस पेड़ ही होना चाहती हूॅं।
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति।
सादर।
----------
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १९ दिसंबर २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
मैं पेड़ होना चाहती हूँ। - तथास्तु
ReplyDeleteसुन्दर भाव
बहुत सुंदर
ReplyDeleteमैं उस पेड़ पर रहना चाहती हूँ
ReplyDeleteजहां जड़ें उसकी हों,
और भरोसा मेरा
जहाँ हर प्रश्न का उत्तर
फल की तरह नहीं,
छाया की तरह उतरे मेरे भीतर - कितनी सुंदर पंक्तियाँ हैं ये!! Loved the poem!
सुंदर
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर सारगर्भित और सार्थक रचना
ReplyDelete