धरती की परंपरा





धरती की परम्परा में
हर वस्तु एक बीज है
ऋतु आते ही
फूट पड़ता है जीवन,
अपनी जाति और धर्म लिए

धरती तुच्छ को भी 
व्यर्थ नहीं समझती
सड़ी लकड़ी पर भी
उग आता है फूल
कोई उसे मशरूम कहता है,
कोई कुकुरमुत्ता

धरती कहती है
जो मुझे थामे रहेगा,
वही उगेगा,
वही बढ़ेगा

मृत्यु को भी यहाँ
 जन्म लेने का अवसर मिलता है
शून्य भी भर जाता है
हरियाली से।

कल्पना मनोरमा


Comments

  1. बेहद सुंदर, मौन प्रकृति धरती का शृंगार है।
    सादर।
    --------
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार २ सितंबर २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. मृत्यु को भी अवसर, ओह, अद्वितीय

    ReplyDelete
  3. बहुत सुंदर कल्पना जो भीतर तक समाई हुई है , प्रकृति तुच्छ को भी व्यर्थ नहीं समझती ।

    ReplyDelete

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