कोरा मन: लोरी की गूँज

                                    

बुनियादी चिन्तन : बालिका से वामा


आज के रविवारीय में 

यह लेख 'लोरी' के बहाने स्त्री-चेतना के निर्माण और उसके सांस्कृतिक संस्कारों की पड़ताल करता है। इसमें यह दर्शाया गया है कि माँ की लोरी केवल एक भावनात्मक ध्वनि नहीं, बल्कि बालिका के 'कोरे मन' पर पड़ने वाली पहली वैचारिक छाया होती है। लेख यह प्रश्न उठाता है कि क्या पारंपरिक लोरियाँ बालिकाओं को सीमित और आज्ञाकारी स्त्री बनने के लिए प्रशिक्षित कर रही हैं। बाल मनोविज्ञान, स्त्रीवाद और भारतीय दर्शन को आधार बनाकर यह विचार रखा गया है कि लोरी भी conditioning का माध्यम बन सकती है। लेख का आग्रह है कि आज की माँ अपनी लोरी में स्नेह के साथ-साथ बौद्धिक और नैतिक चेतना भी पिरोए। ऐसी लोरी जो बच्ची को सिर्फ सुलाए नहीं, बल्कि भीतर से जगाए और उसे साहसी, जागरूक और विवेकशील बनाए। लेख का निष्कर्ष यह है कि ‘नाद’ यदि सृजन है, तो लोरी भी भविष्य गढ़ने का माध्यम बन सकती है।


कोरा मन: लोरी की गूँज


माँ की आवाज़ में गूंजती लोरी की कोमल ध्वनियाँ, बालिका के ‘कोरे मन’ पर पहली छाप छोड़ती हैं। यहीं से उसके व्यक्तित्व की बुनियाद पड़ने लगती है। अबोध बालिका के लिए काव्यात्मक शब्दों की छुअन वह आनंद है जिसे वह कह नहीं सकती, मगर महसूस करती है। शिशु-मस्तिष्क में शब्द-चित्रों का निर्माण, विचारों के बीज यहीं से पड़ने लगते हैं।

लोरी केवल नींद नहीं, स्मृति और विचारों की भूमिका भी निभाती है। उसे सुनकर बालिका पहली बार फिर बार-बार संसार से संवाद करना चाहती है, वह दूसरों की दृष्टि में अपनी उपस्थिति पहचानने लगती है।

माँ और बच्चे के बीच लोरी कोई औपचारिक सांस्कृतिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि आत्मीयता से बुना एक ध्वनि-संसार है, ऐसा स्वर, जो शिशु को रिश्तों की छवियों से जोड़ता है। लोरी की भूमिका यहीं से निर्णायक हो जाती है।

बाल मनोवैज्ञानिक ज्याँ पियाजे के अनुसार, जीवन के आरंभिक वर्षों में बच्चा भाषा से पहले ध्वनि और भावों के ज़रिए अपने परिवेश को समझना शुरू करता है। माँ, दादी, नानी के बोल चाहे समझ में न आएँ लेकिन एक ऐसा सेतु बनाते हैं, जिनपर चलकर ममता की भाषा बालिका के मन में शब्द-बीज बो देती है।

एरिक एरिकसन के अनुसार, बाल्यावस्था में ‘विश्वास बनाम अविश्वास’ की भावना सबसे महत्त्वपूर्ण होती है, जो माँ की गोद और लोरी से उपजती है। लेकिन वही लोरी अबोध बालिका के लिए केवल स्नेह का नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पटकथा का आधार बन जाती है, जहाँ सुंदरता, सहनशीलता, गृह-कर्तव्यों और मौन को स्त्री-धर्म के रूप में सिखाया जाता है। इस तरह स्त्री स्वयं ही बचपन में एक और स्त्री को उसकी पूर्वनिर्धारित भूमिका सौंपने लगती है।

स्त्रीवादी चिंतक सिमोन बउआ का प्रसिद्ध कथन है, “One is not born, but rather becomes, a woman.”
लोरी, स्त्री को 'बनाए जाने' की उसी प्रक्रिया की आरंभिक छाया है। जब बालिका बार-बार त्याग, सहनशीलता और मौन की स्त्रियों वाली कहानियाँ और लोरियाँ सुनती है, तो वह अनजाने ही उन्हीं छवियों में खुद को ढालने लगती है।

यह वही गहराई है जिसे कार्ल युंग ‘सामूहिक अचेतन’ कहते हैं, सामाजिक रूप से निर्मित स्त्री-छवियाँ, जो बालिका के अवचेतन में गहरे पैठती जाती हैं। दादी-नानी की कहानियाँ भी ऐसी ही स्त्रियों से भरी होती हैं, शांत, सजग, लेकिन निर्णयहीन। लोरी और लोक-कथाएँ बच्ची को ऐसा साँचा देती हैं, जो उसे सोचने के बजाय मानने और मौन समर्पण करने की तालीम देता है।

दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं, “Conditioning is the root of all fear.”
यदि लोरी conditioning का माध्यम बनती है, तो बालिका निष्क्रियता और भय से भरे मन के साथ बड़ी होती है, वह सोचने से पहले डरती है।

इसलिए आज की माँ को चाहिए कि वह अपनी लोरी में केवल नींद नहीं, चेतना भी गूंथे। ऐसी लोरी रचे जो बालिका को सिर्फ सुलाए नहीं, उसे भीतर से जगाए।
स्वामी विवेकानंद का आह्वान, “उठो, जागो, स्वयं को जानो”  केवल बालकों के लिए नहीं था। लेकिन यह बात शायद ही किसी माँ ने किसी बालिका से कही हो।
जबकि माँ की गोद केवल सुरक्षा की जगह नहीं, वह भूमि है जहाँ बालक-बालिका स्वयं को पहचानें, समझें, और सत्य का चुनाव करना सीखें।

भारतीय दर्शन में 'नाद ब्रह्म' की अवधारणा है, ध्वनि ही सृजन है। इसीलिए लोरी केवल गीत नहीं, निर्माण भी है। एक ऐसा संगीत जो शिशु में साहस, स्वप्न और निर्णय की शक्ति भर सकता है।

अब बालिका की लोरी में झाँसी की रानी को आना होगा, गूंगी गुड़ियों की जगह सोचने-बोलने वाली गुड़ियाँ लानी होंगी। ताकि वह केवल प्यारी, सुंदर और सीधी न बनकर, समझदार, नीति-प्रज्ञ और साहसी स्त्री बन सके।

यदि लोरी को बौद्धिक चेतना से रचा जाए, तो वह नींद में सुलाने का नहीं, नई दुनिया को जगाने का माध्यम बन सकती है। और जब एक बालिका का मन सशक्त होगा, तो वामा स्वतः सुदृढ़ होगी।

03.08.25


Comments

  1. माना कि समय मनुष्य को चाँद तक पहुँचा चुका है, तकनीक की बलिहारी! पर मांओं से एक विनम्र आग्रह है — कृपया अपनी लोरी को स्थगित मत कीजिए।



    मान लिया कि चमचमाती स्क्रीनें और रंग-बिरंगी छवियाँ बच्चों का ध्यान कुछ देर के लिए बाँध सकती हैं, लेकिन याद रखें — उनमें संवेदना नहीं होती। मां के स्पर्श, स्वर और स्नेह की बराबरी कोई मशीन नहीं कर सकती। ध्यान ये भी रखें, कहीं ऐसा न हो कि इन कृत्रिम माध्यमों के चलते आपके शिशु के भीतर असंवेदनशीलता चुपचाप घर न कर बैठे।

    और यदि आपकी गोद में बेटी है। बालिका है। तो दादी-नानी के समय से चली आ रही रूढ़ मान्यताओं से आगे बढ़िए।



    उसके भीतर "भाषा, भाव और भोलापन" को एक संवेदनशील मां की तरह रोपिए, सींचिए, चाहे नौकरीपेशा हों या किसी और ज़रूरत में लगातार खर्च हो रही हों — यह आपकी बेटी का हक है, कि उसे पूरी की पूरी मां मिले।



    याद ये भी रखना होगा कि आज की बालिका ही कल की वामा है।



    वह, जो कोमलता, सृजन, शक्ति, सौंदर्य, सूझबूझ और मानवीय संस्कृति का स्वरूप है। आपके यानी मां के और उसके गिर्द जो भी स्त्रियां हों, उनके विचारों, व्यवहार और शब्दों में उसका यह रूप प्रतिबिंबित हो उतरना चाहिए।



    आपकी बेटी "सम्मान और सहमति" की भाषा और व्याकरण तभी सीख सकेगी।

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