तकनीकी धुँध में मनुष्यता




"तकनिकी धुंध में मनुष्यता” लेख उस अदृश्य खामोशी की पड़ताल करता है, जो तकनीक की चकाचौंध में हमारे भीतर घर कर गई है। यह एक आत्ममंथन है, जहाँ स्क्रॉलिंग की उँगलियाँ तेज़ होती जा रही हैं, लेकिन संवेदनाएँ मद्धम। सवाल यह नहीं कि मशीनें कितनी आगे बढ़ गई हैं, बल्कि यह है कि मनुष्य अपने भीतर कितना पीछे छूट गया है। क्या हम अब भी मनुष्य हैं, या सिर्फ डेटा और ट्रेंड का हिस्सा? यह लेख उसी प्रश्न को उजागर करता है…

जनसत्ता अख़बार और अनुक्रम पत्रिका में प्रकाशित

28जुलाई 2025 जनसत्ता के संस्करण में प्रकाशित

                                                                         

आज की तकनीकी प्रगति ने मनुष्य को जितनी सुविधाएं दी हैं, उससे ज्यादा उसके भीतर की संवेदना और आत्मानुभूति को भौंतरी बना दिया है। मानो मनुष्य अपने ही भीतर से निर्वासित हो चुका है और उसे पता भी नहीं चला। वक्त की खुली चेतावनियों के मध्य यदि मनुष्य ने आत्मसमीक्षा, मौन और स्वविवेक को पुनर्जीवित न किया, तो वह दिन दूर नहीं, जब रोबोटों से भरे समाज में मनुष्य आत्माहीन बनकर रह जाएँगे।

कहने को यह समय विज्ञान की विजयगाथाओं का है। मशीनें तेज़ और तेज़ होती जा रही हैं। मशीनी कारनामें लुभावने लग सकते हैं लेकिन मानवीय हृदय जैसी कोमलता कहाँ से आएगी? ठंडे और भ्रमित मन वाले व्यक्ति क्या समाज में सहिष्णुता बचा पाएँगे? आज बूढ़ा हो या नौजवान सभी के हाथों में छोटी बड़ी स्क्रीनें चमक रही हैं लेकिन उनकी अंतरात्मा बुझ रही है, इस बात का मलाल किसी को नहीं। दस सेकेंड की रीलों में जीवन भर की संवेदनाएँ खो रही हैं। आत्मा का स्पेस सिकुड़ता जा रहा है। अगली और पिछली पीढ़ियों की चेतना पुनर्स्थापना होने की ज़रूरत है, वरना दासता का इतिहास दोहराया जाएगा। भले कोई ये नहीं कहता कि "समय नहीं कट रहा", क्योंकि अब समय काटा नहीं जाता, बल्कि समय को निगला जा रहा है, उँगलियों की स्क्रॉलिंग में, रीलों की चमक में, नोटिफिकेशन की कौंध में। समय अब 'अनुभव' नहीं, 'उपयोग' की वस्तु बन गया है। यह केवल सांस्कृतिक, सभ्यात्मक परिवर्तन नहीं है, बल्कि ये विवेक का ह्रास और चेतना की मृत्यु का दौर है। मनुष्य अब प्रश्न खड़े नहीं करता। समस्या को मशीनों और सोशल मीडिया के शोर में तिरोहित कर देता है। या करने की मंशा रखता है। मनुष्य को मौन से डर लगता है। अकेलापन अब आत्मदर्शन की भूमि नहीं रहा। अकेलेपन में इंस्टाग्राम की कंक्रीट बिछा दी गई है। उसी पर दौड़ती हैं,आँखें, कान और मन।

यहाँ पर सब कुछ उपलब्ध है। अगर कुछ नहीं तो मनुष्यता का टोटा है। रील बनाने वाली स्त्री-पुरुष पैसे कमा रहे हैं। दूसरे से बेहतर होने में किसी भी सीमा को पार करने के लिए लोग आमादा हैं। बाहर से भरे भरे दिखने वालों के भीतर भयानक खालीपन पनप रहा है। जहाँ आत्मा का स्पेस था। स्पंदन था। वहां अब ‘ट्रेंडिंग ऑडियो’ की धुन गूंजती रहती है।

मानवीय वह चेतना जो कभी कला के रचाव में जीवन को रचती थी, अब 'कंटेंट' बन रही है। मानवीय संवेदनाएँ अब उपभोक्तावाद के हाथों गिरवी रख दी गई हैं। विवेक का स्थान वायरल होने की आकांक्षा ने ले लिया है। करुणा की जगह ‘क्लिक्स’ ने और सत्य की जगह ट्रेंड और ट्रॉल ने लिया है। ऐसे में यह प्रश्न उठाना अनिवार्य है कि क्या अगली से अगली पीढ़ी मनुष्य कहलाने योग्य बचेगी? शायद नहीं। क्योंकि आगे आने वाली पीढ़ियाँ डिग्रीधारी होंगी मगर उनमें सहज जीवन का विजन नहीं होगा। आधुनिक विकास से ओतप्रोत दिखेंगे पर आत्मविहीन ज्यादा न लगेंगे। मशीनी दासता का यह नया संस्करण पहले से अधिक भयावह होगा।

विकसित युग की गुलामी हथकड़ी से नहीं,हैशटैग से आएगी। शोषण तलवार से नहीं, स्क्रीन से होगा और सबसे बड़ी बात यह पूरी प्रक्रिया लोकतांत्रिक लगेगी क्योंकि मनुष्य ने स्वयं ही अपने विवेक का दमान छोड़ा होगा। यदि मनुष्य ने अब भी चिंतन नहीं किया, तो वह दिन दूर नहीं जब

इतिहास कहेगा कि कभी " सभ्य मनुष्य हुआ करता था—-यानी मशीनों की गति ने जीवन की गरिमा को निगलना शुरू कर दिया है। रीलों, एल्गोरिद्म, चैटबॉट्स और स्वचालित जीवनशैली के बीच मनुष्य की चेतना एक 'डेटा पॉइंट' बनती जा रही है, जो सोचता नहीं, बस स्क्रॉल करता जाता है।

 आधुनिक मनुष्य अपने समय का उपभोक्ता तो बन गया है, पर साधक नहीं रहा। अकेलेपन को अब कोई आत्मान्वेषण की भूमि नहीं मानता, बल्कि उस पर एंटरटेनमेंट का लेप लगाकर नकली हँसी हंसता जा रहा है। 

 उदाहरणस्वरूप, चिकित्सा क्षेत्र में जहाँ कभी एक चिकित्सक की संवेदनशीलता मरीज के जीवन का भरोसा हुआ करती थी, वहाँ अब चैटबॉट आधारित हेल्थ असिस्टेंट आपको "आपका समय समाप्त हुआ" कहकर स्क्रीन से हटा देता है। वह आपकी पीड़ा नहीं, केवल आपकी 'इनपुट वैल्यू' पढ़ता है। शिक्षा का क्षेत्र देखें। पहले शिक्षक बच्चों की आँखों में देखकर उनके सवालों को पढ़ते थे। अब AI-प्रशिक्षित ई-प्लेटफॉर्म केवल 'एंगेजमेंट रेट' और 'रीटेंशन टाइम' को पढ़ते हैं। बच्चों की जिज्ञासा अब ‘यूजर बिहेवियर डेटा’ बन गई है।

आज की सबसे बड़ी त्रासदी यह नहीं है कि इंसान मशीनों जैसा हो रहा है बल्कि वह आत्मानुभूति की गहराइयों से विमुख होता जा रहा है. जो आत्मसमीक्षा कभी पीड़ा के साथ आती थी, अब उसे ‘नेगेटिव वाइब्स’ कहकर खारिज कर दिया गया है। संवेदनाएँ अब कंटेंट बन गई हैं। रील बनाने वाली स्त्री, जो कभी परिवार की भाग्यविधाता होती थी,अब एल्गोरिद्म के इशारों पर थिरक रही है। वह अकड़ के साथ रहती है क्योंकि वह पैसे कमा रही है, लेकिन स्त्री जो जननी भी है,धीरे-धीरे एक अर्निग मशीन में बदल रही है। स्त्री बेहद उपयोगी बन और लग रही है पर नरी असंवेदनशील।

   यह केवल पीढ़ी दर पीढ़ी का अवमूल्यन नहीं है, यह सभ्यता के केंद्रीयता का पतन है। संसार की आत्मा का क्षरण है। क्योंकि आज का बच्चा रोबोट से बात करना जानता है, लेकिन रिश्तों से संवाद करना भूल चुका है। AI-कंपेनियन जैसे ‘Replika’ एलेक्सा और ‘Anima’ अब मनुष्यों के एकाकीपन के उत्तरदाता बन गए हैं। क्या यह तकनीक की जीत है, या समाज की पराजय? कौन बताएगा? जबकि हमें यह समझना होगा कि जब भी मनुष्य ने अपने भीतर के मौन को मशीनों के स्वर से भरने की कोशिश की है, तब तब सभ्यताओं और संस्कृतियों ने अपनी आत्मा गंवाई है। 

दुख इस बात का रहेगा कि इन परिस्थितियों को मशीनों ने नहीं, मनुष्यों की बनाई हुई है। जो अपनी चेतना संरक्षित न कर पाया तो राष्ट्र चेतना को कैसे बचा पाएगा? फिर तो ये तकनीकी उन्नति केवल एक छलावा बनकर रह जायेगी।

अब समय आ गया है जब हमें स्वयं निर्णय लेना होगा कि विकास की अंधी दौड़ में किसे बचाएँगे? मनुष्य को या मशीन को?संवेदना को या स्क्रीन को? विवेक को या ‘वर्चुअलिटी’ को? यदि अब भी नहीं चेते तो रोबोटों के बीच रोबोट बनने से कोई नहीं रोक पाएगा। आगे आने वाले समय में कहानियों में लोग सुनाया करेंगे कि,"एक तकनीकी युग था, जिसमें मनुष्य अपने ही भीतर लुप्त हो गया था।"

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                    लेखिका: कल्पना मनोरमा 


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