दुःख का बोनसाई
"हलो निक्की..! क्या सो रही हो ?"
"नहीं तो…। आप बताओ…! आप क्यों जाग रही हो माँ ?"
“हम क्या सोच रहे हैं…?”
“बोलो ..…?”
“दामादजी और बच्चों को लेकर दीवाली में तुम घर चली आओ।"
"माँ…! इतनी रात में आप ये सब सोचने बैठी हो…?"
“उसमें रात क्या..! हम सही सोच रहे हैं…।”
“सब कुछ जानते हुए भी…?” निकिता उठकर बरांडे में घूम-घूमकर बात करने लगी।
"हाँ, तुम चली आओ। जब तक हम हैं। मेरे बाद जैसा मन हो, करना…।"
"मतलब आप क्या चाहती हो…जिन्दा मक्खी निगल लूँ..? आह भरे बिना…!"
"भूल जाओ कड़वी बातों और भदेस घटनाओं को…।"
"काश! संभव हो पाता माँ…!”
“कुछ भी असंभव नहीं, एक बार मन बना लिया जाए तो..। कोशिश तो करो।”
“कैसे ..?”
“माफ़ी किसी और के लिए नहीं,…अपने सुकून के लिए दी जाती है।”
“गहरे अपमान पर माफ़ी का चंदन! अब लेपा नहीं जाता…।"
"हम ये कह ही नहीं सकते…। सिवाय इसके कि हो सकता है…अगली दीवाली …?”
"प्लीज माँ! मत कहा करो ऐसी बातें…। हमेशा जीत जाती हो ये सब बुरा-भला बोलकर।"
“माँ-बेटी में क्या हारना, क्या जीतना..? प्रतीक्षा करेंगे हम…। सो जाओ अब।”
“सोचूँगी…,अभी रखती हूँ फोन।”
“............”
अभी रात के चार भी नहीं बजे हैं। निकिता की माँ का फोन आ गया…।
निकिता सोच कर भी समझ नहीं पा रही है, माँ की मंशा। उसका विगत एक के बाद एक उधड़ने लगा। वह चुपचाप आकर लेट गयी और सोचने लगी—
निश्चित ही माँ रात भर सोई नहीं…। जीवन की घुटन हमेशा उनकी नींद उड़ाती आ रही है। माँ के दुखों को मैं कैसे भी बाँट नहीं सकी। न वे सोचना बंद करेंगी और न बातें पुरानी होकर उनके मन से निकल सकेंगी। वैसे भी आधे से ज्यादा दुःख…साझे हैं हमारे। जिनमें सिर्फ़ साथ में रोया जा सकता है, कोई किसी को समझा-बुझा नहीं सकता।
माँ इस बात को क्यों नहीं समझतीं– दर्द उदार नहीं होते..? दर्द के घर में ख़ुशी का वास संभव ही नहीं।
जख्मों की थाती बना जीवन कितना सहिष्णु हो सकता है ? मैं जानती हूँ। किंतु पीर के साथ प्रार्थना भी कैसे करूँ…? यह भी सम्भव नहीं।
दूसरों के लिए कहूँ भी तो क्या..! जब माँ के व्यवहार से ही मेरा अपना बचपन छिला पड़ा हो। जो माँ यह कहे— निक्की में प्राण बसते हैं और उसी माँ की कठोरता निक्की के लिए दुःख का कारण बन जाये। बुद्धिजीवी भले ही समझ जाएँ इस ममतालु प्रक्रिया को लेकिन एक बच्चा ममता की गहराई और दुनियावी दुःख की मारी माँ को क्या ही समझ पाता…?
वैसे भी दुःख से प्रेम की धारा महीन होती है। पल में छिन्न-भिन्न हो समय की गर्त में बिला जाती है। प्रेम मरुथल के पेट पर पड़ी वह सलवट है जो थोड़ी देर के लिए आकार लेकर उभरती है। देख सको तो ठीक,नहीं तो उड़ा ले जाती हैं हवाएँ।
आजी की अमानवीय कठोरता, पिता के शुष्क बर्तावों का गुबार…माँ मुझ पर उड़ेलती रहीं। जातीं कहाँ? यही उपाय आसान था, उनके लिए। अब लगता है। जब-जब ये अघटित घटा, तब-तब मेरी विकलता ऐसी बढ़ती रही कि प्राणों को निकालकर फेंक सकती… तो फेंक कर छुटकारा पा लेती। बे-अपराध किसी की डांट खाना, किसी के लिए भी सुखकर नहीं…। लेकिन मेरी नियति ठहरी मोम की गुड़िया वाली। माँ के साँचे में ढलती-बिगड़ती रही। ऐसा नहीं मैंने शिकायत नहीं की…खूब की। लेकिन माँ के पास मेरी शिकायत का एक ही जवाब रहा–”घर में तुम ही तो मेरी अपनी हो…। अपनों के लिए क्या सोचना..? फिर चाहे डाँटना ही क्यों हो…।मारना ही क्यों न हो ?”
सास की हृदय-सरिता में, जिस स्त्री को कोमलता से बहना था, वह आग का दरिया बनी रही। माँ की बाध्यता रही, स्नान उसी में करते रहना था। वे झुलसती नहीं तो क्या होता..? ये बात अब समझ आती है। बचपन में मुझे भी, माँ अबूझी स्त्री ही लगने लगी थीं।
माँ का दुःख, माँ बनकर ही समझा जा सकता है….।
माँ के साथ आजी का बैर कभी समझ ही नहीं आया। पिता को माँ के साथ हँसते-बोलते देख, उनकी त्योरियाँ क्यों चढ़ जाती थीं..? उन्हें देख हमेशा लगता जैसे माँ उनकी बहू नहीं, उनके बेटे को छीनकर अपना बनाने आई कोई गैर स्त्री है। वे अपने बेटे-बहू के जीवन में एकजुटता की अभिलाषी ही नहीं रहीं। आजी के भीतर की ‘माँ’ उदार न होकर सौतिया डाह से भरी रही। और मेरी माँ अपनी सास के दुर्व्यवहारों को धो-पोंछकर सब ठीक होने की आस लिए बैठी रहीं। न जाने कितनी बार माँ को आजी के आगे रोते-गिड़गिड़ाते देखा।
याद आता है, माँ के घर नववर्ष का कैलेंडर ही सिर्फ नहीं बदला गया– हर वर्ष माँ आजी के आगे नया साल अच्छा बना रहे,अच्छा बीते की कामना लिए…उनके पैरों पर माथा रगड़ती रहीं। लेकिन हुआ वही जो उनकी सास को भाया। क्योंकि उनके सहयोगी माँ के पति और बेटे जो बने रहे।
माँ छीजती रहीं, आजी हरियाती रहीं।
चिढ़ मुझे और किसी पर नहीं, माँ पर आती है। उन्होंने क्यों नहीं समझी अपनी कीमत…? क्यों नहीं लौटीं वे अपनी ओर…? जिद्दियों के बीच रहकर, वे क्यों जिद्दी न बन सकीं..? पिता का अपनी माँ के प्रति समर्पण समझ आया। लेकिन माँ के अपने बेटे भी आजी के भक्त हो गये। कैसे…? माँ ने क्यों दूर नहीं रखा उनको ? वे अपने बच्चों को उनके नजदीक फटकने से रोक सकती थीं। दुनिया की हर माँ अपना स्थान पहले सुरक्षित करना चाहती है। कम से कम अपनी बहुओं-बेटों से ही सीख लेतीं। कैसे वे सब अपने बच्चों को उनसे दूर रखते हैं। मगर मेरी माँ ने अपने धर्म-कर्म में हमेशा भरोसा रखा। अपने बेटों पर खुद से अधिक वे आजी का अधिकार मानती रहीं। माँ ने अपने आत्मजों को बिना किन्तु-परन्तु उस स्त्री को सौंप दिया जो अहसान फ़रामोश थी। कठोर थी, उनके प्रति। प्रतिद्वंदी थी। पत्थर दिल थीं। जिसे सिर्फ और सिर्फ अपने सुख की चिंता रही। फिर क्यों माँ ने स्त्री के कर्तव्य आत्मा से बढ़कर माने?
इतने पर भी आत्म-प्रेम में डूबी आजी ने माँ के प्रति उनके बेटों के कान भर-भर कर अपना प्रेमी और माँ के प्रति शुष्क बना दिया, जिसके खून में वे सिरजे गये थे।
स्त्री के पास अपना कहने के लिए दो ही तो घर होते हैं। एक जहाँ वह उगी होती है। और दूसरा, जहाँ वह रोपी गई होती है। इन दोनों जगहों पर प्रशंसक के रूप में स्त्री के पास…सिर्फ अपनी औलाद होती है। अगर इनमें से एक भी अपनी जगह से डगमगाने लगें तो स्त्री के जीवन में भूचाल आने से कौन रोक सकता है..? स्त्री-जीवन बेनाम दौड़ में पच जाता है।
ताज्जुब! तो इसका है—जिस खेल से माँ खुद गलती रहीं, उसी में मुझे घसीटना चाहती हैं। बिना किसी अपराध के घृणा भरी नजरों का सामना करना…! माँ के लिए आसान होगा..मेरे लिए नहीं। अब, जबकि मेरे पास दूर रहने का अपना-सा ऑप्शन है तो बे-जरूरत कुछ भी सहन करने का मन नहीं…। जो मुझे देखना ही पसंद न करें… उसके आगे पड़ना ही क्यों…?
मैं कोई दूध पीती बच्ची तो हूँ नहीं जो पानी को मम्म मम्म कहती रहूँगी। लेकिन मेरी माँ सारी कुरूपता छिपाकर, मुझे मायके का उजला पक्ष दिखाना चाहती हैं। जिसकी खोज में उन्होंने खुद को गला डाला मगर हासिल न हो सका…।
बेतरतीब विचारों की गुंजलक में फँसी निकिता बिस्तर पर अचेत पड़ी है। अलार्म बज-बजकर बंद हो चुका है। पति और बेटा बगल से उठ गये हैं। पता ही न चला उसे। मन के साथ तन भी भारी हो चला है उसका।
“ओ हेल्लो…! निक्की! क्या हुआ…? अमन की छुट्टी नहीं…। मुझे भी ऑफिस जाना है।“ पति ने आवाज लगाई।
अमन का नाम सुनते ही उसे याद आया। आज अमन स्कूल टूर पर जा रहा है। तैयारी रात में कर दी थी। पर उसके लिए टिफिन बनाकर देना है। पलंग से छलांग लगते हुए वह रसोई में पहुँच गयी। बोलने का मन नहीं है। चुपचाप बेटे की पसंद का नाश्ता बनाकर, उसे स्कूल भेज दिया। उसके बाद पति भी ऑफिस चले गये।
अब उसे ऑफिस के लिए खुद को तैयार करना है। मन ठंडा और उदास है।
वह जाकर शावर के नीचे खड़ी हो गयी। नहाने के बाद भी तन-मन धुला नहीं लग रहा है। पाँव में मनभर बोझ बंधा हो जैसे—खुद को धकेलकर तैयार होने लगी। गाड़ी की चाबी उठायी। मन अभी सुस्त और अनमना है। बैग छोड़कर उसने ए. जी. ऑफिस फोन लगा दिया। सहकर्मी रमणिका से कहा– मेरी तबियत ठीक नहीं रमी। प्लीज बॉस को बता दो, मैं आज ऑफिस नहीं आ पाऊँगी।
“ओके निकिता…! प्लीज टेक रेस्ट।” रमणिका ने आश्वासन दिया।
फोन रखने के बाद निकिता का मन हुआ, चादर तान कर सो जाए। लेकिन कामवाली का ख्याल हो आया। दो मिनट भी नहीं लगे…उसने फोन कर मेड की भी छुट्टी कर दी।
अब वह रोते-रोते हँस सकती है। हँसते-हँसते रो सकती है। कोई रोकने-टोकने वाला नहीं।
वह बरगद के बोनसाई के पास गयी।
निकिता जब गहरी उदासी में होती है। बोनसाई बरगद की शरण लेती है। अहेतुक स्नेह पाने के लिए लोग पालते होंगे कुत्ता, बिल्ली, खरगोश…। निकिता ने सिरेमिक पॉट में बरगद के बोनसाई को पाला है। अमन से बड़ा है बोनसाई। उसे वह किट्टू कहती है।
निकिता का सुबह से भरा-भरा मन अब बरसना चाहता है। बोनसाई बरगद यानी किट्टू बिना ना-नुकर भीगने को तैयार है। दोनों एक-दूसरे को ताक रहे हैं। उसने बरगद के पत्तों से धूल पोंछी। पानी छिड़का और उसके पास बैठ गयी।
बोनसाई निकिता को और निकिता बोनसाई को देख रहे हैं। खिड़की से झाँकता आसमान साक्षी है।
“किट्टू तू बता! क्या करूँ..? अपने स्वाभिमान को बचाऊँ…? या माँ की ममता को…?”
बोनसाई मौन है। वह जानता है— स्त्री, अपनी किसी भी शंका पर समाधान नहीं चाहती। वह तो अहानिकर श्रोता चाहती है। ऐसा श्रोता जो मन देकर स्त्री को सुने। बरगद समर्पित भाव में है।
निकिता अंतर्द्वंद्व में गहरे उतर कर संवादों में डूब गयी। बोनसाई श्रोता में तब्दील हो गया। थोड़ी देर उसे अटपटा लगा कि वह अपना दुःख सुना किसे रही है…? मगर कुछ देर बाद ही…वह अपनी माँ के सामने बातें कर रही है…। किट्टू माँ बन गया—-
माँ, मैं दिवाली में इसलिए नहीं आ रही हूँ क्योंकि आपके बेटे-बहुओं को आप पर कब्ज़ा चाहिए। आपके मन पर कब्जा चाहिए। आपकी ममता पर भी…।आजी और पापा भी यही चाहत हैं कि आप मुझे भूल जाओ। मेरे बिना रहने की आदत डाल लो। तो सोच लो न..! कि मैं इस दुनिया में नहीं हूँ। जबकि आपके प्रति सबके नजरिये में सुधार की भरपूर गुंजाइश है। पर मैंने कभी किसी से कहा ? फिर भी आपके नजदीक मेरा आना लोगों को खटकता है। आपको इस उम्र में आते-आते एक अहेतुक श्रोता ही तो चाहिए। मैं जानती हूँ और सोचती हूँ– इसके अलावा आपको मैं दे भी क्या सकती हूँ…बस कान दिए रहती हूँ।
सबको पता होना चाहिए– हमारा साथ माँ-बेटी से ज्यादा दो स्त्रियों का है। जो एक दूजे के दुखों को जानती हैं। महसूस कर सकती हैं। साझा कर सकती है।
जब घर में कोई नहीं सोचता कि हमें बुरा लग सकता है। तो मैं ही क्यों सोचूँ सबके बारे में ? आपकी बात सुन भर लेने से सभी को क्यों लगता है कि मैं आपको बढ़ावा दे रही हूँ। कि मैं आपको उकसा रही हूँ..।कि मैं आपको लड़ना सिखा रही हूँ। मेरी नजदीकी माँ-बेटी की है। पापा को क्यों लगता है कि मैं आपसे ज्यादा घुली-मिली तो बरगला कर कुछ ऐसा हासिल कर लूँगी…जो सिर्फ उनका है। उनके बाद उनके बेटों का है।
जैसे मैं तो आसमान से टपकी हूँ। मुझे भी पिता ने ही जन्म दिया है। उनकी छत्रछाया में ही पहली डग भरना, दूध-भात खाना, ककहरा सीखना…सब कुछ उनकी आँखों के सामने ही सीखा है?
फिर भी मैं अनपहचानी क्यों रह गयी…? है कोई आपके पास जवाब…?
अभी चार महीने ही बीते होंगे– पापा आपको दिखाकर अस्पताल से लौट रहे थे। आपकी बिगड़ी तबियत मुझे विकल बना रही थी। जानते हुए कि पापा आपके साथ में हैं। उन्हें, मेरा फोन करना अच्छा नहीं लगेगा—मैंने फोन लगा दिया–
आपने बस हैलो ही बोला पाया था…”इन्हें क्या हुआ..? बार-बार फोन क्यों कर रही हैं निकिता ?” पापा की रूखी, सूखी, परायेपन से भरी आव़ाज आई। मन हुआ उसी समय लड़ मरुँ। आपने कुछ कहे बिना फोन काट दिया। आप जानती थीं, अगर कुछ कहा तो ड्राइवर के सामने ही झाड़-पोंछ होने लगेगी। न जाने कौन-सी ग्रंथि के शिकार हैं पापा। या उनकी अम्मा ने उन्हें ऐसा बना दिया है।
माना कि आजी को बेटियाँ पसंद नहीं। मगर पिता के हृदय से भी मानवता बिसर जायेगी..ये बात हजम नहीं होती…।
जहाँ आने के लिए आप इतना आग्रह कर रही हो। सच बताओ माँ..! वह घर कितना है आपका..? कौन से सिद्धांत, मान्यताएँ आपकी मानी गयीं उस घर में ? बल्कि उस घर में हर व्यक्ति अपने सिद्धांत, अपनी शर्तों पर चलता है।
मैं आपकी अवहेलना भूली नहीं…? बेटी पैदा करना आपका कुसूर नहीं था। आपकी सास का रोना-धोना महीनों चलता रहा। पापा के मन की कठोरता भी उन्हीं की देन है। इंसान अपने पास दो मन कैसे रख सकता है। भाई के बच्चों को दुलराओ तो पापा मुस्कान के साथ प्रस्तुत। मेरे बच्चों को गोद में बिठा भर लो, तो चिढ़ से भर जाते हैं…। क्या मेरा अधिकार तुम पर भी नहीं? क्या सिर्फ़ बेटे ही तुम्हारी ममता की डालियों पर फले हैं?
सच कहूँ मैं अपने बच्चे को क्या ही ममता दूँ..! जब मैं खुद अपने शिशु-दुःख से उबर नहीं पायी हूँ। भावनात्मक रूप से मेरा मन नितांत खाली है। वह बात तो कभी भूलती नहीं। पापा ने मेरे बेटे कनु की दवाई लाने के लिए मुझसे पैसे माँगे थे। मैं इतनी गैर थी…? आपने रोकर मेरी सहानुभूति प्राप्त कर ली थी। मगर मेरे भीतर जो मवाद पड़ा, उसका क्या..?
समय ने उस बात को भुला दिया था लेकिन बड़े भैया के गृह-प्रवेश में, सगे-सौतेले का खेल पापा ने खूब खेला। उनके व्यवहार से परिचित थी। मगर छोटे भैया, जिन्हें मैं थोड़ा समझदार समझती हूँ, जानबूझ कर पापा द्वारा दवाई के पैसे माँगने वाला प्रकरण छेड़कर बैठ गये। जताते रहे कि मैं कितनी पराई हूँ पापा के लिए। ख़ुद भी हँसते रहे औरों को हँसाते रहे। मेरा जीवन उनके लिए मनोरंजन का साधन है।
मुँह बंद त्यागों ने आपको तपेदिक (टीबी) का मरीज़ बना दिया। क्या आप मुझे भी उसी कुँए में धकेलना चाहती हो? थोड़े दिन बाद तुम दुनिया छोड़ दोगी। मैं अनाथ हो जाऊँगी। जो तुम्हारे अपराधी हैं, बा-इज्जत घूमेंगे। मुझे सहना पड़ेगा आपकी सास को। मैं महान नहीं बनना चाहती हूँ माँ।
कभी-कभी ये भी लगता है कि मेरा दुःख इकहरा है। आपने तो दोहरे दुःख झेले हैं।
जब तक बच्ची रहीं तो अपने पिता का पक्षपात झेला…। जब बड़ी हुईं तो सास और पति के खोखले सैद्धांतिक व्यवहारों ने डस लिया। मायके में भाइयों की पत्नी भक्ति सहती रहीं। यहाँ अपने जाए बेटों की पत्नी भक्ति ने कुंद कर दिया आपको। मायके से लेनी-देनी में कमी रह जाने पर पापा और आजी की टौंचन सहती रहीं लेकिन कभी मायके में उफ़ नहीं की। पति के यहाँ की कमी किसी के आगे कहने में आपका सम्पर्पण और निष्ठा ने आपको घोंटकर मार दिया। क्या मिला आपको..?
हर काम में चुस्त-दुरुस्त होने के बावजूद आजी और पिता की बातों की अंतर्ध्वनि पकड़ने में कच्ची रह गयी आप! वही मुझसे चाहती हो। अपनों को बर्दाश्त करो। माफ़ करना सीखो। अपने दुःख किसी से मत कहो। अकेले फूलों की तरह महकती रहो। लेकिन माँ, फूलों को जुबान अगर होती तो वे ज़रूर मौसम और काँटों की ज्यादितियाँ बताते।
मैं कहती हूँ– अगर आपके अंदर बर्दाश्त करने का हुनर न होता तो ज्यादा अच्छा होता। अपने और मेरे जीवन का आस्वाद अपनी तरह से ले पातीं…!
पिछली दीवाली आपकी तबियत ज्यादा बिगड़ गयी। सबको जुटना था, जुट गये। भैया-भाभी ने दीवाली की पूजा की। मजाल एक फूल चढ़ाने के लिए भी आवाज दे देते मुझे। अपने पास बुलाकर बैठा लेते। जैसे अपमान सहना ही मेरा प्राप्य बन गया है। आपको बोलना था पर जुबान मौन रही आपकी।
मेरी भी इच्छा होती है कि आपके अलावा घर में और कोई भी आवाज दे। जब मायके जाऊँ तो हुमक कर पापा को आवाज़ लगाऊँ— पापा मैं आ गयी हूँ। रिश्तों के बीहड़ में भागते-भागते थक चुकी हूँ। आपकी अपनत्व भरी छाया में अब सुस्ताना चाहती हूँ।
क्या चाहकर भी मैं ये कह सकी…? अपने मन का कहने के लिए भी दूसरे का मन चाहिए होता है।
पेड़ की डालियाँ भी सिर उठाकर आकाश को धरती की सदाशयता सुनाती हैं। मैं भी आपके समर्पण को धीरे-धीरे बताना चाहती थी…। ये भी कि पापा पर जितना हक़ भाइयों का है, मेरा अपना भी है। लेकिन अपने प्रति जब भी पाया, आपको अकेले ही बरसता पाया। लगता है कि मेरा जीवन सिर्फ आपका कर्जदार है! आपने ही मुझे अकेले पाला-पोषा, बड़ा किया है। इसका बदला कभी चुका नहीं सकती। एक दीवाली ही क्या! हर बार दीवाली पर आ सकती हूँ। अपमान सहकर भी आपको मान दे सकती हूँ।
आहत भावनाओं का गुबार जब छंटा तो आँसुओं से भर आई आँखें बरस पड़ीं। निकिता का ध्यान किट्टू (बोनसाई) पर गया। अरे! मैं तो भूल ही गयी थी तुझे।
किट्टू, तू सुन रहा है..? जिस तरह तू अपनी काया बड़ी नहीं कर सकता। मैं अपने दुखों से निजात नहीं पा सकती। अपनों के द्वारा दुरदुराए जीव के पास अपमान के अलावा कुछ नहीं होता। सुन्दरता के दीवानों ने जिस तरह तुझे बोनसाई में बदल दिया। उसी तरह स्वसिद्धि के चितेरों को स्त्रियों के दुःख, दुःख नहीं, प्रपंच लगते हैं। मेरा जीवन अपवाद नहीं…।
किट्टू बोनसाई अब भी समर्पित है। मौन है—निकिता का मन हल्का हो आया है।
सूरज दो बल्ली आसमान चढ़ आया है। कमरे में धूप लम्बाई में सोयी पड़ी है। खिड़की से घुसती उजास की मोटी रेखा में… हज़ारों धूल के कण थरथरा रहे हैं। निकिता का मन काँपकर कुछ शांत हो आया है। उसने दर्पण देखा। अपने रूप में माँ बोलती-सी पाई…।
मोबाइल उठाकर निकिता माँ का नंबर डायल करने लगी।
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कहानी दिल को छू गई सिर्फ एक निकिता नहीं बल्कि हिस्सों में बंटी कर अलग अलग भूमिका में जीती रही हैं। कितनी हैं ऐसी सबको लिख नहीं सकते और लिखा तो ......।
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