"कांपती हुई लकीरें"



जेंडर असमानता मूलक समाज में अवधारणाएं निर्धारित करते हुए स्त्री पुरुष को सहजीवन, सहयात्री या साथी के रूप में न देखते हुए एक दूसरे का विरोधी बताया गया। दोनों को वर्चस्ववादी शक्तियां हासिल करनें को उकसाया गया। समानता या साथ साथ चलकर जीवन को देखने की बात कम ही सामने आती रही और इस विद्रोहीपने से विरोधाभास घटा नहीं दुश्मनियाँ गाढ़ी होती गईं और स्त्री पुरुष युद्धरत हो गये।
जो जिस पक्ष का सहगामी हुआ बढ़ा चढ़ाकर समाने वाले को नीचा, आक्रोशित, खूंखार दिखाने के लिए तथ्य खोजने लगा। एक तरफ़ रोटी कपड़ा मकान की जुगाड़ में जुटी दुनिया में अस्मिता का घमासान मच गया।
सार्वभौमिक मान्यता है कि कोई भी कार्य हो या मुख से निकला शब्द अन्यथा नहीं जाता। तो जेंडर इक्वलिटी के लिए हुए कार्यों के परिणाम स्वरूप सुधार के रूप में कुछ मुठ्ठी भर स्त्रैण रौशनी हाथ आने लगी मगर लड़ाई अभी भी बाकी और जारी है.....
इस दौरान विपरीत जेंडर के जीवन में झांकना जोख़िम भरा एक दुस्साहस का काम है, जिसे पूरे मन से कर लिया गया है। पुरुष संवेदना या पीड़ा पर आधारित कथा संकलन जब से प्रकाशित हुआ है, लगातार लोगों की मौखिक प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं।
उसी क्रम में वन्दना बाजपेयी जी की मौखिक प्रतिक्रिया मिलना सुखद अनुभूति करा रही है।
नहीं पता साहित्य में मेरे इस कार्य को कैसे देखा जा रहा होगा पर मैं इस पहल को अपनी स्त्री-कौम के हित में ही मानती हूं क्योंकि मैंने ये कार्य करते हुए अपनी किसी स्त्री के भाई, पिता, पुत्र, मित्र की पीड़ा को रेखांकित कर उसे संबल मिलेगा,की कामना की है।
पीड़ा, सुख की तरह नहीं होती।
सुख छिपाने से भी मन संपन्न बना रहता है और बताने से भी लेकिन पीड़ा को बेपर्द करने से ही ये वह विपन्नता को प्राप्त होती है और छिपाने से बलवती....।
बस!!! पीड़ा के क्षय के आलोक में इस उपक्रम को अगर देखा जाए तो खुशी होगी।
दोनों पुस्तकें अमेज़न पर उपलब्ध हैं। अमेज़न लिंक नीचे हैं।
"कांपती हुई लकीरें"
सहमी हुई धड़कनें

https://youtu.be/UStb74t0DjI?feature=shared


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