सेवक रबड़ी चाप रहे हैं
पंछी अम्बर नाप रहे हैं
हम दीवारें पाथ रहे हैं ।।
आग जलाकर चौराहों पर
हिम्म्मत वाले ताप रहे हैं ।।
गलती करने वाले ही ख़ुद
बेकुसूर को श्राप रहे हैं।।
प्रहरी जनता के बनकर वे
ख़बर भेद की छाप रहे हैं ।।
कोरी शान बचाने को,कुछ
गिद्ध,मंत्र को जाप रहे हैं ।।
शाही खर्चे पर धरना धर
सेवक रबड़ी चाप रहे हैं ।।
सच को फाँसी देने वाले
हरिश्चन्द्र के बाप रहे हैं ।।
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