ऋतुपति आवे पाहुना
फागुन जूड़े में लगा, चली बसंती
नार
ऋतुपति आवे पाहुना,झुक गई मन की डार!!
चलो सखी बगिया चलें, लाएं चुन कचनार
मदन सजीला आएगा, पहनेगा उर हार।।
मन पाखी उड़ता फिरे, खोजे मन का मीत
पात पात मिल गा रहा, बासंती मन गीत।।
हवा जोगिया बन चली, धूप बनी तलवार
सूरज बोला नेह से, ठंड गई उस पार ।।
आओ नभ से उतर कर, कामदेव महराज
धरती ठिठुरी पड़ी है, साधो
इसके काज।।
मन पाखी उड़ता फिरे, खोजे मन का मीत
ReplyDeleteपात पात मिल गा रहा, बासंती मन गीत।।
वाह!!!
बहुत ही सुंदर ,मनमोहक
लाजवाब सृजन।
सुधा जी, बहुत आभार
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(०९ ०२-२०२३) को 'एक कोना हमेशा बसंत होगा' (चर्चा-अंक -४६४०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
जी, बहुत आभार
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteशुक्रिया शालिनी जी
Deleteवाह ! मदमस्त करने वाली पंक्तियाँ
ReplyDeleteअनीता जी बहुत शुक्रिया
Deleteबहुत ही सुंदर स्रुजन, मनोरमा दी।
ReplyDeleteवास्तव रंग में, मधुमास दोहे.. वाह कल्पना जी..
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति
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