पड़ोसी के गुलमोहर पर आया बसंत

माघ विदा हो रहा है। ठिठुरती ठंड उसी के साथ जाने को मचल रही है लेकिन माघ भी कम चालाक नहीं, उसने मुस्कुराकर ठंड का हाथ फागुन के हाथ में पकड़ा दिया। फागुन ने काँपती बूढ़ी ठंड को झटपट धूप का गुनगुना स्वेटर पहना दिया। स्वेटर पहनकर वृद्धा ठंड संतुष्ट प्रेमिका की तरह मुस्कुराकर इतराने लगी। फागुन नेकड़ाके की सर्दीका नाम बदलकरगुलाबी सर्दीरख दिया। बच्चों ने अपने स्वेटर उतार कर फेंकना शुरू कर दिए। थोड़े ही दिनों में फागुन की हवा में जमा-सिमटा दुबका पड़ा भू-भाग अचानक रूखेपन से जूझने लगा। 


फागुन की झोली से धीरे से पतझड़ निकल कर चारों ओर बिखर गया तो बाग़-बगीचे सहम गए। नीम के नीचे पीले पत्तों का समुद्र बह निकला। डालियों ने पतझड़ को गलबहियाँ डालने से इंकार किया लेकिन उनकी जिद ज्यादा दिन चल न सकी। बदलते मौसम की पलक झपकते ही चारों ओर तीव्र पतझरी संगीत गूँज उठा और न चाहते हुए भी डालियों को समर्पण में अपने हाथ उठाकर काया पतझड़ को सौंपनी पड़ी। पतझड़ के दिन अबोली चुप्पियाँ लिए विकल वैरागी की तरह इतने भटके कि शामें अनमनी हो खुशियों की परिधि के बाहर छिटक गयीं। जीवन-सरिता मौसम की संधि-शून्यता में लीन अन्तस् में मौन सहेजने को मजबूर हो गयी। पेड़ों से पत्तों की विदाई वाली साँझें भोली-भाली उस गृहणी की तरह लगने लगीं जो शरीर से विरक्त हो आत्मलीन होकर संसार के मध्य जीती जरूर दिखती हैं पर होती नहीं लेकिन समय फिर बदलता है।

 

थोड़े दिन बाद पतझरी मौसम की अनुरागिनी साँझें अपनी जीवंत जिजीविषा के साथ संधिकाल की व्यथा को अकेले पीते हुए प्रकृति के आँचल पर उत्फुल्लता के हरे-हरे बूटे काढ़ने शुरू कर देती हैं। बीतते पतझड़ की नवयौवना भोर अपनी मद-भरी आँखों से मुखरित उमंग का संचार कर वायुमंडल में वासंती उल्लास बिखेरने लगती है। जीव-जगत का सत्यबोध आगाह करता है कि संसार में बसंत सदेह ही क्यों न उतर आए लेकिन धरती आसमान नहीं बन सकती और आसमान धरती नहीं, यही सत्य है। जो सर्वमान्य और सर्वविदित भी है। दसों दिशाओं का ये मौन संदेश मौसम की आत्मा को जाग्रत कर देता है।

 

अनंग आगमन पर धरती पुष्पाछादित हो महमहाने लगती है और आसमान नीले मूँगे जैसा दमक उठता है। मटमैले सरोवर में प्रफुल्लित कमल खिल उठते हैं। क्षितिज की मुंडेर से रस-वर्षा होती प्रतीत होती है। बसंत के दिन प्रेमरस भीने अनुराग में गुनगुना उठते हैं तो रातें फलदायी सतरंगी सपने बुनने में सक्षम बन जाती हैं। बसंत के मौसम में साँझ सुन्दरी की पायल कुछ अलग तरह से छनकती है, जिसे सुनकर दिवाकर अपने अस्ताचली यात्रा को विलम्ब से आरम्भ करने लगता है। इस तरह संसारी जीवन-चाव को प्राप्त हो जाता है।

 

देखते-देखते बसंती हवा बागानों और मकानों की रंगत बदल देती है जो कोंपलें डालियों में गहरी नींद में सोयी पड़ी थीं, वे मचलकर दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ने लगती हैं। मौसम की किलकारियों से बेजान ठूँठ भी लाचारी छोड़कर मुस्कुराने की जुगाड़ में तत्पर हो जाते हैं। कलियों पर यौवन आया देख तितलियों और भौंरों में प्रेमिल प्रतिस्पर्धा जाग्रत हो जाती है। बागानों में बसंती उत्सव की धूम दूर से देखी जा सकती है। बंद कलियों की ऊर्जा डालियों को उर्धगामी बना देती हैं। फिर एक दिन अरुणाई में कलियों के चटकने की सरगोशियाँ हवा के मार्फ़त वातावरण में दूर-दूर तक सुनाई पड़ने लगती हैं और कामदेव का जोगिया दुपट्टा फर-फर लहरा उठता है।

 

इस मौसम में एकांत से एकांत कोने अदृश्य कहकहों से गूँज उठते हैं। ककैया ईंटों से बने वर्षों से खाली पड़े मकानों के दर्रों में भी सन्नाटा अँखुआकर पत्ती-पत्ती हो जाता है। उसकी खसकी-भसकी मुड़ेरों पर लटकी बोगेनबेलिया की सूखी लतरों में इतनी जान आ जाती है कि वह उगते-ढलते सूरज को सर उठाकर देख सकें। बैकयार्ड में झुका बूढ़ा अशोक तामियाँ पत्तियों से भर जाता है कि उसकी डालियों में साँझ की चूनर उलझ-उलझ जाती है। इस छटा को देख माली अशोक के तने पर कोयला,लाल मिर्च और लोहे के छल्ले का नज़र बट्टू बनाकर बाँध देता है। लोगों के सूने पड़े बैकयार्ड (आँगन) लकदक हो उठते हैं मगर बसंत का मौन संदेशजियो और जीने दोकिसी-किसी को ही समझ आता है कि हवा के झोंकों के साथ कैसे खुद को बदल लिया जाना उपयुक्त कहलाता है। बसंत लालित्य के दाय में उन्मुक्त दाता है। 

 

अनंग का बाण बसंतदूती का कलेजा बींध देता है। वह गहरे मौन से जाग जाती है और अपने पंचम स्वर नाद से रतिपुरुष का अभिनंदन करती है लेकिन कोयल की स्वर लहरियों से खगकुल में एक अलग प्रकार की विचलन पैदा हो जाती है। न जाने क्यों वसंत आते ही सभी पंछी कोयल हो जाना चाहते हैं। संगीत के मोह में फँसकर कई पंछी नमक के गरारे करने लगते हैं। कई खट्टे, कसैले और कच्चे फल खाना बंद कर देते हैं। और कई तो अपना स्वसन-तंत्र ठीक करवाने अस्पतालों की लम्बी-लम्बी कतारों में पहुँच जाते हैं। घोंसलों में सिमटी बैठी नवजात शिशुओं की माएं कोयल के पंचम स्वरों का हवाला देते हुए अपने शिशुओं को समझाते हुए नहीं थकती हैं। 

 

कोयल के गायन से जहां मौसम ठुमक उठता है, वहीं महत्वाकांक्षी माँओं के खगशिशु अवसाद के शिकार हो खाना-पीना छोड़कर उदास हो जाते हैं। वहीं पर कई अहम शून्य पंछी कोकिला की स्वरलहरियाँ सुनकर सहज ही उसके शिष्य बन जाते हैं। इस वाकये को देखकर कोयल भाव खाते हुए अपने आप पर बलिहारी जाती है। स्वरों की मादकता में हवा-हवाई हुई कोयल अमराई से लदी आम्र-डालियों पर निश्चिंत हो ऐसे मीठे-सुरीले गीत छेड़ती है कि बाज़ के झपट्टों को वह सिरे से भूल जाती है और एक दिननज़र हटी दुर्घटना घटीवाली युक्ति चरितार्थ हो जाती है। जबकि वृक्षों में सदाबहार रहने वाला आम उसे बार-बार याद दिलाता रहता है कि बसंत सदा रहने वाला नहीं है, सम्हलकर गाओ लेकिन उतावलापन हमेशा समझ को खा जाता है।

 

खैरअब जब चारों ओर बसंत के चर्चे-पर्चे बिखर चुके हैं तो अपने मन को मैं कहाँ तक समझाती सो एक दिन नर्सरी जाकर मैं भी एकरबर प्लांटखरीद लाई। बस तब से मेरे घर के बसंत का यानी कि ख़ुशी का दारोमदार तीन पत्ती वाले रबर प्लांट पर टिका है। इस बसंत, मैं और मेरारबर प्लांटहमेशा खुश रहने की कोशिश करते हैं। अपने मन की बातें उसे बता कर मैं अच्छा महसूस करती हूँ। हर ओर पेड़-पौधे मदहोशी में झूमते दिख रहे हैं। पड़ोसी के आँगन में गुलमोहर उतावला हुआ सा जान पड़ता है। उसके गुलमोहर पर जमकर बसंत ने असर किया है। ठीक है। जिसकी जितनी सामर्थ्य। वह गुलमोहर के साथ खुश, मैं अपने रबर प्लांट के साथ लेकिन यह बात सिर्फ़ मैं जानती हूं, मेरा छोटा पौधा नहीं। हवा बिना भेदभाव सबको एक-सा झुलाती है। पड़ोसी का गुलमोहर भी हवा में लहराकर अक्सर मेरी बालकनी में झाँकने लगता है। उसकी रंगीन झलर-मलर काया को देख 'रबरू' का मुँह बन जाता है। मैं सोचती हूँ, चलो कोई बात नहीं बच्चा है, समझ जाएगा। 

 

एक दिन देखा मेरा नन्हा सा 'रबरू' बड़ा उदास है। पूछने पर पता चला कि पड़ोसी का गुलमोहर मचल-मचल कर इसकी ओर झाँकता ही नहीं, भद्दे इशारे कर उसे चिढ़ाता भी है। "नट्टू नटुआ नटूली कहता है।" मैंने उससे कहा कि किसी के झाँकने और कुछ कहने से कुछ भी नहीं बिगड़ता, झाँकने दो उसे आराम से और उसके कहने से कोई बुरा नहीं हो सकता। दुनिया में सब सुंदर हैं।

 

अपने रबरु को समझा दिया कि,”कोई कुछ भी करे हमें अपने ऊपर कंट्रोल होना चाहिए। उसका रंग रूप तेरे जैसा हो ही नहीं सकता और तेरा उसके जैसा। तुम उसे नहीं, सूरज की ओर देखो, चेतना वहीं से समृद्ध होगी।इतना सुनकर मेरा भोला रबरू लहराने लगता है।


लेकिन मेरे मन में आता है कि अभी पड़ोसी के गुलमोहर को जाकर सबक सिखा दूँ पर मौसम की नज़ाकत ने मुझे, कुछ भी करने की आज़ादी नहीं दी। जब अपना मन खुश हो तो किसी को दुःख कैसे और क्यों दूँ! साथ में ये भी कि मैं अपने नन्हें बच्चे के स्वभाव में कचरा कैसे भर दूँ। मैं उसे कैसे सिखा दूँ कि तुम भी उसे…। न न न ये बात मैं कतई उसे नहीं सिखा सकती कि जैसे वह करता है, तुम भी डबल उसे चिढ़ाओ क्योंकि मुझे पता है कि पड़ोसी का गुलमोहर बरसात में शांत हो जाएगा लेकिन मेरा 'रबरू' अभद्रता की हदें पार करना सीख गया तो मेरा तो बेड़ा गर्क हो जाएगा। एक बार कुछ सीख लेने पर याद थोड़े रहता है कि घर है या बाहर। बहुत कुछ सोच समझकर मैंने उससे वही बताया जो मेरी माँ मुझे बताया करती थीं,”हाथी चले अपनी चाल, कुत्ते भौंकते रहें हज़ार।उसने सुनकर मुस्कुरा दिया। 

 

दूसरे दिन सुबह-सुबह मैं उसे ताज़े पानी से नहलाने पहुँची तो देखा मेरा नन्हा-मुन्ना रबरू उछल रहा है। मुझे देखते ही कहने लगा,"देखना मम्मा, गुलमोहर की तरह मैं भी एक दिन आसमान छूकर दिखाऊँगा।


"अरेरेरे! मैंने तो तुझ से कभी नहीं कहा कि तुम गुलमोहर बन जाओ।" सुनकर मैं दंग रह गयी कि ये महाशय अभी धरती से उठे नहीं और इनकी बातें तो देखो! इतनी प्रतिस्पर्धा भी ठीक नहीं। फिर सोचा बच्चे का उत्साह चुक जाएगा इसलिए कुछ नहीं कहा। थोड़ी देर में आसमान पर हल्के बादल घिर आये। धरती से लेकर आसमान तक इन्द्रधनुषी आभा में हरे पेड़ सुआपंखी हो लहराने लगे। दिन की छटा बदल गयी। मेरा मन आह्लादित था ही कि अचानक फिर आवाज़ आई,” मम्मा, मेरी कलाई पर एक नजर बट्टू बाँध दो प्लीज़!गाल फुलाए रबरू बोल रहा था।

मतलब तुम क्या समझते हो अपने आप को? गुलमोहर की नकल करोगे? क्या समय से पहले बढ़ना चाहते हो? छोटे से बच्चे के लिए इतनी कल्पनाशीलता भी अच्छी नहीं। शांत रहो। रबरू, नज़र बट्टू से कुछ नहीं होता। तू चिन्ता मत कर तुझे कुछ नहीं होगा। और वैसे भी वक्त से पहले कुछ भी किसी को मिलता नहीं प्यारे! तू आराम से स्वर्ग से उतरते हुए बासंती मौसम का लुफ़्त उठाओ। सुरमई भोर को जी भरकर एंज्वॉय करो। बसंत एक बार चला गया तो आने में पूरा एक साल लगाएगा; समझे बच्चू!" मैंने दुलराते हुए उसके कान खींच दिए तो मेरातिपतिया रबरूफूलकर दरख़्त हो गया। वैसे स्वाभिमान का आसमान उसके पास पहले भी था किंतु अब उसने उसे ओढ़ लिया है। बस, मेरा तो हो गया बसंत! आपका…?

***

 

Comments

  1. इस कहानी के मोहपाश में फागुन बीतने तक रहूंगी, या यूं कहूँ कि बने रहना चाहती हूँ...प्रकृति का कितना सुरम्य चित्र उकेरा हैं आपने। मित्र आप न❣️❣️🌹🌹

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  2. वाह! अति मोहक अंदाज़, प्रकृति के सान्निध्य में मन कितना वाचाल हो जाता है न

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