सुमन केशरी से यह संवाद मात्र साक्षात्कार नहीं, एक रचनाकार की आत्मस्वीकृति है। सुमन केशरी एक ऐसी कवि हैं, जिन्होंने निःसंकोच अनेक विषयों पर कविताएँ रची हैं। वे रामायण-महाभारत के मिथकीय चरित्रों की मूल कथा को बनाए रख कर उनमें आधुनिक चेतना भर कर समसामयिक बनाने की कला में निष्णात हैं। इसी के साथ में ठेठ आधुनिक विषयों व संवेदनाओं की भी कविताएँ रचती हैं तथा कविताओं का विश्लेषण भी करती हैं। 'कथानटी' के रूप में वे न केवल कथा कहती हैं, बल्कि उसे जीती भी हैं। यह बातचीत स्मृति, संघर्ष, प्रेम, विचार और असहमति की कई परतें खोलती है। उनके लेखन में गहन सामाजिक दृष्टि, आत्ममंथन और स्त्री-स्वर की स्पष्टता है। साहित्यिक सत्ता से टकराते हुए वे अपनी मौलिकता बनाए रखती हैं। यह वार्ता हिंदी साहित्य में स्त्री की सजग, विचारशील और जिजीविषा-भरी उपस्थिति का दस्तावेजीकरण करती है। यह एक लेखिका के सतत संघर्ष और संवेदना की गाथा है। क.म. कल्पना मनोरमा ( संवादक ) सु.के. सुमन केसरी ( प्रतिसंवादक ) क.म. : आपने लिखना कब से शुरू किया? किसी की प्रेरणा से या स्वस्फूर्त। पहली कहानी/ कविता/आलोचना...
और शाम को क्षितिज पर उड़ते पखेरू उसे अपने साथ थोड़ा-सा उड़ा ले जाते हैं! कल्पना मनोरमा की शाब्दिक सड़क पर लोकचेतना की रचनाओं के सुर-ताल तब बनने आरंभ हुए, जब उन्होंने संसार को चालाकी और साफगोई से अपनी बात कहते, पर करते कुछ और देखा और सुना। अपनी कही बात से मुकर जाना कल्पना को मरने के बराबर लगता है, फिर संसार द्वारा की गई मौकापरस्ती वह कैसे सहन कर सकती थीं! इसीलिए मौखिक रूप से नहीं, तो लेखन के माध्यम से उन्होंने अपना विरोध दर्ज कराना शुरू किया। कल्पना जब से लेखन के क्षेत्र में आई हैं, उन्होंने स्वयं को किसी लेखकीय दौड़ का हिस्सा न मानकर निरंतर चलने के संकल्प के साथ मंथर गति से साहित्यिक यात्रा तय करने में सहजता महसूस की है। उनका मानना है कि हड़बड़िया लेखन न तो अधिक दूर तक जा सकता है, न ही लेखक का मन हल्का कर सकता है — और जब लेखक का मन ही हल्का न हो, तो पाठक को सहूलियत, आनंद और प्रोत्साहन कैसे मिलेगा! कल्पना मनोरमा के अनुसार लेखन एक अत्यंत ज़िम्मेदारी का विषय है, जिसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। यदि रचना समाज से उत्पन्न होती है, तो समाज के प्रति उसकी जवाबदेही भी बनत...
स्वदेश का रविवारीय स्तंभ 4 बुनियादी चिन्तन : बालिका_से_वामा स्त्री भाषा का प्रारंभ बालिका के बचपन में ही हो जाता है, जब उसका मन अबोध और जिज्ञासु होता है। इस उम्र में वह अपने आस-पास की महिलाओं जैसे माँ, दादी, नानी, बुआ, मौसी, बड़ी बहन से सीखती है। ये महिलाएँ ही उसके लिए भाषा, व्यवहार, संस्कार और स्त्रीत्व की पहली शिक्षक होती हैं। बालिका के मन में उठने वाले सवाल, उसकी जिज्ञासा, उसके भावों को समझकर और सही दिशा देकर ये महिलाएँ ही "स्त्री भाषा" के बुनियाद को मजबूत करती हैं। उनके अनुभव, बोलने का अंदाज़, भावों की अभिव्यक्ति आदि सब मिलकर बालिका की भाषा को आकार देते हैं। इसलिए, यह ध्यान देना और समझना आवश्यक है कि कैसे ये रिश्तेदार स्त्रियाँ अपनी अबोध बालिकाओं को सुनती, समझती और संभालती हैं, ताकि उनकी भाषा और व्यक्तित्व सकारात्मक और सशक्त बने। बालिका सुदृढ़ होगी तो वामा व्यवस्थित हो सकेगी। माँ भाषण नहीं,भाषा दो ...
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