और शाम को क्षितिज पर उड़ते पखेरू उसे अपने साथ थोड़ा-सा उड़ा ले जाते हैं! कल्पना मनोरमा की शाब्दिक सड़क पर लोकचेतना की रचनाओं के सुर-ताल तब बनने आरंभ हुए, जब उन्होंने संसार को चालाकी और साफगोई से अपनी बात कहते, पर करते कुछ और देखा और सुना। अपनी कही बात से मुकर जाना कल्पना को मरने के बराबर लगता है, फिर संसार द्वारा की गई मौकापरस्ती वह कैसे सहन कर सकती थीं! इसीलिए मौखिक रूप से नहीं, तो लेखन के माध्यम से उन्होंने अपना विरोध दर्ज कराना शुरू किया। कल्पना जब से लेखन के क्षेत्र में आई हैं, उन्होंने स्वयं को किसी लेखकीय दौड़ का हिस्सा न मानकर निरंतर चलने के संकल्प के साथ मंथर गति से साहित्यिक यात्रा तय करने में सहजता महसूस की है। उनका मानना है कि हड़बड़िया लेखन न तो अधिक दूर तक जा सकता है, न ही लेखक का मन हल्का कर सकता है — और जब लेखक का मन ही हल्का न हो, तो पाठक को सहूलियत, आनंद और प्रोत्साहन कैसे मिलेगा! कल्पना मनोरमा के अनुसार लेखन एक अत्यंत ज़िम्मेदारी का विषय है, जिसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। यदि रचना समाज से उत्पन्न होती है, तो समाज के प्रति उसकी जवाबदेही भी बनत...
वाह! सुंदर सृजन
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