बुद्ध न होते
कह देते यदि मन की पीड़ा
तो शायद तुम बुद्ध न होते।।
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पूजा अर्चन यज्ञ नेम जप,
करते रहते भरम उजागर
छोड़ न देते यदि तुम
घर को
तो शायद तुम शुद्ध न होते।।
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खुद को रखकर धुरी बीच में
नाप गए सबके मन आगर
अहम मार दफनाते खुद के
तो शायद फिर युद्ध न होते।।
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मन कर लेते कबिरा जैसा
लोई जैसा देह समर्पण
साँस-साँस में जपते सच को
तो शायद प्रभु क्रुद्ध न होते।।
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जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(०१-१२-२०२२ ) को 'पुराना अलबम - -'(चर्चा अंक -४६२३ ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत सुंदर रचना ,भाव प्रवण हृदय को छूती।
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