मेरी दहलीज़ पर
भोर का बालपन
घुटनों के बल चलकर आया था
उस रोज़ मेरी दहलीज़ पर
गोखों से झाँकतीं रश्मियाँ
ममता की फूटती कोंपलें
उसकने लगी थीं मेरी हथेली पर
बदलाव की उस घड़ी में
छुप गया था चाँद, बादलों की ओट में
सांसें ठहर गई थीं हवा की
बदल गया था
भावों के साथ मेरी देह का रंग
मैं कोमल से संवेदनशील
और पत्नी से माँ बन गई।
आँचल से लिपटी रातें सीली-सी रहतीं
मेरे दिन दौड़ने लगे थे
उँगलियाँ बदलने का खेल खेलते पहर
वे दिन-रात मापने लगे
सूरज का तेज विचारों में भरता
मेरा प्रतिबिम्ब अंबर में चमकने लगा
नूर निखरता भावनाओं का
मैं शीतल चाँदनी-सी झरती रही
बदल गया था
भावों के साथ मेरी देह का रंग
मैं कोमल से संवेदनशील
और पत्नी से माँ बन गई।
लेखिका: अनीता सैनी 'दीप्ति' |
शब्दों के उपहार से बड़ा और क्या हो सकता है? मेरे बड़े बेटे परीक्षित के जन्मदिन पर अनीता जी ने अपने वयस्त समय से वक्त निकाल कर स्त्री की साझी भावनाओं को कविता का रूप दिया जो एक माँ का मन महका गयी। इसके लिए आपका बहुत आभार!
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(३०-१०-२०२२ ) को 'ममता की फूटती कोंपलें'(चर्चा अंक-४५९६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
वाह वाह, सुंदर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteवात्सल्यमयी माँ का अनुपम चित्रण किया है आपने इस सुंदर रचना में, शुभकामनायें !
ReplyDeleteवाह माँ के मन की भावनाओं और वात्सल्य का अप्रतिम
ReplyDeleteचित्रण करती सुंदर रचना
आप सभी का ह्रदय से आभार!!
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