खिड़की
जब जब होती हूँ उदास
चुपचाप चली आती हूँ
खिड़की के पास
खिड़की मुझे समझाती नहीं,
बस दिखलाती है
कहीं दूर किसी सख्त डाल पर
नए अंकुरों को फूटते हुए
कोमल अंकुर में छिपी
मजबूत पत्तियाँ
नहीं देखती जमीन को
वे पलकें उठाये मचलती हैं
ऊपर की ओर
मुझे याद आता है वह गमला
जिसमें छिपाए होते हैं
मैंने मुट्ठी भर मिर्ची के बीज
लौटकर देखती हूँ तो
बीजों के अस्तित्व को उगा पाती हूँ
मिर्ची के बीज अब बीज नहीं
बन चुके होते हैं खोल
वे नवांकुरित तने से लगे ऐसे लटकते हैं
जैसे मुर्गे की गर्दन में लटकती है
पत्तेनुमा लाल झालर
क्या उगना शाश्वत है ?
क्या उगने की चाहत में
तीखापन हो जाता है विसर्जित
मैंने पूछा
हवा के साथ खिड़की बोली
उगना ही जीवन की मिठास है!
***
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(२७-०६-२०२२ ) को
'कितनी अजीब होती हैं यादें'(चर्चा अंक-४४७३ ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
वाह ! बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत बहुत सुंदर गूढ़ अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteखिड़की मुझे समझाती नहीं,
ReplyDeleteबस दिखलाती है
कहीं दूर किसी सख्त डाल पर
नए अंकुरों को फूटते हुए
बस यही सीख लें तो सकारात्मक बने रहें ...... बहुत सुन्दर
अनीता जी, मन की वीणा और संगीता स्वरूप जी के साथ अनीता सैनी जी को हार्दिक आभार!
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