तुम भरो उड़ान
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आई. ए. एस. श्रुति शर्मा अपनी माँ के साथ |
तुम हँसो!
कि मैं सहेज लूँगी
तुम्हारी खुशी अपने सूखे होठों पर
तुम बढ़ो आगे!
कि मैं छिपा लूँगी तुम्हारी
नासमझ भूलों को
अपनी समझदार हँसी के पीछे
तुम्हारे पद-चिन्हों में मिला दूँगी
थकी चाल अपनी
साँझ-किरण के आलोक में
खोलकर तुम्हारे बचपन के डिब्बे से
निकाल लूँगी तुम्हारे कहे तोतले शब्द
जो तुमने कहे थे
दूध-भात से सने होठों से
जिनकी बसावट से महकते हैं
आज भी थरथराती नींदों के
मेरे सपने
कामयाबी की भोर में
सहेजे रखना तुम अपनी संघर्ष भरी रातें
वक्त का नन्हा टुकड़ा भी
करेगा उजाला जानदार चिंगारी की तरह
तुम्हारे नीम अंधेरों में
किसी अबूझे पल में तुम ठिठकोगी
किन्तु ढूंढ लोगी झट से
अपने और मेरे लिए नया उजाला
जब होंगे तुम्हारे दिन व्यस्ताओं से भरे
तब में करूंगी
तुम्हारे उस नाइट लैंप से बातें
जो सहभागी होता था कभी
तुम्हारी एकांत रातों का
जिसने देखी हैं तुम्हारी
थकन भरी फुसफुसाहटें
जिसे तुम बहलाती थीं दिल अपना
तुम खोलो पंख अपने
की क्षितिज पर सुखाई है मैंने
वही पीली धोती
जो भिजवाई थी तेरी नानी ने
तुम्हारे होने पर
माँ का आँचल संबल होता है
निचाट अकेले में भी
तुम्हें शून्यता से भरी आकाशीय परिधि
लगेगी अपने आँगन जैसी
प्यारी बेटी!
तुम भरो उड़ान सफलता की
कि मैं तुम्हारे साथ हूँ!
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