तुम थे...

 

दूर जाते वक्त में हम थोड़े और दूर हो जाते हैं, जाने वाले रिश्तों से लेकिन मन यूं याद करता है उनको....

 

बीत रहे दिन बिन बोले ही

तुम थे तो कितनी बातें थीं।

 

मौन हो चुके सम्बन्धों को क्यों छेड़ूँ

किस लिए मनाऊँ ?

समझ नहीं आता है कारण

किस विधि छोड़ूँ,किसे बुलाऊँ ?

 

भटक रहा मन सन्नाटों में

तुम थे तो हँसती रातें थीं ।

 

गुजर गए पल ऐसे जैसे

पतझड़ में एक फूल गिरा था

और हवा के संग मचल कर

नदी छोड़ एक कूल फिरा था

 

अमलतास सा सुलग रहा मन

तुम थे तो नव बरसातें थीं।

 

प्रीति सिखाने वाले

खुद ही उसे तोड़ते दीख रहे हैं

थोड़ा-थोड़ा हम भी उनसे

रीति निभाना सीख रहे हैं

 

नेह वाटिका कुम्हलाएगी

तुम थे तो नव सौगातें थीं।

***

Comments

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(३०-१२ -२०२१) को
    'मंज़िल दर मंज़िल'( चर्चा अंक-४२९४)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. बीत रहे दिन बिन बोले ही

    तुम थे तो कितनी बातें थीं।



    मौन हो चुके सम्बन्धों को क्यों छेड़ूँ
    किस लिए मनाऊँ ?
    समझ नहीं आता है कारण
    किस विधि छोड़ूँ,किसे बुलाऊँ ?
    दर्द को बयां करती बहुत मार्मिक व हृदयस्पर्शि रचना

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  3. बहुत सुंदर सृजन,दिल को छू ग्रे शब्द शब्द।

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  4. बहुत बहुत सुन्दर सरस गीत |

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  5. आप सभी सुधी साहित्यकारों का अभिनंदन एवं आभार!

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