दिसंबर की डाल पर

 


दिसंबर की डाल पर

खिलकर चुपचाप मुरझा चुके हैं

ग्यारह फूल

मधुमक्खियाँ आईं

खेले भँवरे भी उनकी गोद में

कितना लूटा किसने

नहीं जानते

बीत चुके ग्यारह फूल

बारहवाँ फूल खिला है संकोच में

वह जानता है

उन फूलों के अवदान को

अपने प्रति

हवाएँ नाच-नाच कर सोख रही हैं

फूल का गीलापन

फिर भी बाकी है मुस्कान 

फूल के मन में

जैसे डाल पर सोई चिड़िया के परों में

बाकी बचा रहता है 

उड़ान के बाद थोड़ा-सा  

आसमान।

***

Comments

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(१६-१२ -२०२१) को
    'पूर्णचंद्र का अंतिम प्रहर '(चर्चा अंक-४२८०)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. वाह अद्भुत है कल्‍पना जी आपकी कल्‍पना ....

    जैसे डाल पर सोई चिड़िया के परों में

    बाकी बचा रहता है

    उड़ान के बाद थोड़ा-सा

    आसमान....और इस थोड़े से आसमान की मृगतृष्‍णा सदैव बनी रहती है

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  3. बहुत सुंदर रचना
    बधाई

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  4. उसी आसमान के
    एक कोने में उगेगे
    फिर से बारह तारे
    बरसभर टिमटिमायेंगे
    उम्मीदभरी
    वसुधा के आँखों में
    रचकर नये स्वप्न
    एक-एक कर
    हौले से झरेंगे
    समय की डाल पर
    नवप्रसून बन
    खिलने के लिए।
    ------
    यही तो प्रकृति के
    चक्र का सार है।
    सुंदर सृजन।
    सादर।


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  5. कितना लूटा किसने

    नहीं जानते

    बीत चुके ग्यारह फूल

    बारहवाँ फूल खिला है संकोच में

    वह जानता है

    उन फूलों के अवदान को

    वाह!!!
    ग्यारह महीने ग्यारह फूल
    लाजवाब कल्पना।

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  6. आप सभी आत्मीय लेखक मित्रों का बहुत बहुत आभार!

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  7. वाह बहुत ही मनहर अभिव्यक्ति

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