जलक्रीड़ा

ऐसा नहीं 

स्वाद उसका भी बिगड़ता है  

वह भी परखती है स्वाद अपना 

थोड़ा-सा साबुन चख कर

उतर जाती है जब

साबुन की तैलीय तिक्त गंध  

उसके नथुनों से होते हुए 

जिस्म में  

वह लोहे की बड़ी बाल्टी में भरे 

काई लगे जल में 

डुबो देती है अपनी परछाईं 

जब तक धोती है वह 

दिन-रात के गहरे दागों को

अपने शरीर से 

उसकी परछाईं करती है

जलक्रीड़ा.


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