मैं नेह पलों में डूब गई


दृग बिन्दु खिले दो आँखों में

सिंचित करने यादों के पल 

मैं नेह पलों में डूब गई 

मैं जा पहुँची अपने बचपन

 

छोड़ी बगिया जैसी मैंने 

वो अब भी वैसी थी महकी

माँ-नेह गुच्छ में उलझ गई 

मैं जा पहुँची अपने बचपन

 

माँ- बाबा वाले पौधों पर 

विकसित थे यादों के दो दल 

मधुस्मृतियों में  मैं डूब गई 

मैं जा पहुँची अपने बचपन

 

मन में रहते भाई-बहना 

करते अब भी वे ध्वनि करतल 

मैं नेह डाल पर झूल गई 

मैं जा पहुँची अपने बचपन

 

यादों के जल ने छुआ मुझे

जज़्बातों में डोली हल-चल 

ना पता चला मैं कब सोई 

मैं जा पहुँची अपने बचपन

 ***

ये गीत जैसी कविता ने तब जन्म लिया था जब मेरे हृदय में कवित्त के भाव प्रकट होना शुरू ही हुए थे. 

 

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