मन से रहती सदा सफ़र में

 

भरम जाल में भूला मौसम

तुम भी सावन वापस जाना।।

 

नदी संस्कृति वाली सूखी,

गए सूख मन ताल पोखरे

मेंहदी वाली सूखी यादें

हैं नयन कटोरे भरे-भरे

 

नहीं सुभीते हरियाले अब

उत्सव तुम ओझल हो जाना।।

 

बादल बने डाकिए फिरते

 बिना पते की चिट्ठी लेकर

मीलों चल आते दरवाज़े

जाते खाली गागर देकर

 

तने धनुक नभ कुंठाओं के

अवनी तुम भी रंग छिपाना।।

 

कैसी होगी सरहद उसकी

जिस धरती ने सौंपा बाना

मन से रहती सदा सफ़र में

लेकिन मिलता नहीं ठिकाना 

 

पूजा विनती साँझ-सकारे

उर में थोड़ी धीर बंधाना।।

***

Comments

  1. अहा सुंदर अभिव्यक्ति

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१७-०७-२०२१) को
    'भाव शून्य'(चर्चा अंक-४१२८)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  3. मेंहदी वाली सूखी यादें
    हैं नयन कटोरे भरे-भरे
    सुंदर सृजन

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  4. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति

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  5. कैसी होगी सरहद उसकी

    जिस धरती ने सौंपा बाना

    मन से रहती सदा सफ़र में

    लेकिन मिलता नहीं ठिकाना ---गहन लेखन।

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  6. अति मनभावन कृति ।

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  7. वाह! सुंदर नव गीत सुंदर व्यंजनाएं।

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  8. बहुत बहुत धन्यवाद आप सभी मित्रों को। सादर

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  9. बहुत ही सुंदर नवगीत,सादर

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