मन से रहती सदा सफ़र में
भरम जाल में भूला मौसम
तुम भी सावन वापस जाना।।
नदी संस्कृति वाली सूखी,
गए सूख मन ताल पोखरे
मेंहदी वाली सूखी यादें
हैं नयन कटोरे भरे-भरे
नहीं सुभीते हरियाले अब
उत्सव तुम ओझल हो जाना।।
बादल बने डाकिए फिरते
बिना पते की
चिट्ठी लेकर
मीलों चल आते दरवाज़े
जाते खाली गागर देकर
तने धनुक नभ कुंठाओं के
अवनी तुम भी रंग छिपाना।।
कैसी होगी सरहद उसकी
जिस धरती ने सौंपा बाना
मन से रहती सदा सफ़र में
लेकिन मिलता नहीं ठिकाना
पूजा विनती साँझ-सकारे
उर में थोड़ी धीर बंधाना।।
***
अहा सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१७-०७-२०२१) को
'भाव शून्य'(चर्चा अंक-४१२८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
मेंहदी वाली सूखी यादें
ReplyDeleteहैं नयन कटोरे भरे-भरे
सुंदर सृजन
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteकैसी होगी सरहद उसकी
ReplyDeleteजिस धरती ने सौंपा बाना
मन से रहती सदा सफ़र में
लेकिन मिलता नहीं ठिकाना ---गहन लेखन।
सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteअति मनभावन कृति ।
ReplyDeleteवाह! सुंदर नव गीत सुंदर व्यंजनाएं।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आप सभी मित्रों को। सादर
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर नवगीत,सादर
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