वसंती पवन का झकोरा
नहीं दे सकूँगा मैं झूठी दिलासा
वसंती पवन का झकोरा नहीं हूँ।।
जहाँ तक चलोगे चलूँगा मैं पीछे
मगर रास्ता खुद ही चुनना पड़ेगा
नहीं कोई गहना बनाता है ऐसे
गलाओगे ताँवा तो मीना जड़ेगा
पानी में पड़ते ही गल जाए क्षण में
माटी का मैं वो सकोरा नहीं हूँ |।
आधार होता है प्रतिबिंब का भी
सतह, सिंधु की हर लहर चाहती है
बनोगे जो हमराज घुलकर पवन के
तो पल में वो कोसों सिफत नापती है
पढ़ोगे तो लिक्खा मिलेगा सभी कुछ
इतना भी कागज मैं कोरा नहीं हूँ ।।
पतझार में जो भी गिरते हैं पत्ते
शाखों पे उनको भरोसा नहीं है
पाजेब को दर्द होता है दिल में
आँखों में आँसू को पोषा नहीं है
माला में मनका सुमेरू हूँ लेकिन
रेशम का कमज़ोर डोरा नहीं हूँ।।
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