कच्ची-कच्ची धूप

 

सरसों के दामन से लिपटी

मन से कच्ची-कच्ची धूप ।।

 

बूढ़ा जाड़ा मोह पाँस में

दिन को जकड़े रहता

काँख गुदगुदी करता सूरज,

दिन किलकारी भरता

 

कभी फिसलती कभी सम्हलती

करती माथा-पच्ची धूप ।।

 

चारों ओर देख बदहाली

मन उसका घबराता

बरसा जब करती मनमानी

सिर उसका चकराता

 

किरन-किरन को चुन-चुन देती

सबको, सच्ची -सच्ची धूप।।

 

आसमान की छत वालों को

चुटकी काट हँसाती

आएगा ऋतुराज जल्द ही

चिट्ठी बाँच सुनाती

 

खुशियों की चादर में बुनती

खुद को लच्छी-लच्छी धूप।।

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