दुःख
घर बनाने वाले ने बनाया घर
पूरे होश-ओ-हवास में
लगाए दरवाज़े और खिड़की
सजाये अंटियां पर कँगूरे
शान-ओ-शौक़त के
बनाया छोटा-सा बगीचा
मजूरी पाने से ज़्यादा की मेहनत
घर बनाने वाले ने
घर बनवाने वाला
फिर भी ढूँढ रहा है लगातार
एक ऐसा दरवाज़ा उसी घर में
जिससे वह निकल सके
पूरी ख़ुशी और चिंता के 'जीरो' के साथ
दुनिया के सबसे जरूरी
दूसरे कामों पर
और जब आये लौटकर तो टाँग सके
थकान का थैला
दरवाज़े की ठीक बाईं ओर
खिड़की की ओट ले दाईं ओर
सूखती रहे धूल,मिट्टी,जलन और प्रतिस्पर्धा से मुक्त
मेहनत के पसीने से गीली कमीज़ उसकी
अपनत्व भरी हवा की हिलोरों से
और वह सोता रहे
दरवाज़े के थोड़ा भीतर
चैन बिछाकर सपनों के संग
तारों की घनी छाँव के नीचे
आँगन के बीच-ओ-बीच
ऐसा हो होकर भी
हो न सका
घर उदास है
बनाने वाला भी
बनवाने वाला भी
हाँ,देखने वाला खुश है
इतनी हाय हुज्जत के बाद भी
घर है कि बने जा रहा है
जंगलों की छातियों पर
अब चिड़िया भी हो जाएगी शामिल
जल्द ही हमारे दुख में ।
***
बढ़िया
ReplyDeleteSuper
ReplyDeleteCongratulations for this poetry
बहुत भावपूर्ण।
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (३१-१०-२०२०) को 'शरद पूर्णिमा' (चर्चा अंक- ३८७१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
अनीता सैनी
आप सभी सुधी जनों को धन्यवाद !!
ReplyDeleteभावपूर्ण सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत भाव संवेदनाओं की ओढ़नी वाह।
ReplyDeleteवाह बहुत गहरी बात .. इसीलिये कवि नवीन कहते हैं ---"हम क्यों सनें ईंट गारे में , हम क्यों बनें व्यर्थ ही बेमन, हम अनिकेतन ..."
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