(मेरे मन का गीत )

 

लौट कर बादल चले हैं

गाँव अपने

आसमानी-सा धरा का

मन हुआ है ।

 

तितलियाँ उड़ने लगीं 

अब क्यारियों की मेंड़ पर

है अश्व दौड़ा पवन का उठ

चाँदनी की एड़ पर

ओस डूबा शुभ्र आँचल

भोर योगी ने पसारा

दल कमल चंचल हुए

सजने लगा पोखर किनारा

 

मखमली-सी पत्तियाँ भी

सज गईं तरु

रंग धानी-सा धरा का

मन हुआ है ।

 

मोहनी सी-बाँसुरी बजने

लगी है बाँस वन में

एक कौतूहल हिलोरें 

मारता है कृषक तन में

थपकती पुरवा लजीली

घुँघटों के रूप को

दिन निहोरा रश्मियों ने

हाथ में ले सूप को

 

द्वार प्राची ने उघारा,

है जतन से

जाफ़रानी-सा धरा का

मन हुआ है ।

***

Comments

  1. रचना मनभावन और सारगर्भित लगी...प्रकृृृृृृति शब्दोंं बँधी होने का आभास कराती प्रतीत होती है।

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