आत्मकथ्य



और शाम को क्षितिज पर उड़ते पखेरू उसे अपने साथ थोड़ा-सा उड़ा ले जाते हैं!

कल्पना मनोरमा की शाब्दिक सड़क पर लोकचेतना की रचनाओं के सुर-ताल तब बनने आरंभ हुए, जब उन्होंने संसार को चालाकी और साफगोई से अपनी बात कहते, पर करते कुछ और देखा और सुना। अपनी कही बात से मुकर जाना कल्पना को मरने के बराबर लगता है, फिर संसार द्वारा की गई मौकापरस्ती वह कैसे सहन कर सकती थीं! इसीलिए मौखिक रूप से नहीं, तो लेखन के माध्यम से उन्होंने अपना विरोध दर्ज कराना शुरू किया।

कल्पना जब से लेखन के क्षेत्र में आई हैं, उन्होंने स्वयं को किसी लेखकीय दौड़ का हिस्सा न मानकर निरंतर चलने के संकल्प के साथ मंथर गति से साहित्यिक यात्रा तय करने में सहजता महसूस की है। उनका मानना है कि हड़बड़िया लेखन न तो अधिक दूर तक जा सकता है, न ही लेखक का मन हल्का कर सकता है — और जब लेखक का मन ही हल्का न हो, तो पाठक को सहूलियत, आनंद और प्रोत्साहन कैसे मिलेगा!

कल्पना मनोरमा के अनुसार लेखन एक अत्यंत ज़िम्मेदारी का विषय है, जिसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। यदि रचना समाज से उत्पन्न होती है, तो समाज के प्रति उसकी जवाबदेही भी बनती है। हालांकि वह यह भी मानती हैं कि कविता किसी समाज सुधारक या तानाशाह की तरह समाज में कार्य नहीं करती, लेकिन वह मौन भी नहीं रहती। कविता पाठक के हृदय की भीतरी सतह को तरंगित कर धीरे-धीरे उसे अपने तथा समाज के प्रति उत्तरदायी बनाती है और निडर होकर जीने की प्रेरणा देती है।

कल्पना के जीवन की बुनावट में सबसे बड़ा हाथ अगर किसी का है, तो वह है उनकी माँ — मनोरमा का। उन्होंने अपनी बेटी के जीवन को संवारने में अर्जित पुन्यप्रेम के साथ-साथ तमाम संवेदनात्मक अनुभवों, आत्मविश्वास, साहस, धैर्य, लगन, कर्मठता और आत्मसम्मान जैसे गुणों का उपयोग निश्चित ही किया होगा — ऐसा उनके आसपास के लोग अक्सर उन्हें बताते हैं।

कल्पना को अपनी माँ की कही एक बात अत्यंत प्रिय है — “कार्य को बहुत सजगता से करो। यदि फिर भी गलती हो जाए, तो व्यक्ति को सहजता से उसे स्वीकार करना चाहिए। उसके लिए झूठे साक्ष्य जुटाना, समय को व्यर्थ करना और स्थिति को उलझाकर विवाद उत्पन्न करना अनुचित है। हाँ, यह कोशिश अवश्य होनी चाहिए कि वह गलती दोबारा न हो।”
कल्पना स्वयं को अपनी माँ की परिकल्पना मानती हैं — उनके बिना उनका रेत के कण जितना भी अस्तित्व नहीं।


कल्पना मनोरमा : जीवन परिचय

कल्पना मनोरमा का जन्म 04 जून, 1972 को उत्तर प्रदेश के इटावा जनपद में हुआ। उन्होंने कानपुर विश्वविद्यालय से संस्कृत व हिंदी में स्नातकोत्तर तथा हिंदी में बी.एड. किया। उन्होंने माध्यमिक विद्यालय में बीस वर्षों तक हिंदी-संस्कृत विषयों की अध्यापन सेवा दी। इसके पश्चात कुछ वर्षों तक नोएडा स्थित एक अकादमिक प्रकाशन संस्थान में वरिष्ठ संपादक व हिंदी काउंसलर के रूप में कार्यरत रहीं। वर्तमान में वे पत्रकारिता और स्वतंत्र लेखन में संलग्न हैं।

प्रकाशित रचनाएँ

  • कब तक सूरजमुखी बनें हम (कविता संग्रह)

  • बाँस भर टोकरी (कविता संग्रह)

  • नदी सपने में थी (कविता संग्रह)

  • अँधेरे को उजाला मत कहो (कविता संग्रह)

  • एक दिन का सफर (कहानी संग्रह)

  • माँ से माँ तक (कविता संग्रह)

  • गईं सदी की स्त्रियाँ (कविता संग्रह)

  • एकांत में मैं (दर्शन से जुड़ी कविताओं का संग्रह – प्रकाशनाधीन)

इसके अतिरिक्त, पुरुष-पीड़ा जैसे विशेष संदर्भों पर केंद्रित दो कथा संकलनों — काँपती हुईं लकीरें और सहमी हुईं धड़कनें — का संकलन और संपादन भी उन्होंने किया है।
उनकी कहानियों का पंजाबी, उर्दू और उड़िया में अनुवाद भी प्रकाशित हो चुका है।

विशेष उल्लेखनीय तथ्य

  • महाराष्ट्र के संत गाडगे बाबा अमरावती विश्वविद्यालय के बी.कॉम प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम (NEP-2020) में उनका निबंध “सूचनाओं के दौर में हँस विवेक की दरकार” और कहानी “पहियों पर परिवार” सम्मिलित हैं।

  • उनकी कहानी “हँसो, जल्दी हँसो” को ‘स्वस्थ जीवन साहित्य’ प्रोजेक्ट में शामिल किया गया है।

सम्मान व पुरस्कार

  • सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ सम्मान

  • लघुकथा लहरी सम्मान

  • आचार्य सम्मान

  • काव्य प्रतिभा सम्मान

  • साहित्य समर्था टिक्कू पुरस्कार (कहानी “पिता की गंध” के लिए)

  • कथा समवेत द्वारा धनपति देवी पुरस्कार (कहानी “कोचिंग रूम” के लिए)

संपर्क:
✉️ kalpanamanorama@gmail.com


Comments

  1. बेहतरीन अभिव्यक्ति का का आधार अनुवांशिक है। बहुत बधाई सादर स्नेह सहित

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  2. शुभकामनाएं लेखन के लिये।

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  3. आप सभी सुधी जनों को हार्दिक अभिवादन और आभार !

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  4. रचनाकार का मन यदि टटोलना हो तो उसकी रचनाओं की छानबीन सिरे से की जानी चाहिए...उसकी रचनाओं में बहुत नहीं तो कुछ न कुछ वह स्वयं ज्यों का त्यों मिल जाएगा.
    बिलकुल सही कहा आपने।
    जीवन के विभिन्न मोड़ो से कैसे जिंदगी पहाड़ी नदी के समान ऊबड़-खाबड़ और टेड़े-मेढ़े राहों से आगे बढ़ती चली जाती हैं, यह बहुत समय बीत जाने के बाद समझ आता है।

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