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कल्पना मनोरमा का साहित्यिक परिचय

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कल्पना मनोरमा जन्म: 4 जून 1972, इटावा (उत्तर प्रदेश) शिक्षा: संस्कृत एवं हिंदी में स्नातकोत्तर (कानपुर विश्वविद्यालय), हिंदी में बी.एड. कल्पना मनोरमा का साहित्यिक व्यक्तित्व कविता, कहानी, नवगीत, निबंध व लेख, साक्षात्कार और संपादन जैसे विविध क्षेत्रों में सक्रिय लेखन कर रही है। लगभग दो दशकों तक उन्होंने हिंदी और संस्कृत का अध्यापन करते हुए माध्यमिक शिक्षा जगत में योगदान दिया। इसके उपरान्त शैक्षिक प्रकाशन संस्थानों में वरिष्ठ संपादक और हिंदी काउंसलर के रूप में कार्य किया। वर्तमान में वे स्वतंत्र लेखन, संपादन और पत्रकारिता में सक्रिय हैं। प्रकाशित रचनाएँ कविता-संग्रह: कब तक सूरजमुखी बनें हम (नवगीत संग्रह), बाँस भर टोकरी, नदी सपने में थी, अँधेरे को उजाला मत कहो कहानी-संग्रह: एक दिन का सफ़र साक्षात्कार-संग्रह: संवाद अनवरत देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं एवं पत्र-पत्रिकाओं में सतत लेखन व प्रकाशन (कहानियाँ, कविताएँ, लेख) संपादन कार्य पुरुष-पीड़ा विषयक चर्चित कथा-संग्रह : काँपती हुईं लकीरें, सहमी हुईं धड़कनें पंजाबी, उर्दू और उड़िया में कहानियां अनूदित वर्तमान में लोकरंजन और लोकसंघर्ष विषय पर कथा...

करवाचौथ : स्त्री के भीतर की सजग प्रेम यात्रा

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करवाचौथ : स्त्री के भीतर की सजग प्रेम यात्रा — कल्पना मनोरमा आज तक करवाचौथ को सामान्यतः “पति की दीर्घायु” के लिए किए जाने वाले व्रत के रूप में ही देखती और मानती आ रही थी। पर आज जब व्हाट्स स्टेटस और इंस्टा रील्स में स्त्रियों की मेंहदी-रची हथेलियाँ देखीं, तो मन में एक प्रश्न कौंधा — क्या यह व्रत स्त्री केवल पति की दीर्घायु के लिए करती है? फिर जब इस पूरे वाकये को स्त्री-दृष्टि से देखा, तो एहसास हुआ कि यह व्रत दरअसल स्त्री के स्वयं के अस्तित्व, अपने प्रति प्रेम की परिभाषा और सौंदर्यबोध की पुनर्पुष्टि का भी उत्सव है। जब स्त्री सुबह से बिना कुछ खाए-पिए, संयमपूर्वक सोलह श्रृंगार और पूजा की तैयारी करती है, तो वह केवल पति के जीवन की रक्षा हेतु ही नहीं, बल्कि अपने भीतर के प्रेम, धैर्य और सौंदर्य की ऊर्जा को भी पुनः जागृत कर रही होती है। व्रत अनुष्ठान के प्रति किए गए संयम में कहीं न कहीं एक गहरी प्रतीकात्मकता छिपी है। व्रत स्त्री के भीतर के “अधैर्य” को शांत करने की साधना है। वह अपनी भूख और प्यास को थामकर जीवन के प्रति अपनी दृढ़ता को पुनः परिभाषित करती है। वह जानती है कि प्रेम केवल प...

खेल, खिलौना या काँटों का बिछौना

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खेल, खिलौना या काँटों का बिछौना — कल्पना मनोरमा बचपन को सहज विकसित करने की सबसे हार्दिक विधि "खेल" होती है। लेकिन स्त्रैण शिशु के लिए यह सहज प्राप्य नहीं। जिस उम्र में उसके हाथों में गुड़िया होनी चाहिए, सयाने लोग परंपराओं की मशीन पर चढ़ाकर मर्यादा की बखिया लगाने लगते हैं। बच्ची के खिलौने, उसके खेल, यहाँ तक कि उसकी हँसी भी परिवार और समाज की निगाहों में खटकने लगती है। संस्कारों के नाम पर कूटनीतियों का धीमा ज़हर उसके “खेलों” का अर्थ बदल देता है। और इस मुहिम की अगुआई प्रायः उसकी सगी स्त्रियाँ ही करती हैं। अबोध बच्ची जब हाथ–पाँव फैलाकर संसार को अंगीकार करना सीख रही होती है, उस समय भी उसे स्वतंत रूप से हाथ पैर चलाने नहीं दिए जाते। “बच्ची है, इसके पाँवों को जोड़ कर रखो।” “चित लेटी स्त्री अच्छी नहीं लगती, करवट लेकर लेटना सिखाओ।” जैसे जुमलों के साथ उसे चादर से ढक दिया जाता है। इसी के साथ उसके उमंग की इतिश्री हो जाती है। इस तरह स्त्रैण खेल और खिलौने की पृष्ठभूमि पर एक अदृश्य बंदिशों का बिछौना तैयार होता है। जबकि बिछौना आराम और सहूलियत का होना था, हो काँटों का जाता है, दुःख ...

विवेकहीन दान, मन की थकान

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विवेकहीन दान, मन की थकान – कल्पना मनोरमा उदार होना क्या सचमुच मनुष्य होने की पहचान है? या यह कहीं-कहीं हमारे निर्णयहीन होने का आवरण बन जाता है? हम अक्सर दूसरों की अपेक्षाओं और सामाजिक छवियों के दबाव में अपने ‘ना’ को बिना एहसास के निगल जाते हैं, और ‘हाँ’ कहते हुए थकते नहीं। यह थकान केवल शरीर की नहीं, आत्मा की होती है—जो भीतर के संतुलन को धीरे-धीरे खोखला कर देती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (2019) के अनुसार, लगातार भावनात्मक दबावों के बीच जीने से व्यक्ति की कार्यक्षमता ही नहीं, आंतरिक ऊर्जा भी खो देता है। इसी स्थिति को युवाओं की दुनिया में "थकावट या जड़ता" कहा जाता है। क्या कभी हमने अपने उस सूक्ष्म विवेक की खोज की है, जो यह तय कर सके कि कहाँ “अपना होना” देना, पुण्य होगा और कहाँ वह आत्महीनता में ढलकर व्यर्थ का कार्य? यह आत्मदर्शी दृष्टि ही हमें सिखा सकती है कि क्या हमारी उदारता सचमुच समझ से जुड़ी है या बस एक आदतन लाचारी है? माने कोई हमें चाह ही ले। कोई देखकर मुस्कुरा ही दे। कोई अपने समूह में शामिल कर ही ले। आखिर क्यों? क्या कोई इस ‘क्यों’ नामक ध्रुवांत पर रुककर खुद से प...

नवलता के परे स्त्री-जीवन

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नवरात्रि शक्ति की उपासना का पर्व है। नौ दिनों तक हम देवी के विविध रूपों की आराधना करते हैं। कभी उन्हें बालिका मानकर पूजते हैं तो कभी योद्धा, कभी करुणामयी माँ, तो कभी सिद्धिदात्री शक्ति। माता का हर रूप हमें यह सिखाता है कि स्त्री जीवन का प्रत्येक पड़ाव पूजनीय है। किंतु यह कैसी विडंबना है कि जिन देवी के प्रत्येक रूप को हम मान देते हैं, और स्त्रियों से अपेक्षा की जाती है कि वे सदैव नवल किशोरी रूप में बनी रहें। समाज का दबाव यह है कि स्त्री चाहे पचास की हो या सत्तर की, मगर दिखे वह बीस की नहीं, सोलह साला। उसकी त्वचा पर झुर्रियाँ न आएँ, उसकी चाल में थकान न दिखे, उसकी आवाज़ में परिपक्वता की गूँज न सुनाई दे। यह सब क्यों? ताकि भोग की दृष्टि आलोकित हो सके। क्योंकि सदियों से स्त्री को मनुष्य के रूप में नहीं, देह के रूप में देखने की आदत इतनी गहरी है कि स्त्रियों के लिए उम्र छिपाना एक सामाजिक सर्वमान्य संस्कृति बन गई। जबकि विकास के दरमियान अब इस विचार को भी विकसित होना चाहिए। इसलिए आवाह्न करती हूं कि सुनो स्त्रियो! जब कोई तुमसे उम्र पूछे तो तुम सही-सही बताया करो। उम्र का तकाज़ा बुद्धि से...

आख़िर सिक्कों की खनक में क्यों खोती जा रही हँसी

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                                                             "मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे..." सुमित्रानंदन पंत की यह कल्पना जितनी मासूम उनके लिए थी, उतनी ही तब के माता-पिता के लिए भी होती थी। मगर आज का मनुष्य छुटपन से ही इस कल्पना को मन के मोद के लिए नहीं, जीवन-स्तर ऊँचा रखने के लिए साकार करने में कठोर से कठोर प्रयत्न में जुट जाता है। आज का समाज केवल और केवल पैसे 'उगाने' की बात सोचता, कहता और महसूस करता है। बचपन से ही व्यक्ति को होश नहीं रहता कि उसकी चाल कब बिगड़ी और कब वह मानवीय पावदान से खिसक कर जहन्नुम में जा गिरा है। विगत सदी में प्रसिद्ध कवि की इस कविता को कभी मौज मस्ती में पढ़कर हँस लिया करते थे, मगर अब वही कविता समय पर एक गहरा व्यंग्य उकेरती है। आज हर ओर दौड़ ही नहीं, अंधी दौड़ है। नौकरी, व्यवसाय, सोशल मीडिया, ब्रांडेड जीवन जीने की दौड़ में व्यक्ति सही गलत कुछ नहीं छोड़ता। यहाँ तक कि अपनी माटी की गरिमा को अप...

स्त्री: सभ्यता की सहेली

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सभ्यता केवल इमारतों, तकनीकों या साम्राज्यों की भव्यता से नहीं, बल्कि उसका सच्चा रूप तब प्रकट होता है जब मनुष्य अपनी आदिम वृत्तियों, भय, स्वार्थ और हिंसा, से ऊपर उठकर करुणा, सहयोग और सृजनशीलता की ओर अग्रसर होता है। यही वह बिंदु है जहाँ सभ्यता मात्र बाहरी संरचना न रहकर संस्कृति का रूप लेने लगती है। इस विकास-यात्रा में स्त्री का योगदान मौन किंतु अत्यंत गहरा रहा है। स्त्री सभ्यता की केवल दर्शक नहीं, बल्कि एक सहेली, संवाहिका और उसकी आत्मा की तरह रही है। आदि काल से ही स्त्री ने जीवन को अपने कोमल स्पर्श से दुलराया है। शिशु की पहली मुस्कान में उसकी ममता झलकती है, घर की पहली किलकारी में उसकी गुनगुनाहट समाई है, समाज की पहली वाणी में उसकी लोरी की गूँज है। वह हर बार जीवन को दिशा देती आई है। कभी माँ बनकर सुरक्षा और पोषण प्रदान करती है, कभी साथी बनकर सहयात्रा और संबल देती है, तो कभी सृजनशील आत्मा बनकर नए विचारों, नए रूपों और नए संस्कारों का बीजारोपण करती है। स्त्री ने ही जीवन को अस्तित्व से अनुभव, और साधन से साधना तक की यात्रा कराई है। यदि हम इतिहास की पगडंडियों पर लौटें तो स्पष्ट दिखाई ...