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सुंदर लड़के

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सुनो सुंदर लड़के  सुंदर होना निजी उपलब्धि की तरह  मत देखा करो यह एक साँझी घटना है जिसमें तुम्हारा कम, एक स्त्री का जागना ज्यादा  मानीखेज बन पड़ा है जब दर्पण के सामने खुद पर मुग्ध होने का मन करे, तो ठहर जाया करो याद किया करो  नींद भरी उन आँखों को, तुम्हारी आँखों में  ठहर सके चमक  भूली रही थीं सोना  उम्र के विस्तार भर  और ये भी कि बुरी नज़र  सिर्फ़ तुम्हें ही नहीं लगती उन हाथों को भी लगती है जो रह गए तुम्हारे पीछे जब करे मन  अपने अस्तित्व पर इतराने का लगा लिया करो चुपके से  स्मृति का काला टीका कान के पीछे सुंदर होने की न्यूनतम नैतिकता  थामें रहेगी तुम्हारा हाथ। कल्पना मनोरमा

मैं पेड़ होना चाहती हूँ

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मन यूँ करता है अब  कि कुछ दिन ही सही  न भूख लगे, न प्यास की उठे कोई पुकार  देह अपना बोझ ख़ुद ही उतार कर फेंक दे और मैं सिर्फ़ स्वांस भर रह जाऊँ न बच्चों को चुगाने की चिंता हो, न समय के दाँत काटने का डर यह इनकार नहीं है जीवन से, बस पल भर के लिए शोर से बाहर आना चाहती हूं मैं उस पेड़ पर रहना चाहती हूँ जहां जड़ें उसकी हों, और भरोसा मेरा  जहाँ हर प्रश्न का उत्तर फल की तरह नहीं, छाया की तरह उतरे मेरे भीतर मैं किताब में खोना चाहती हूँ अक्षरों के बीच अपना नाम भूलकर पन्ने पलटते हुए सबसे बुरी कथा की किरदार बन पाठकों की आँखों में  झांकना चाहती हूँ  चिड़ियों से बातें करना चाहती हूँ— बिना अर्थ का बोझ ढोए जो जानती हैं चिड़ियां  सीखना चाहती हूँ  और उन्हें बताना चाहती हूँ कि  उड़ान कोई उपलब्धि नहीं, एक सहज आदत है हवा में उड़ना चाहती हूँ बिना दिशा,बिना मंज़िल जहाँ से लौटना अनिवार्य न हो और ठहरना अपराध न बने किसी अनजाने जंगल में  खो जाना चाहती हूँ  मैं ख़ुद को थोड़ी देर जीने देना चाहती हूँ  मैं पेड़ होना चाहती हूँ। कल्पना मनोरमा

मां की स्मृति में

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माँ की आँखें मामूली नहीं थीं। उनकी चिंतनधारा ने मुझे विचारों की समृद्ध विधि सौंपी है। आपके होने के आगे मेरा होना हमेशा नतमस्तक रहेगा। मलाल बस इतना, मैं ही वह न दे पाई जो एक स्त्री को दूसरी स्त्री को देना चाहिए। यह स्वीकार आज भी भीतर कहीं ठहरा रहता है।  मां का जीवन साहित्यिक नहीं था। पर सोच साहित्यिक थी। अब सोचती हूँ तो लगता है कि आप एक किरदार की तरह थीं। उत्साह और जिजीविषा से भरीं। आप साधारण स्त्री तो बिल्कुल नहीं थीं। न सोच में। न व्यवहार में। न भाषा में। न जीवन में। आप असाधारण थीं। मां ने अपने कार्यान्वयन से वह सिखाया जो साधारण स्त्री सोच नहीं सकती। मां ने सिखाया सामने चाहे पुरुष हो या स्त्री बात दोनों से की जा सकती है। झेंपने की की जरूरत नहीं। मैंने आपसे ही अपनी देह यानी स्त्री-देह से विरक्त और आत्मा में स्थिर रहना सीखा। मैंने आपसे अपनी परिधि को बड़ा बनाना सीखा। मैंने आपसे अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत रहना सीखा। साथ ये भी सीखा कि जो रिश्ते संवेदना रहित होकर उपयोग करने लगें, उन्हें त्यागना ही उचित है। आपके सिखाए हुए रास्ते पर चलते हुए कई कई बार मैं खुद को परेशानियों स...

मैं अपने प्रेम में हूँ

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मैं अपने प्रेम में हूँ ।। कल्पना मनोरमा  जो बात कहने जा रही हूँ, देखो—तुम चौंकना मत हालाँकि, यह बात कुछ चौंकाने जैसी ही है। हो सकता है तुम्हें यह उतनी खास न लगे, मगर बड़ी कठिनाई से समझ आई है  यह बात मुझे इसीलिए बेहद खास है मेरे लिए बात ये है कि मैं अपने प्रेम में हूँ यही विशेष है, और यही मुझमें अपने भर  बचाए हुए है शेष जब मन में जीने का भाव उठा, तभी यह विचार भी पहले-पहल आया खुद से प्रेम करना माने ज़िंदा बने रहना  या ज़िंदा रहने के लिए खुद से प्रेम करना… इसका मतलब नहीं पता बस इतना जान गई हूँ  कि मैं अपने प्रेम में हूँ और यह जान लेना ही मुझे राहत दे रहा है।

बूढ़ी होती स्त्री

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बात ये नहीं कि मैं बूढ़ी हो रही हूँ बात ये है कि मैं सुंदर हो रही हूँ धुंधलाई आँखों में जीवन के रंग अब दिखते हैं अपने सबसे मौलिक स्वरूप में साथी की कही हर बात में ढूँढ़ लेती हूँ कुछ अपने योग्य अर्थ; बिगड़ी बात पर अब घबराहट नहीं होती बातों के मायने तुरंत नहीं बदलती— सारे अर्थ उधारी खाते में डिपॉज़िट कर देती हूँ कभी फुर्सत में समझने को आँखों के नीचे उभर आई महीन रेखाएँ कभी दुलराती हैं मुझे, कभी सच का पानी बनकर आँखें साफ कर जाती हैं घर से निकलते हुए अब आईने की नहीं घड़ी और छड़ी की याद रहती है समय के साथ कदम मिलाकर चलने में एक अनोखा आनंद है और आनंद है जीवन के अंतिम शब्दनाद को धीरे-धीरे अपने भीतर  उतरते हुए देखने में। कल्पना मनोरमा

कल्पना मनोरमा का साहित्यिक परिचय

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कल्पना मनोरमा जन्म: 4 जून 1972, इटावा (उत्तर प्रदेश) शिक्षा: संस्कृत एवं हिंदी में स्नातकोत्तर (कानपुर विश्वविद्यालय), हिंदी में बी.एड. कल्पना मनोरमा का साहित्यिक व्यक्तित्व कविता, कहानी, नवगीत, निबंध व लेख, साक्षात्कार और संपादन जैसे विविध क्षेत्रों में सक्रिय लेखन कर रही है। लगभग दो दशकों तक उन्होंने हिंदी और संस्कृत का अध्यापन करते हुए माध्यमिक शिक्षा जगत में योगदान दिया। इसके उपरान्त शैक्षिक प्रकाशन संस्थानों में वरिष्ठ संपादक और हिंदी काउंसलर के रूप में कार्य किया। वर्तमान में वे स्वतंत्र लेखन, संपादन और पत्रकारिता में सक्रिय हैं। प्रकाशित रचनाएँ कविता-संग्रह: कब तक सूरजमुखी बनें हम (नवगीत संग्रह), बाँस भर टोकरी, नदी सपने में थी, अँधेरे को उजाला मत कहो कहानी-संग्रह: एक दिन का सफ़र साक्षात्कार-संग्रह: संवाद अनवरत देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं एवं पत्र-पत्रिकाओं में सतत लेखन व प्रकाशन (कहानियाँ, कविताएँ, लेख) संपादन कार्य पुरुष-पीड़ा विषयक चर्चित कथा-संग्रह : काँपती हुईं लकीरें, सहमी हुईं धड़कनें पंजाबी, उर्दू और उड़िया में कहानियां अनूदित वर्तमान में लोकरंजन और लोकसंघर्ष विषय पर कथा...

करवाचौथ : स्त्री के भीतर की सजग प्रेम यात्रा

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करवाचौथ : स्त्री के भीतर की सजग प्रेम यात्रा — कल्पना मनोरमा आज तक करवाचौथ को सामान्यतः “पति की दीर्घायु” के लिए किए जाने वाले व्रत के रूप में ही देखती और मानती आ रही थी। पर आज जब व्हाट्स स्टेटस और इंस्टा रील्स में स्त्रियों की मेंहदी-रची हथेलियाँ देखीं, तो मन में एक प्रश्न कौंधा — क्या यह व्रत स्त्री केवल पति की दीर्घायु के लिए करती है? फिर जब इस पूरे वाकये को स्त्री-दृष्टि से देखा, तो एहसास हुआ कि यह व्रत दरअसल स्त्री के स्वयं के अस्तित्व, अपने प्रति प्रेम की परिभाषा और सौंदर्यबोध की पुनर्पुष्टि का भी उत्सव है। जब स्त्री सुबह से बिना कुछ खाए-पिए, संयमपूर्वक सोलह श्रृंगार और पूजा की तैयारी करती है, तो वह केवल पति के जीवन की रक्षा हेतु ही नहीं, बल्कि अपने भीतर के प्रेम, धैर्य और सौंदर्य की ऊर्जा को भी पुनः जागृत कर रही होती है। व्रत अनुष्ठान के प्रति किए गए संयम में कहीं न कहीं एक गहरी प्रतीकात्मकता छिपी है। व्रत स्त्री के भीतर के “अधैर्य” को शांत करने की साधना है। वह अपनी भूख और प्यास को थामकर जीवन के प्रति अपनी दृढ़ता को पुनः परिभाषित करती है। वह जानती है कि प्रेम केवल प...