एक दिन का सफ़र
वह रविवार की ढलती हुई रात थी। सपना गहरी नींद में सो रही थी। “... भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करे….! ” आरती के बोल , घंटी की घनघनाहट , स्नान करने के लिए एक-दूसरे की बुलाहट…। अचानक उसके कानों में गूँजने लगी। थकान से भरी नींद में सपना ने कसमसा कर तकिए से कान दबा लिए। आवाज़ें फिर भी आती रहीं। उनींदा दिमाग़ अपनी वैचारिक रौ में चलने लगा— “ कितनी बार कहा— इस बस्ती को छोड़ दो…लेकिन नहीं….। जयंत साहब आलस के पुतले जो ठहरे। कौन घर खोजेगा … ? पड़े हैं बाप-दादाओं के घर में…। जहाँ न पार्क हैं , न पार्किंग। सारे मकान कान से कान सटाए बैठे हैं। बच्चे घर के अंदर गुल्ली डंडा खेलें या बंदरों की तरह लटके रहें खिड़कियों में…। परवाह किसे है.. ? न जयंत को फर्क पड़ता है , और पड़ोसी तो माशेअल्लाह हैं ही। रोज सुबह चार बजे से घंटी टनटनाने बैठ जाते हैं। भूल जाते हैं कि बगल के घर में , कोई हारा-थका भी सोया होगा। जिसे नींद की जरूरत–प्रार्थना से ज्यादा होगी। कोई पूछे उनके भगवान से , उनींदा वह भी होगा…। सपना के अलसाए मन में एक अजीब-सी कोफ़्त उठी। झुँझलाते हुए उसने धकेलते हुए पति से कहा— “ स