विवेकहीन दान, मन की थकान




विवेकहीन दान, मन की थकान

– कल्पना मनोरमा

उदार होना क्या सचमुच मनुष्य होने की पहचान है? या यह कहीं-कहीं हमारे निर्णयहीन होने का आवरण बन जाता है? हम अक्सर दूसरों की अपेक्षाओं और सामाजिक छवियों के दबाव में अपने ‘ना’ को बिना एहसास के निगल जाते हैं, और ‘हाँ’ कहते हुए थकते नहीं। यह थकान केवल शरीर की नहीं, आत्मा की होती है—जो भीतर के संतुलन को धीरे-धीरे खोखला कर देती है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (2019) के अनुसार, लगातार भावनात्मक दबावों के बीच जीने से व्यक्ति की कार्यक्षमता ही नहीं, आंतरिक ऊर्जा भी खो देता है। इसी स्थिति को युवाओं की दुनिया में "थकावट या जड़ता" कहा जाता है। क्या कभी हमने अपने उस सूक्ष्म विवेक की खोज की है, जो यह तय कर सके कि कहाँ “अपना होना” देना, पुण्य होगा और कहाँ वह आत्महीनता में ढलकर व्यर्थ का कार्य? यह आत्मदर्शी दृष्टि ही हमें सिखा सकती है कि क्या हमारी उदारता सचमुच समझ से जुड़ी है या बस एक आदतन लाचारी है? माने कोई हमें चाह ही ले। कोई देखकर मुस्कुरा ही दे। कोई अपने समूह में शामिल कर ही ले। आखिर क्यों? क्या कोई इस ‘क्यों’ नामक ध्रुवांत पर रुककर खुद से प्रश्न क्यों नहीं करता है?लेकिन नहीं। क्योंकि बचपन से ही हम किसी न किसी को खुश करते आ रहे हैं और अब वह आदत पक्की हो गई।

कभी-कभी तो हम अपने इस व्यवहार को उदारता मान लेते हैं, जबकि भीतर ही भीतर एक कमजोरी को ढो रहे होते हैं, निर्णय न लेने की, अस्वीकार न कर पाने की। यानी लगातार ‘हाँ’ कहने की आदत, हमें भीतर से गला देती है। दूसरों को दुख न देने की चाह, विनम्रता का आवरण और त्यागी कहलाने की लालसा, ये सब मिलकर हमें एक कृत्रिम आदर्श ढोने वाला खच्चर बना देती है।

हेरियट बी. ब्रेकर की पुस्तक द डिज़ीज़ टू प्लीज़ में यह स्पष्ट किया गया है कि दूसरों को खुश रखने की बाध्यता आत्म-अस्वीकृति और आत्म-संदेह से उपजती है।

मनोविज्ञान इस व्यवहार को "दूसरों को खुश करने की प्रवृत्ति" कहता है, एक ऐसा ढाँचा जो बचपन की अस्वीकृति, सामाजिक आदर्शों और ‘अच्छा दिखने’ की विवशता से निर्मित होता है।

अमेरिकी मनोवैज्ञानिक संगठन के अनुसार, जो लोग हर किसी को खुश रखने की कोशिश में लगे रहते हैं, वे अंततः अपनी ही ज़रूरतों और पहचान से कटने लगते हैं। फिर धीरे-धीरे वे अपने समय को ढोते हुए गुजारने लगते हैं, जैसे कोई बोझ हो। जब कोई व्यक्ति बार-बार अपने काम, आराम और समय को स्थगित कर दूसरों की माँगें पूरी करता है, तो वह भीतर से घुटने नहीं, मरने लगता है। यह घुटन शरीर में नहीं, मन में जन्म लेती है। 'देना' जहाँ ज़रूरी नहीं, वहाँ भी दे आना—और फिर भीतर से टूटते रहना, ये कैसी समझदारी है? कैसी वफ़ादारी है?

स्वामी विवेकानंद ने कहा है—"कमज़ोर कभी दाता नहीं हो सकता, केवल मज़बूत ही दे सकता है; दुर्बल तो देने के नाम पर स्वयं को खो देता है।”

विवेकहीन दान केवल धन का नहीं,—यह समय, सुलभता, ध्यान, आत्मीयता और उपस्थिति का भी होता है।
अक्सर हम दूसरों के लिए इसलिए उपलब्ध रहते हैं ताकि कोई हमसे नाराज़ न होने पाए। लेकिन यह ‘हर समय उपलब्ध’ होना धीरे-धीरे हमारी शांति और पहचान को मुर्दापन में बदल देता है।

साइकोलॉजी टुडे (2020) बताता है कि निरंतर उपलब्ध रहने की आदत व्यक्ति की मानसिक सीमाओं को नष्ट कर देती है।

इस व्यवहार का अगला चरण "निर्णय थकान" है—जब निर्णय लेने की लगातार कोशिश व्यक्ति की मानसिक ऊर्जा को चूस लेती है। तब वह न 'हाँ' में स्पष्ट होता है, न 'ना' में। बस बहता चला जाता है—बिना दिशा, बिना आशय।

रॉय बॉमिस्टर के "निर्णय, थकान, सिद्धांत" के अनुसार, बार-बार निर्णय लेने से मस्तिष्क थक जाता है और व्यक्ति निष्क्रियता या झूठी सहमति की ओर बढ़ता है।

आज के शहरी युवाओं, विशेषकर कॉर्पोरेट क्षेत्र में काम करने वालों में यह व्यवहार तेजी से बढ़ता हुआ देखा जा सकता है। स्त्रियाँ इस स्वभाव के वशीभूत होकर अपना वह सब नष्ट कर देती हैं, जो उनके होने का पर्याय होता है।

भारतीय समाज इस व्यवहार को अक्सर ‘आदर्श’ और श्रेष्ठ मान बैठता है। जो ‘ना’ कहता है, वह स्वार्थी और उद्दंड कहलाता है। जो हर समय उपलब्ध रहता है, ‘हाँ-हाँ’ करता रहता है, वही ‘अच्छा’ माना जाता है। पर यह ‘अच्छा दिखना’ ही हमारी सबसे बड़ी थकान का कारण बन जाता है।

लैंगिक अध्ययन में यह पाया गया कि महिलाओं और युवाओं पर 'हर किसी को खुश रखने' का दबाव उन्हें थकावट और जड़ता की ओर ले जाता है। जो जिंदगी हारने जैसा उपक्रम है।

दार्शनिक कृष्णमूर्ति बार-बार कहते हैं—“सत्य आत्म-बोध से उपजता है, सामाजिक स्वीकृति से नहीं।”

हमें समझना होगा कि हर ‘दान’ पुण्य नहीं होता, और हर ‘इनकार’ क्रूरता नहीं है। जरूरी है कि हम जानें, कितना दें, कब दें, और क्या दें। इसके बाद कब रुक जाएँ।

गौतम बुद्ध का "मध्यम मार्ग" यही सिखाता है—अति-त्याग और अति-भोग दोनों से बचना, और संतुलन में जीना। बात भी ठीक है क्योंकि सच्ची करुणा वहीं सार्थक होती है जहाँ वह आत्म-त्याग नहीं, आत्म-बोध से उपजती है। जब विवेक और करुणा साथ-साथ चलें, तभी जीवन में संतुलन सम्भव है। और संतुलन वहीं होता है, जहाँ हम अपने मन की थकान को पहचान लें—उसे आदर्श का मुखौटा पहनाकर छिपाएँ नहीं।

अंततः सच्ची उदारता वहाँ जन्म लेती है जहाँ ‘देना’ बोझ नहीं, सहजता हो। जहाँ हम यह भली-भाँति समझ रहे हों कि हम क्यों दे रहे हैं, किसे दे रहे हैं, और क्या दे रहे हैं। साथ ही कब रुकना ज़रूरी है, इस पर भी नजर रखनी होगी।  जब हम विवेक और करुणा के बीच संतुलन साध लेते हैं, तब हम भीतर से थकते नहीं—बल्कि भीतर से पोषित होते हैं। यही पोषण हमें 'अच्छा दिखने' की मांग से मुक्त कर, एक जागरूक और संपूर्ण मनुष्य बनने की दिशा में ले जाता है। किसी की स्वीकारोक्ति से पहले खुद को बेहतर समझना और स्वीकार करना ज्यादा जरूरी है।

Comments

  1. "सच्ची उदारता वहाँ जन्म लेती है जहाँ ‘देना’ बोझ नहीं, सहजता हो"
    अति सुंदर बोध

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  2. बेहतरीन

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