नवलता के परे स्त्री-जीवन
नवरात्रि शक्ति की उपासना का पर्व है। नौ दिनों तक हम देवी के विविध रूपों की आराधना करते हैं। कभी उन्हें बालिका मानकर पूजते हैं तो कभी योद्धा, कभी करुणामयी माँ, तो कभी सिद्धिदात्री शक्ति। माता का हर रूप हमें यह सिखाता है कि स्त्री जीवन का प्रत्येक पड़ाव पूजनीय है। किंतु यह कैसी विडंबना है कि जिन देवी के प्रत्येक रूप को हम मान देते हैं, और स्त्रियों से अपेक्षा की जाती है कि वे सदैव नवल किशोरी रूप में बनी रहें।
समाज का दबाव यह है कि स्त्री चाहे पचास की हो या सत्तर की, मगर दिखे वह बीस की नहीं, सोलह साला। उसकी त्वचा पर झुर्रियाँ न आएँ, उसकी चाल में थकान न दिखे, उसकी आवाज़ में परिपक्वता की गूँज न सुनाई दे। यह सब क्यों? ताकि भोग की दृष्टि आलोकित हो सके। क्योंकि सदियों से स्त्री को मनुष्य के रूप में नहीं, देह के रूप में देखने की आदत इतनी गहरी है कि स्त्रियों के लिए उम्र छिपाना एक सामाजिक सर्वमान्य संस्कृति बन गई। जबकि विकास के दरमियान अब इस विचार को भी विकसित होना चाहिए। इसलिए आवाह्न करती हूं कि सुनो स्त्रियो! जब कोई तुमसे उम्र पूछे तो तुम सही-सही बताया करो। उम्र का तकाज़ा बुद्धि से नहीं, अनुभव से है। छुटपन और किशोरावस्था में अनुभव परिपक्व नहीं हो सकते, इसलिए सामने वाला तुम्हारे प्रति गंभीरता तभी रखेगा, जब उसे तुम्हारी जीवन-यात्रा का अनुमान होगा। यह भी याद रखो कि सम्मान केवल वर्षों का नहीं होता, बल्कि उन वर्षों में किए गए अनुभव, चिंतन और मनन का होता है। तुम्हें अगर लोहा मनवाना है तो वैचारिकता का मनवाओ, कैशोर्य और नाजुकता का नहीं। केवल रूप या यौवन किसी को लंबे समय तक प्रभावित नहीं कर सकता। जो असर डालता है, वह है जीवन का दृष्टिकोण, सोच की गहराई और आचरण की परिपक्वता।
समाज ने तुम्हें उम्र छिपाने की आदत भले दी लेकिन समय की उंगली पकड़ कर तुम भी तो जीवन रण में उतरी हो। तो लड़ो प्रत्येक कुरीतियों से क्योंकि असल में उम्र छिपाने की आदत पुरुषवादी व्यवस्था का उपजाया भ्रम है कि अगर तुम अपनी सही उम्र मान लोगी तो तुम्हारा आकर्षण घट जाएगा। लेकिन सच यही है कि उम्र ही तुम्हारी यात्रा का असली प्रमाण है। जब तुम अपनी उम्र पर गर्व करोगी, तभी आने वाली पीढ़ियाँ सीखेंगी कि अनुभव ही सबसे बड़ा आभूषण है। जो अनुभव सिखाता है, उसे कोई और नहीं सिखा सकता। इसलिए अपने अनुभवों की लड़ियाँ बनाकर पहनो। यही तुम्हारी सबसे बड़ी सजावट है, यही तुम्हारा असली श्रृंगार है।
जैसे ऋतुएँ अपने क्रम में सौंदर्य पाती हैं, बसंत अपनी ताजगी से, ग्रीष्म अपनी धूप से, वर्षा अपनी ठंडक से और शरद अपने संतुलन से, वैसे ही जीवन भी उम्र के पड़ावों से गरिमा पाता है। यदि ऋतुएँ अपना क्रम छोड़ दें तो प्रकृति असंतुलित हो जाती है। उसी तरह, अगर स्त्री अपने जीवन के पड़ावों को छिपाएगी या उनसे लजाएगी, तो उसका आत्मविश्वास खो जाएगा।
ये भी कि अपनी उम्र और अनुभव का ढिंढोरा पीटने की ज़रूरत भी नहीं, लेकिन जब कोई पूछे, तो बताने में हिचकिचाना भी नहीं। देख लो, फिर मत कहना कि बताया नहीं, क्योंकि स्त्री ही स्त्री के मन को जान सकती है। सच्चा सौंदर्य चेहरे की कांति में नहीं, जीवन की गहराई में होता है। और अगर तुम्हें लगता है कि चेहरा भी कांतिमय रहे, तो उसे संभालो, पर यह चाह न करो कि कोई और तुम्हें देखकर कहे, “तुम बहुत खूबसूरत हो।” असली विजय वही होगी जब तुम जानो, जो कुछ भी तुम हो, वही सब पर्याप्त है, वही सब तुम्हारा है।
अभी तक मिले अनुभव के बिना पर कहती हूं कि अपने लिए दायरे तुम खुद बनाती हो। समाज जितने भी बंधन थोपे, वे तभी सच हो पाते हैं जब तुम उन्हें स्वीकार करती हो। जियो और जीने दो। जब कहीं, जिससे मिलो, खुले मन से बातें करो। और सबसे महत्वपूर्ण—स्त्री से पहले तुम मनुष्य हो, जानो। यह बात खुद भी याद रखो और सामने वाले को भी एहसास होने दो।
नवरात्रि की साधना तभी सार्थक होगी जब हम देवी को केवल बाहर से ही नहीं, अपने भीतर भी पहचानें। माँ दुर्गा का हर रूप यही सिखाता है। अपनी शक्ति को मत छिपाओ, अपनी गरिमा पर गर्व करो। नवल किशोरी बने रहने की अपेक्षा केवल समाज या किसी अन्य की मंशा के दबाव में न रखो। अपनी हर उम्र के हर पड़ाव को गर्व से स्वीकार करो। शक्ति का असली रूप चेहरे की चमक में नहीं, आत्मा की गहराई और वैचारिकता की दृढ़ता में है, दिल से जानो।
अपने अनुभवों, अपनी यात्रा और अपनी आंतरिक शक्ति को पहचानो। दूसरों की अपेक्षाओं या सामाजिक मान्यताओं के चक्रव्यूह में फँसने के बजाय, अपने अस्तित्व और अपने मूल्य को स्वयं जानो और अपनाओ। जब हम सभी, स्त्री और पुरुष, युवा और वृद्ध, हर धर्म और संस्कृति से, अपनी पहचान और गरिमा को इसी दृष्टि से देखते हैं, तभी समाज में सच्ची स्वतंत्रता, सम्मान और समानता का मार्ग खुलता है।
शक्ति और सौंदर्य का असली मापन वही है जो हमारे भीतर की गहराई और हमारे विचारों की स्थिरता दर्शाता है, न कि केवल बाहरी रूप या किसी की दृष्टि। यही सार्वभौमिक संदेश है, अपने अनुभव, अपनी यात्रा और अपनी आत्मा का गर्व करने से ही जीवन उत्फुल्लता का प्रतीक बनता है।
नवरात्रि पर बहुत सुंदर संदेश
ReplyDeleteबहुत आभार आपका अनीता जी
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