मां की स्मृति में


माँ की आँखें मामूली नहीं थीं। उनकी चिंतनधारा ने मुझे विचारों की समृद्ध विधि सौंपी है। आपके होने के आगे मेरा होना हमेशा नतमस्तक रहेगा। मलाल बस इतना, मैं ही वह न दे पाई जो एक स्त्री को दूसरी स्त्री को देना चाहिए। यह स्वीकार आज भी भीतर कहीं ठहरा रहता है। 

मां का जीवन साहित्यिक नहीं था। पर सोच साहित्यिक थी। अब सोचती हूँ तो लगता है कि आप एक किरदार की तरह थीं। उत्साह और जिजीविषा से भरीं। आप साधारण स्त्री तो बिल्कुल नहीं थीं। न सोच में। न व्यवहार में। न भाषा में। न जीवन में। आप असाधारण थीं।

मां ने अपने कार्यान्वयन से वह सिखाया जो साधारण स्त्री सोच नहीं सकती। मां ने सिखाया सामने चाहे पुरुष हो या स्त्री बात दोनों से की जा सकती है। झेंपने की की जरूरत नहीं। मैंने आपसे ही अपनी देह यानी स्त्री-देह से विरक्त और आत्मा में स्थिर रहना सीखा। मैंने आपसे अपनी परिधि को बड़ा बनाना सीखा। मैंने आपसे अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत रहना सीखा। साथ ये भी सीखा कि जो रिश्ते संवेदना रहित होकर उपयोग करने लगें, उन्हें त्यागना ही उचित है। आपके सिखाए हुए रास्ते पर चलते हुए कई कई बार मैं खुद को परेशानियों से बचा पाई।

जीवन के प्रति सुख और दुख में श्रद्धावान बने रहना आपसे सीखा। अपनी संतान के प्रति कठोर और तरल समानांतर चलते हुए बने रहना सीखा। त्याग और परिश्रम से डरना नहीं। स्वाभिमान कायम रहे, विचारवान बने रहना सीखा। आपके आगे मेरा हर तर्क, हर शिकायत, हर अहं मौन हो जाता था और है। आप बच्चे जितनी सरल और विद्वानों जितनी कठोर थीं।

बिगड़ी हुई चीज़ों से नया कुछ बनाने की जुगत आपसे सीखी। जो कुछ मैं हूँ, उसमें आपका दिया हुआ ही सब शामिल है। कुल मिलाकर एक जीवन जिस हाल में मिला, उसे बेहतर बनाते हुए चले जाना आपसे ही सीखा।
आज माँ को गए ग्यारह बरस हो गए हैं। समय अपनी गति से बहता रहा, पर भीतर कहीं कुछ ठहर गया। इन बरसों में न जाने कितनी बार मन ने चाहा कि काश माँ सामने होतीं—बस बैठकर, बिना किसी भूमिका के, बिना किसी डर के, मन की कह लेती। माँ के जाने के बाद ऐसा कोई आत्मीय नहीं मिला जिसके आगे दिल की लगी पूरी तरह रख सकूँ। लोग मिलते रहे, रिश्ते निभते रहे, पर वह भरोसा, वह निश्चिंत शरण—कहीं नहीं मिली। 

  दिल पर जैसे एक अदृश्य-सा बोझ रखा रहता है, जिसे उठाए मैं रोज़मर्रा की ज़िंदगी में चलती रहती हूँ। कई बार लगता है, मेरा होना आपके होने से ही अर्थ पाता है। मैं ऋणी हूँ—इसलिए कि आपने मुझे सिर्फ़ जन्म नहीं दिया, बल्कि यह विश्वास दिया कि मेरा होना ज़रूरी है, अनिवार्य है। और मैं दुःखी हूँ—इसलिए कि काश आप थोड़ा और ठहर जातीं। शायद तब हम आपको और स्नेह दे पाते, और अधिक प्यार जता पाते, वे बातें कह पाते जो अक्सर जीवन की हड़बड़ी में अधूरी रह जाती हैं। माँ, आपकी कमी किसी एक दिन की नहीं है। वह हर उस क्षण में मौजूद रहती है, जब मन भीतर की ओर लौटना चाहता है। फिर भी आपकी स्मृतियाँ मुझे तोड़ती नहीं, थाम लेती हैं। वे याद दिलाती हैं कि प्रेम समाप्त नहीं होता, केवल रूप बदल लेता है। सादर नमन आपकी स्मृतियों को, माँ। जहाँ आप होंगी, वहाँ की दुनिया अवश्य ही कोमल होगी—और आत्मीय भी। इसलिए यह लिखते हुए भी मैं समर्पण में हूँ—
आपके जीवन के प्रति,
आपकी दृष्टि के प्रति,
और उस मौन उत्तराधिकार के प्रति
जो आपने मुझे सौंपा।

#मनोरमामिश्रामेरीमां

Comments

  1. मां की स्मृतियां कभी नहीं तोड़ती

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