मन के गाँव में पिता
![]() |
हरिभूमि में प्रकाशित 10 जून 2025 |
‘पिता’ कोई छोटा-सा शब्द नहीं,भारतीय परंपरा में पिता को ब्रह्मा कहा गया है। नीली छतरी वाले के बाद पालनहार इसी व्यक्ति को माना गया है। इस सबके बाद भी समय की धुरी पर सभ्यता का रथ ज्यों-ज्यों घूमता गया, पिता की छवि बदलती गई। तब और अब के पिता में मुहर कौड़ी का अंतर आ गया है। पिता की भूमिकाएँ रिफाइन होती जा रही हैं।
आज के पिता की तुलना में तब के पिता को याद करें तो एक ऐसा व्यक्ति याद आता है, जिसके गंभीर चेहरे पर ऊपर की ओर तनी भवें और आँखों के किनारों में आक्रोश का गुवार भरा हुआ दिखता था, याद आता है। हँसी-मज़ाक की बात पूछना-करना तो दूर, सीधी बात पूछने में भी बच्चों के आसन ढीले होते थे। फिर भी विगत सदी के परिवारों की रीढ़, पिता ही होते थे। माँ सहित बच्चों को भरोसा होता था कि पिता घर लौट आए हैं, अब किसी भी तरह की कमी नहीं रहेगी। जो जिस हैसियत का हुआ मौन होकर पिता परिवार पर सुख लुटा देता था।
साठ और सत्तर के दशक के पिता लोहे की तरह सख़्त और आत्मा से कोमल होते थे। वे अपने हाथों में रिश्तों की ख़ुशबू और माथे पर ज़िम्मेदारी की लकीरें लिए मौन फ़र्ज़ निभाने में विश्वास करते थे। तब के पिता अपने दुःख बच्चों के आगे इसलिए नहीं कहते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि बाल-सपने काँच की तरह होते हैं, ज़रा से तनाव में टूट जायेंगे। इसलिए ख़ुद के जीवन को किनारे कर बच्चों के सुख साधन मुहैया कराने की कोशिश हमेशा बनी रहती थी। यानी तब पिता का प्यार शब्दों में नहीं, उनके कार्यों में झलकता था। जबकि वे बस्ता टांग कर बच्चों को स्कूल के गेट तक नहीं पहुँचाते थे। न मेले में लेकर जाते थे। न सर्दियों में सुबह सबसे पहले उठकर बच्चों के लिए पानी गरम करते थे। तब पिता माने अनुशासन! पिता भी अपना होना अनुशासन से ही जानते थे। पहले खुद अनुशासित रहते थे, फिर उसी पगडंडी पर संतान को चलते हुए देखने के अभिलाषी बन जाते थे। तब के पिता जानते थे, बच्चे प्यार से बिगड़ जाते हैं। इसलिए पिता बिन बोले प्रेम की छाँव देने में भरोसा करते थे। चुपके से खुद जलते रहने की परवाह नहीं। वे इसी में अपना कर्तव्य जानते थे।
मंगलेश डबराल कहते हैं: "जब मैं छोटा था / मेरे पिता मुझे बड़े होते देख रहे थे / अब जब वे छोटे हो रहे हैं, मैं उन्हें बड़ा होते देखता हूँ" यानी बच्चे जब दुनिया की ओर कदम बढ़ा रहे होते थे, उनके पिता मौन होकर उन्हें देखते रहते थे। और जब पिता दुनिया से बाहर की ओर सरकना शुरू कर देते थे तो उनके बच्चे भी मौन होकर ही, उन्हें देखते रहते थे। सब कुछ अच्छा होने के बावजूद संवादहीनता के मारे पिता पीड़ा, पीड़ा और पीड़ा में घिसते हुए बीत जाते थे और पुत्र के रूप में अपनी ही प्रतिकृति अगली पीढ़ी को सौंप जाते थे।
खैर! सदी बदली पिता की छवि भी बदल गयी। ये अस्सी नब्बे का समय होगा। जब गांव शहर की ओर दौड़ने लगे थे। उच्च वर्गीय पिताओं के तौर तरीके सीखकर मध्यमवर्गीय पिता भी अपने परिवार को अलग सुगंधि से भरने लगा था। अब पिता बदलते हुए अपने समाज में सहिष्णुता लिए मुखर चेहरा बन रहा था। बोलने को आतुर पिता के हाथ से संस्कार की डोर थोड़ी सी ढीली पड़ने लगी लेकिन प्रेम से भरे भरे पिता छलकने को आतुर दिख रहे थे। पिता बदले तो माँ ने भी हर्ष मनाया। संतान और पति के बीच पुल बनी स्त्री अब दर्पण बन गई। बच्चे पिता के साथ खेलने, हँसने, बोलने और सोने-जागने लगे। अपनी इच्छा प्रकट करने के लिए बच्चों को माँ की आव़ाज की दरकार मिटने लगी। मां ने इस बात से खूब सुख मनाया।
पिता बेटे बेटियों के बाल भी संवारने लगा। होमवर्क और प्रोजेक्ट में हाथ भी बंटाने लगा। बेटे की मनोस्थिति समझने के लिए उसे टूर पर ले जाने लगा, तो बेटी के लिए सेनेटरी नैपकिन भी लाकर देने लगा। अब का पिता ऑफिस की थकान के बाद भी बिटिया की गुड़िया की चाय पार्टी में शरीक होतेहुए देखा जाने लगा। बेटे का हमदर्द “थैरेपिस्ट” बनकर किशोर मन पर मरहम भी रखने की चाहत रखने लगा। माने अब पिता सिर्फ कमाने वाली मशीन नहीं,’भावनात्मक उपस्थिति’ भी बनने की चाह लिए आधुनिकता के साथ कदमताल करने की ओर मुखातिब हो गया था। उसके संघर्ष अब सिर्फ बाहरी नहीं, खुद को बदलने के लिए भी चल रहे थे। अब पिता खुद से, समाज की अपेक्षाओं से और समय के साथ चलते बच्चों के मनोविज्ञान से रू-ब-रू होना चाहता था। बच्चों के मन की बात पहले से पहले भाँप लेने की जुगत में लगा रहने वाला इंसान बन गया था। उदयन वाजपेयी की कविता में आज के पिता की गूँज ऐसे मिलती है: "बच्चे जब नींद में होते हैं/ पिता खिड़कियाँ बंद करता है/दरवाज़े की साँकल चुपचाप गिराता है /और सिरहाने रख देता है /चुप्पी की एक किताब"
अब के पिता की जिम्मेदारी केवल रोटी,कपड़ा और मकान तक ही सीमित नहीं रही,वह बच्चों के बीच 'उपलब्ध' भी रहना चाहता था। खेलने में, सुनने में, गले लगाने में विश्वास करना चाहता था लेकिन अदब की एक लकीर पिता पुत्र के बीच खींची अब भी रहती थी।
सदी बदली। पिता फिर से बदल गया। आज का पिता बच्चों से प्रश्न करने से पहले स्वयं से प्रश्न करना चाहता है। किसी बिगड़े काम पर बच्चों को डाँटने से पहले अपने पर डाउट करना सीख रहा है। बार-बार विगत में आवाजाही कर खुद से प्रश्न करता है कि “क्या मैं अपने पिता और दादा जितना ठोस और ठस तो नहीं हूँ?” “क्या मैं अपने बच्चे के मन में जगह बना पाया हूँ?” अब के पिता बच्चों के बाबत उनके बनाए कटघरे में खड़े होने से नहीं हिचकिचाते।
आधुनिक मनोविज्ञान पिता की भूमिका को सिर्फ "डिसिप्लिन" अनुशासन में रखने तक सीमित नहीं बल्कि बच्चों के भावनात्मक विकास में अपनी सौ प्रतिशत 'उपलब्धता' और 'सहानुभूति' की बात कहता है।
नई सदी का नया पिता डिजिटल सफ़र पर निकल चुका है। उपर्युक्त पिता-छवियों से इस पिता की छवि ज्यादा जटिल और ऊहापोह भरी लग रही है। क्योंकि अब सवाल सिर्फ रोटी, कपड़ा और मकान का नहीं रहा। इनके यहां वर्ग का कोई रोना नहीं क्योंकि “ईएमआई” वाली चाबी इनके हाथ में है। मल्टीनेशनल कम्पनियों में कार्यरत नौकरपेशा पिता पारिवारिक जिम्मेदारियों में लथपथ गिरता-उठता पुरुष भर नहीं, सुपरहीरो की भूमिका में आना चाह रहा हैं। भौतिक युग का पिता घर से ज्यादा सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म पर रहना चाहता है। अपने बच्चे के पहले कदम से लेकर पहली ड्राइंग, पहला फूटता बक्कुर, पहला आखर आदि वाला वीडियो और तस्वीर “पहली मुस्कान” लिखकर शेयर करता हुआ दिख रहा है। ट्विटर पर परिवार, साहित्य, शिक्षा, राजनीति और कूटनीति पर चर्चा करने में भी वह अपनी जबावदेही समझ रहा है। इतना भर नहीं, बच्चों की ‘हेल्दीडाइट’ के बाबत यूट्यूब से खाना बनाना भी सीखकर बच्चों समेत उनकी माँ को इंप्रेस करने के फ़िराक में भी रहता है। जीवन को सुगम बनाने के टिप्स जहाँ से मिलें,पिता सीखना चाहता है। वह अपने बच्चे के साथ "रील" में भी नज़र आता है और "रियल" समय भी बिताने की कोशिश करता है। लेकिन यह नया युग इतना भी सहज नहीं, जितना दिखता है। जहाँ सोशल मीडिया ने पिता के जीवन में कई संभावनाएँ जोड़ी हैं, तो कई अनचाहे द्वंद्व भी खड़े कर दिए हैं। सूचना और ज्ञान की सहज उपलब्धता पिता-पुत्र को भावशून्य बना रही है। असंवेदनशीलता के इस दौर में चरणस्पर्श जैसी बात रही ही नहीं। अब तो “हे डूड” “हाय डैड” ने ले ली है।
अब पिता पेरेंटिंग, किशोर मनोविज्ञान, बच्चों के पालन-पोषण आदि विषयों पर तुरंत जानकारी पा सकते हैं। वे "फादरहुड" के अनुभवों को वैश्विक स्तर पर पढ़ते, समझते और व्यवहार में उतरना चाहते हैं। विश्वग्राम का निवासी पिता अकेला नहीं, वह एक वैश्विक समुदाय का हिस्सा बन चुका है, मानता है। यानी टुकड़ा-टुकड़ा बंट चुका पिता अपने को साबुत से ऊपर समझ रहा है। पिता-पुत्रों की भावनाओं को अभिव्यक्त करने की जितनी आज़ादी इस सदी से मिली, उतनी ही भावनाओं को आहत करने के कारनामें भी मीडिया में यहाँ-वहाँ जहाँ-तहाँ मिलने लगे। जहाँ पिता का मौन, मुखर हुआ, वहीं आज का पिता अपने बेटे-बेटी की सालगिरह पर भावुक पोस्ट लिखता है। वह “कूल डैड” बनना चाहता है — जिससे बच्चे बातें साझा कर सकें।
लेकिन उनके बच्चे उनसे दस हाथ आगे निकल कर नई सदी की तैयारी में जुट चुके हैं। सोशल मीडिया ने पीढ़ियों के बीच की दीवारों को कुछ हद तक पारदर्शी बना तो दिया है लेकिन अदृश्य दीवारों की ऊँचाई बेनाप कर दी। पिता अब बच्चों के पसंदीदा म्यूजिक, मीम और डिजिटल कल्चर से वाक़िफ होते जा रहे हैं मगर बच्चे फिर भी अवसाद के समुद्र में डूब रहे हैं। साझी स्क्रीन, साझा जीवन का पर्याय नहीं बन पा रही है। सक्रिय भागीदारी और प्रेरणा स्रोत दृश्यों परिदृश्यों, कोट्स, विचार, कविता के दहाने लगे हैं, फिर भी बच्चे मौन होते जा रहे हैं। जबकि कई पिता अपने बच्चों के लिए आदर्श बनने की कोशिश में फिटनेस, पढ़ाई या सामाजिक कार्यों में सक्रिय भागीदारी निभा रहे हैं। साथ अनुशासित होने का डिजिटल प्रदर्शन भी कर रहे हैं। फिर भी बच्चे खुश नहीं हो पा रहे हैं। कारण, ज्ञान, अनुभव का नहीं, देखने, बताने और शेयर करने की चीज़ बन गया है। आज 'परफेक्ट डैड' बनने की होड़ सी मची है। ये भूलकर कि बनावटी छवि टिकती नहीं। सोशल मीडिया पर अक्सर ‘आदर्श पिता’ की प्रतियोगिता सी चलती है। सलीकेदार कपड़े पहनाए गए बच्चे, डिज़ाइनर पोशाकों में सजे धजे माँ-बाप, अच्छी से अच्छी जगहों पर लंच, सेल्फी पोज़ वाले पल…..! यह सब असल ज़िंदगी के संघर्षों को छुपा देते हैं। पिता ही नहीं, बच्चे भी अपनी वास्तविक कमज़ोरियों से कटने लगते हैं और पिता-पुत्र की भूमिकाएँ ‘प्रदर्शनकारी’ बन जाती हैं। डिजिटली व्यवस्था ने वास्तविक अनुपस्थिति को जन्म दिया है। कई बार पिता स्क्रीन पर इतने डूब जाते हैं कि बच्चे सामने बैठे होते हैं, और पिता ‘लाइक’ कमेट्स के आगे उन्हें देखते तक नहीं। जबकि युग कोई भी रहा हो बच्चा पिता की ‘अटेंशन’ का भूखा था और बना रहेगा। न कि पिता की कामयाबी तब और अब पोस्ट पर मिले कमेंट्स और लाइक्स का दर्शक बनकर भी प्राप्त कर सकता है। आज का पिता जाने-अनजाने व्यक्तिगत गोपनीयता का हनन करता दिख रहा है।
बच्चों की हर गतिविधि का सार्वजनिककरण कर देना। बच्चों की तस्वीरें, विडियो, उन्हें जमीनी रिश्ते से मंचीय ‘परफॉर्मर’ बना देता है। आधुनिक पिता अनजाने में सही, अपने बच्चे को सोशल ब्रांड बना रहा है। इससे सिर्फ भावनात्मक रूप से क्षरण नहीं बल्कि जब एक पिता-पुत्र, दूसरे पिता-पुत्र की “डिजिटल परफेक्ट लाइफ” देखता है तो वह अपने प्रयासों और जीवन को कम आंकने लगता है। यहाँ से शुरू होता है अवसाद और आत्म-संदेह का खेल। अगर यहाँ पर निष्कर्षत: कुछ कहा जाए तो स्क्रीन और स्पर्श के बीच संतुलन का समय आ गया है। सोशल मीडिया के युग में पिता अपनी पहचान और संबंध की घटती घनिष्ठता के बीच झूल रहा है।
वह न तो पहले जैसा कठोर रह पाया है, न सहृदय स्थायित्व भरा जीवन देने वाला मुखर पिता रह सका और न ही अभिव्यक्ति की आजादी के बावजूद आज़ाद भावनाओं के लेन-देन करने में सक्षम पिता रह पाया है। यह संक्रमण काल है। संभावना का द्वार स्क्रीन से जोड़कर भी यदि अपने घर की खिड़की खुली रखने में सफल हो सका तो आधुनिक पिता अपना पितापन बचा ले जाएगा। अन्यथा पिता की भूमिका सिर्फ नाम भर रह जायेगी। विजयदान देथा कहते हैं— "एक समय ऐसा भी आता है/जब पिता अपने ही मन के गाँव से निर्वासित हो जाता है" आधुनिक पिता के पास मन ही नहीं बचेगा। तो न 'रील' में प्रफुल्लित दिख सकेगा और न ही 'रियल' में बच्चे उसे पिता के रूप में महसूस कर सकेंगे।
यहाँ से होगा रोबोटिक पिता का वर्चश्व! जो प्रेमिल नहीं, आत्मघाती होगा। रोबोटिक पिता को किसी की भी दरकार नहीं होगी। न प्रेम की न किसी ख़ास दिवस की और न ही पुत्र और पुत्री की….।
**********************
मार्मिक
ReplyDelete