फूलों से खुशियों भरा नाता


यह लेख जीवन के तीन चरणों—बचपन, जवानी और बुढ़ापे—में फूलों के बदलते अर्थ और भावनात्मक जुड़ाव को दर्शाता है। फूल यहाँ केवल सौंदर्य नहीं, बल्कि प्रेम, स्मृतियों, सांत्वना और जीवन-दर्शन के प्रतीक हैं, जो हमें निःस्वार्थ, शांत और गहराई से जीना सिखाते हैं।


"फूलों से हमारा रिश्ता तब मजबूत हुआ, जब हमने उन्हें तोड़ना छोड़ा।"


मनुष्य के जीवन की यात्रा बचपन से शुरू होकर जवानी के रंगों को समेटते हुए बुढ़ापे तक पहुँचती है। इस पूरी यात्रा में फूलों की उपस्थिति लगभग अदृश्य होते हुए भी अत्यंत गहन है। फूल सिर्फ एक प्राकृतिक सौंदर्य नहीं, बल्कि भावनाओं के प्रतीक हैं। मासूमियत, प्रेम, प्रसन्नता, पीड़ा और यहाँ तक कि विदाई के भी। फूलों से पहली पहचान से लेकर एक बच्चा कैसे वृद्ध के अकेलेपन में फूलों में सांत्वना खोजने लगता है। चलिए, जीवन की तीन अवस्थाओं को फूलों के आलोक में समझने का प्रयास करें।बचपन फूलों जैसा ही होता है। कोमल, रंगीन, सुगंधित और चंचल। एक बच्चा जब पहली बार किसी फूल को देखता है, तो उसके मन में कौतूहल भर जाता है। वह उसे छूना चाहता है, तोड़ना भी चाहता है। फूल देखकर वह मुस्कुराता है। जैसे फूल ने उसे भीतर से गुदगुदाया हो। बचपन में फूलों का अर्थ सिर्फ़ सजावट या पूजा तक सीमित नहीं होता। वे खेल का हिस्सा होते हैं। फूलों से रिश्ता बनाना कोई सिखाता नहीं, ये रिश्ता अनुभूति का होता है। सौंदर्य से सीधे संपर्क का।


बचपन में फूलों से जो रिश्ता बनता है, वह एक निश्छल प्रेम का प्रतीक होता है। यह प्रेम स्वार्थहीन होता है। वहीं जवानी में फूलों का मतलब बदलने लगता है। अब गुलाब का मतलब 'प्रेम' होने लगता है। और मुरझाए फूल का मतलब ‘विरह'। फूल अब सिर्फ देखने की चीज़ नहीं रहते, वे भावनाओं के दूत बन जाते हैं। कोई गुलाब देकर प्रेम प्रकट करता है, कोई चंपा के फूलों से अपनी किताबें सजाता है। युवावस्था में मनुष्य फूलों से सौंदर्य, आकर्षण और कामना के स्तर पर जुड़ता है। ये वह समय होता है जब इंसान 'देने' और 'पाने' दोनों भावों में डूबा होता है। फूलों के माध्यम से वह अपने जज़्बात दूसरों तक पहुंचाने की कोशिश करता है। जैसे कोई अपने जज़्बात कागज़ पर नहीं कह सका, तो उसके जज़्बातों को गुलाब कह देता है। यह उम्र जब बहुत कुछ पाने की चाहत में मन की सड़क पर दौड़ती है, तब फूल जीवन में एक पुष्पक विराम बनकर उतरते हैं। किसी पेड़ के नीचे बैठा प्रेमी युगल, किसी पार्क में खिला हुआ पलाश, कॉलेज के रास्ते में लगे बोगनवेलिया। ये सब फूल जीवन की गति को मानो अर्थ और अनुभूति देने लगते हैं।


जीवन की आपाधापी में जब बुढ़ापा जीवन की राह पकड़ता है, जब शरीर की गति कम होती है और मन आत्ममंथन की अवस्था में लौटता है। इस अवस्था में फूल फिर लौटते हैं, व्यक्ति के पास लेकिन अबकी उनके अर्थ गहरे और भीतर तक उतरने वाले होते हैं। अब फूल केवल सुंदरता नहीं, स्मृतियों का पुल बन जाते हैं। कोई वृद्ध महिला गेंदा देखकर अपने मायके की छत याद करती है, कोई बुज़ुर्ग चंपा की खुशबू में अपने जीवनसाथी की मुस्कान खोजता है। फूल अब अतीत के द्वार खोलने वाली हवा बन जाते हैं।


बुजुर्गों के लिए फूलों की एक भूमिका और होती है। वह है सांत्वना की…। जब जीवन अकेलेपन की ओर बढ़ता है, जब बातें कम और चुप्पियाँ अधिक बोलती हैं। उस समय फूल साथ निभाते हैं। सुबह मोगरा, दोपहर की धूप में खिला गुड़हल, शाम तुलसी के पास बैठा कोई वृद्ध। ये दृश्य केवल बागवानी नहीं, बल्कि जीवन से संवाद होता हैं।इसी संदर्भ में मुझे अपनी नानी की बात याद आती है, वे कहती थीं, “मुझे चंपा के फूल इसलिए अच्छे लगते हैं, क्योंकि इनमें चुपचाप सहने की ताकत है।” अब समझ आता है, उन्होंने फूलों में अपने अंतिम होते जीवन का प्रतिबिंब देख लिया था।


फूल अब पूजा में भी आते हैं, और ध्यान में भी। वे ईश्वर से जोड़ने की कड़ी भी बनते हैं, और मृत्यु के बाद विदाई में भी साथ रहते हैं। फूलों की उपस्थिति जीवन के अंतिम चरण में भी एक कोमलता, एक शांति और एक सहजता लेकर आती है।जीवन फूलों से ये भी सीखता है कि फूल कभी प्रश्न नहीं करते, वे सिर्फ उपस्थिति से उत्तर बन जाते हैं। वे हमारी भाषा नहीं बोलते, लेकिन हमारी हर भावना के अनुवादक बन जाते हैं। वे सिखाते हैं कि कैसे खिले रहना है, बिना शोर किए, बिना किसी प्रतिदान की आशा किए। फूलों का जीवन बहुत छोटा होता है, पर वे जितनी देर भी रहते हैं, सौंदर्य और सुकून के वाहक बने रहते हैं। वे हमें सिखाते हैं कि अस्तित्व की सार्थकता समय की लंबाई में नहीं, अनुभूति की गहराई में है।


कई बार फूल खामोशी से वह सब कह जाते हैं जो शब्द नहीं कह पाते। और कई बार फूलों की अनुपस्थिति से भी हम बहुत कुछ समझ जाते हैं। इसलिए जीवन में फूलों का होना केवल सजावट नहीं, बल्कि आत्मा के कोनों तक पहुँचना है। फूलों को जब शांत मन से देखो तो वे आत्मा को स्पर्श करते हैं। कभी खिलकर, कभी बिखरकर जीवन की सार्थकता और नश्वरता का मतलब समझाते हैं। शायद इसीलिए, जब जीवन का वृत्त पूर्णता की ओर बढ़ता है, तब हम एक बार फिर पूछते हैं, "हमारा फूलों से रिश्ता कब शुरू होता है?" और उत्तर भीतर से आता है कि, "तब, जब हम उन्हें देखना, महसूस करना और उनके साथ जीना सीख जाते हैं।"











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