माँ भाषण नहीं,भाषा दो
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स्वदेश का रविवारीय स्तंभ 4
बुनियादी चिन्तन : बालिका_से_वामा |
स्त्री भाषा का प्रारंभ बालिका के बचपन में ही हो जाता है, जब उसका मन अबोध और जिज्ञासु होता है। इस उम्र में वह अपने आस-पास की महिलाओं जैसे माँ, दादी, नानी, बुआ, मौसी, बड़ी बहन से सीखती है। ये महिलाएँ ही उसके लिए भाषा, व्यवहार, संस्कार और स्त्रीत्व की पहली शिक्षक होती हैं।
बालिका के मन में उठने वाले सवाल, उसकी जिज्ञासा, उसके भावों को समझकर और सही दिशा देकर ये महिलाएँ ही "स्त्री भाषा" के बुनियाद को मजबूत करती हैं। उनके अनुभव, बोलने का अंदाज़, भावों की अभिव्यक्ति आदि सब मिलकर बालिका की भाषा को आकार देते हैं। इसलिए, यह ध्यान देना और समझना आवश्यक है कि कैसे ये रिश्तेदार स्त्रियाँ अपनी अबोध बालिकाओं को सुनती, समझती और संभालती हैं, ताकि उनकी भाषा और व्यक्तित्व सकारात्मक और सशक्त बने।
बालिका सुदृढ़ होगी तो वामा व्यवस्थित हो सकेगी।
माँ भाषण नहीं,भाषा दो
एक अबोध बालिका जब संसार को देखती है, वह केवल आँखों से नहीं देखती, बल्कि अपनी भीतरी संवेदना से उसे अनुभव करती है। उसके लिए रंग, आवाज़ें, चुप्पियाँ, सब कुछ उसकी निजी समझ और अर्थ निर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा होते हैं। जब वह बोलती है, तब उसके शब्दों से ज़्यादा उसमें छिपे भाव और स्पंदन उसकी भाषा की असली ताकत होते हैं। उसकी भाषा में शब्दों के बजाय धड़कनें, भावनाएँ, और मौन ज्यादा बोलते हैं।
लेकिन क्या समाज, और उससे भी पहले उसका परिवार, खासकर उसकी माँ, क्या वे उस नन्हीं बच्ची की इन सूक्ष्म भावनाओं को समझने के लिए पर्याप्त नर्म दिल और संवेदनशीलता रखते हैं? जब वह पहली बार मुखर होती है, तो वह केवल संवाद नहीं करती, वह अपने भीतर की दुनिया को बाहर लाने की कोशिश करती है। उसकी मुस्कान, उसकी चुप्पियाँ, उसके इशारे, ये सभी उसके भावों की भाषा हैं, जिनमें वह अपनी दृष्टि, सवाल और सपने व्यक्त करती है। लेकिन क्या उसके आसपास की स्त्रियाँ उसे इस स्वतंत्रता से बोलने देती हैं?
प्रसिद्ध भाषाविद नोम चॉम्स्की के अनुसार, हर बच्चा ‘लैंग्वेज एक्विज़िशन डिवाइस’ के साथ जन्मता है। यानी बच्चा भाषा ग्रहण करने और उसे गढ़ने की एक प्राकृतिक क्षमता लेकर आता है। वह केवल वाक्य दोहराने वाला यंत्र नहीं है, बल्कि मौन रहकर अपने अर्थों और भाषा का निर्माण करने वाला एक जीवित प्राणी है। बच्चे नकल से नहीं, अपनी समझ और अनुभव से स्वयं का स्वरूप गढ़ते हैं।
लेकिन जैसे ही बच्ची की इस सहज भाषा को उसके परिवेश की स्त्रियाँ, माँ, दादी, मौसी, शिक्षिका, नियंत्रित करना शुरू करती हैं, वैसे-वैसे वह अपनी जन्मजात क्षमता से दूर होती जाती है। उसे अपनी भाषा में स्वतंत्रता नहीं दी जाती, बल्कि उसे दूसरों की परिभाषाओं और नियमों में ढालना पड़ता है।
शब्दों के स्थान पर ‘शिष्टाचार’ सिखाया जाता है। उस अबोध मन की मिट्टी में ‘अच्छी लड़की’ बनने के भाषण बो दिए जाते हैं। उस कच्चे मन को बताया जाता है कि कब चुप रहना है, कब मुस्कुराना है, कब सिर झुकाना है। ‘हाँ’ सहमति है और ‘ना’ विद्रोह। उसकी असहमति को विद्रोह और सहमति को शालीनता कहा जाता है।
बाल मनोविज्ञान की विशेषज्ञ डॉ. मारिया मोंटेसरी कहती हैं, “बच्चा जो भाषा बोलता है, वह समाज का प्रतिबिंब नहीं, उसकी आत्मा की पहली अभिव्यक्ति होती है।” यदि हम इस दृष्टिकोण से देखें, तो जब बालिका को चुप्पी सिखाई जाती है, तो उसका मुँह ही नहीं, उसकी आत्मा को मौन का ताला लगाया जाता है।
उसके अपने ही स्त्री-संबंधी परंपराओं ने मौन को त्याग, सहनशीलता और सादगी के प्रतीक के रूप में स्थापित कर दिया है। लेकिन क्या कभी उसे स्वतंत्र सोचने और निर्णय लेने वाला व्यक्ति माना गया? क्या उसे स्वीकार्यता मिली कि वह प्रश्न पूछ सकती है, प्रतिवाद कर सकती है, अपनी भाषा में खुलकर बात कर सकती है? जब वही बालिका वामा यानि की स्त्री बनती है, तो उसकी सबसे बड़ी कमी होती है, उसके पास उसकी अपनी भाषा का अभाव होता है। जबकि उसके पास मानवीय भावनाएँ होती हैं, पर उन्हें प्रकट करने का आत्मविश्वास नहीं होता, क्यों? क्योंकि बचपन से ही बच्ची को अपनी भाषा विकसित करने का अवसर नहीं मिला। उसे कड़ाई से सामजिक पाठ्यक्रम के व्याकरण और कठोर सदाचार सिखाए गए, लेकिन ‘स्व’ की मधुरता से परिचय नहीं कराया गया।
इतिहास भी यही कहता है कि जिन स्त्रियों ने अपनी भाषा बनाई, वह उन्हें सहज नहीं मिली। मीरा की भक्ति हो या सावित्रीबाई फुले की शिक्षकीय घोषणा, उन्हें अपनी भाषा अपने अनुभवों से स्वयं रचना पड़ी। शायद यह भी सच है कि उनसे पहले उनकी माओं के मन में कहीं न कहीं परिवर्तन की आग दबी हुई थी, जिसे उन्होंने समय आने पर हवा देकर प्रज्वलित किया। लेकिन यह भी आवश्यक नहीं कि हर माँ में वह परिवर्तन की ज्वाला हो। इसके लिए माँ को सचेत और जागरूक रहना होगा ताकि वह अपनी अबोध बच्ची को स्वतंत्रता और सम्मान के साथ अपने भीतर की अपनी भाषा तलाशने दे।
इस प्रक्रिया में एक माँ को मधुमक्खी की तरह होना चाहिए, जो निरंतर खोज करती रहे कि वह कहाँ से क्या बेहतर दे सकती है, जिससे उसका बच्चा / बच्ची उच्च स्वाभिमान से ओत-प्रोत होकर जीवन में आगे बढ़ सके। अगर माँ के पास ये गुण न हों तो उसे पहले स्वयं सीखना होगा, ताकि वह अपने दायित्वों को पूरी निष्ठा से निभा सके। पर विडम्बना यह है कि भारतीय समाज में अक्सर बालिका की भाषाई सीमाएं उसकी अपनी मातृ-पीढ़ी द्वारा ही निर्धारित कर दी जाती है, माँ, दादी, मौसी, बुआ आदि जो परम्परावादी सँकरी और जिद्दी सीमाओं में पली-बढ़ी होती हैं, वही सीमाएं अगली पीढ़ी की स्त्री को सौंप देती हैं।
आज अत्यंत आवश्यक है कि बालिकाओं को भाषण नहीं, बल्कि ‘भाषा’ दी जाए, वह भाषा जो पाठ्यक्रमों की कठोरताओं से नहीं, बल्कि माँ जैसी स्त्रियों के सौम्य अनुभवों और संवेदनाओं से उत्पन्न हुई हो। जिसमें ‘ना’ कहने का साहस हो, सवाल करने की आज़ादी हो, और मौन तोड़ने की शक्ति हो। क्योंकि जब एक बालिका अपनी भाषा में बोलती है, तो वह केवल अपने लिए ही नहीं, बल्कि पूरी सभ्यता के लिए एक नई शुरुआत करती है, एक ऐसी शुरुआत जो सजीव, निर्भय, विवेकशील और सशक्त होगी।
Nice article!
ReplyDeleteGreat article!
ReplyDeleteएक नये कलेवर में उचित मापदंडों के साथ लिखा गया महत्वपूर्ण लेख है।यह लेख नन्ही बच्ची के आत्म भाषा विकास के साथ साथ उसके आस पास की स्त्रियों को भी सीखने की प्रेरणा देता है।इस लेख में कहीं गई हर बात महत्वपूर्ण है । परंतु एक बात जो बहुत ही सुन्दर है और मील का पत्थर साबित हो सकती है वह है "बालिका सुदृढ़ होगी तो वामा व्यवस्थित होगी"
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया प्रियंका जी
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