स्वतंत्रता की अनुभूति: स्त्री की दृष्टि
स्वतंत्रता केवल राष्ट्र की सीमाओं तक सीमित नहीं, यह एक व्यक्ति की चेतना,आत्माभिव्यक्ति और निर्णय की क्षमता से भी जुड़ी होती है। जब एक भारतीय स्त्री "स्वतंत्रता" का नाम सुनती है, तो क्या वह केवल 15 अगस्त के झंडारोहण, देशभक्ति गीतों और राष्ट्रगान तक इस भाव को समेट देती है? या उसके भीतर कोई गहरा द्वंद्व उठता है, जहाँ वह अपनी स्वतंत्रता के बारे में सोचने लगती है। देश आज़ाद कराने को गांधी मिल गए लेकिन स्त्री की आज़ादी के लिए कौन पुरुष खड़ा होगा। कौन कहेगा कि तुम हँसो, घूमो, बोलो, बताओ तुम्हारी ओर किसी बदजात की नजर नहीं उठेगी। द्रोपदी को कृष्ण जैसा सखा मिला। स्त्री के जीवन में कौन ऐसा सहृदय सखा बनेगा जो अपनी उपलब्धियों में स्वतंत्र चेता स्त्री को शुमार कर ले? क्योंकि भारतीय स्त्री की स्वतंत्रता की अनुभूति का मार्ग सामाजिक, सांस्कृतिक और मानसिक जटिलताओं से होकर गुजरता है। बचपन से ही जिस घर में उसे "लड़की" के रूप में विशेष निगरानी, सीमाओं और नैतिकता के नाम पर बंधन दिए जाते हैं, वहाँ स्वतंत्रता की पहली अनुभूति कैसे मिले?
परतंत्र स्त्री शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता की बात सोच भी कैसे सकती है। जबकि शिक्षा और आजीविका भारतीय स्त्री के लिए स्वतंत्रता की रीढ़ हैं। अगर निर्णय लेने की स्वीकृति स्त्री को मिल जाए तो वह खुद कमा भी सकती है, अपनी जरूरतों के साथ परिवार का ख़याल भी रख सकती है। और जब वह स्वतंत्र इकाई की तरह समझी जाएगी तब उसका आत्मबल बढ़ेगा और जब आत्मबल बढ़ेगा तो उसकी संतान निर्भीक जन्मेंगी। जब संतानें निर्भीक जन्मेंगी तब देश सच में सुंदर और ताकतवर होगा। एक शिक्षित और आत्मनिर्भर स्त्री अपनी सोच, मत और अस्तित्व को दृढ़ता से घर, परिवार, समाज को उज्जवलता से स्थापित कर सकती है।
स्त्री को किसी पर हो या न हो अपनी देह पर अधिकार होना ही चाहिए। मानसिक स्वतंत्रता यहीं से विकसित होती है। क्योंकि भारतीय समाज में स्त्री की देह को नियंत्रित करने की कोशिशें बहुत गहरी बैठी हैं। यदि एक स्त्री यह कह सके कि "मेरी देह, मेरी है", और उसके साथ किसी भी तरह की हिंसा न हो। किसी की इच्छा थोपे जाने पर वह विरोध कर सके, तब वह मानसिक रूप से स्वतंत्र होती जाएगी और निर्भीक भी। क्योंकि धर्म, परंपरा और रीति के नाम पर जिन बंधनों को तोड़ा जाना चाहिए था, उसी में स्त्री को ढाला जाता है। जबकि स्वतंत्रता का अर्थ केवल विद्रोह नहीं है, बल्कि विवेकपूर्ण जीवन का चयन है। जब स्त्री अपनी धार्मिक आस्था, त्योहारों, पहनावे या विवाह जैसी संस्थाओं को अपने ढंग से समझने और अपनाने लगेगी तब वह परंपरा के भीतर रहकर भी स्वतंत्र होती जाएगी। और जब ऐसा होगा तब समाज की स्थिति सुखद होगी। क्योंकि स्त्री कभी भी अकेले नहीं बदलती, उसके साथ जो होगा बदलता चला जाएगा, उसका परिवार और वातावरण।
माँ, पत्नी, बहू के रूढ़ भूमिकाओं से बाहर सोच पाना आज भी स्त्री के बस की बात नहीं। स्त्री के लिए स्वतंत्रता एक बड़ी चुनौती है कि वह पारंपरिक भूमिकाओं से बाहर निकलकर एक व्यक्ति के रूप में देखी जाए या दब्बू बनकर रूढ़ियों में जकड़ी बदचलन स्त्री बनकर अपना ही बंटाढार कर बैठे। सुंदर बात तो तब होगी जब एक स्त्री कह सके कि "मैं केवल माँ या बहू नहीं, एक सोचने-विचारने वाली इंसान भी हूँ," सही मायने में तब वह स्वतंत्रता को जी पाएगी और स्वतंत्रता को जन्म दे पाएगी।
आज भी स्त्री अपने सपनों को बिना शर्मिंदगी के न कह पाती है और न ही जी पाती है। अपने सपनों को परिवार की "इज्ज़त" या बच्चों की जिम्मेदारी के नाम पर त्याग देती है। जब कोई स्त्री चालीस की उम्र में नृत्य सीखने जाए, या पचपन की उम्र में अकेली यात्रा पर निकल जाए और यह निर्णय उसे अपराधबोध से न भर सके तो समझो स्त्री सचमुच स्वतंत्र है।
नहीं तो स्त्री स्वतंत्रता एक ऐसा विषय है जो जितना पुराना है, उतना ही नया भी है। यह मात्र एक संवैधानिक अधिकार नहीं, बल्कि एक गहन मानवीय अनुभव है। आत्मा की पुकार है, जो देह, समाज और विचार की सीमाओं से परे जाने की आकांक्षा करती है। भारत जैसे देश में, जहां परंपरा और आधुनिकता दोनों समान गति से स्त्री के कंधे पर सवार होकर चलते हैं, इसलिए यहां स्वतंत्रता का अर्थ और भी जटिल हो जाता है।
अतीत में झाँकें तो भारत की सांस्कृतिक परंपरा में ऐसी स्त्रियों की एक समृद्ध परंपरा रही है, जिन्होंने अपने समय के बंधनों को तोड़ा और स्वतंत्रता की राह बनाई। मीराबाई एक राजघराने की बहू थीं, जिन्होंने कृष्णभक्ति के मार्ग को चुना, भले ही उन्हें समाज की स्वीकृति न मिली हो लेकिन अपनी कविता और भक्ति में वे इतनी निर्भीक थीं कि पति, परिवार और समाज के मानदंडों को त्यागकर आत्मा की पुकार पर चलती रहीं। रज़िया सुल्ताना भी इसी परंपरा की एक कड़ी हैं। एक मुस्लिम समाज में, जहाँ सत्ता केवल पुरुषों का क्षेत्र समझी जाती थी, वहाँ उन्होंने दिल्ली की गद्दी संभाली। शासक बनकर उन्होंने यह दिखाया कि स्त्री नेतृत्व कर सकती है, निर्णय ले सकती है और अपनी सत्ता के माध्यम से सामाजिक ढाँचे को चुनौती दे सकती है। निर्माण कर सकती है, उनकी शक्ति केवल शासन में नहीं थी, बल्कि उस व्यवस्था के विरुद्ध खड़े होने में थी जो उन्हें अपूर्ण मानती थी।
आधुनिक भारत में भी ऐसी ही कई स्त्रियाँ सामने आती रही हैं। जैसे सावित्रीबाई फुले ने शिक्षा को हथियार बनाया अपना पथ स्वयं प्रशस्त किया। वे भारत की पहली महिला शिक्षिका बनीं और बालिकाओं की शिक्षा के लिए कार्य करती रहीं। जबकि उन पर गोबर और पत्थर फेंके गए, लेकिन वे हार मानकर रुकी नहीं। वे जानती थीं कि ज्ञान ही वह रास्ता है जो स्त्री को भीतर से स्वतंत्र बना सकता है। उन्होंने न केवल लड़कियों के लिए स्कूल खोले, बल्कि विधवाओं के पुनर्विवाह, दलित अधिकारों और समाज सुधार के लिए भी संघर्ष किया।
कस्तूरबा गांधी, जो अक्सर महात्मा गांधी की छाया में देखी जाती रही हैं, स्वयं में एक मजबूत विचारधारा थीं। उन्होंने सत्याग्रह किया, जेल गईं और स्त्रियों को संगठित करने का कार्य किया। स्वतंत्रता संग्राम केवल पुरुषों की लड़ाई नहीं थी। सुभाषचंद्र बोस की आज़ाद हिन्द फ़ौज की लक्ष्मी सहगल हों या झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, प्रत्येक स्त्री ने यह साबित किया कि स्वतंत्रता की माँग जब उठती है, तो स्त्रियाँ सबसे पहले आगे आती हैं। लेखन और विचार के क्षेत्र में महादेवी वर्मा और अमृता प्रीतम जैसी स्त्रियों ने आत्मा की गहराई से नारी-स्वतंत्रता को आवाज़ दी। महादेवी वर्मा ने 'श्रृंखला की कड़ियाँ' में लिखा, “नारी का व्यक्तित्व कोई वस्तु नहीं जो किसी के हाथों में सौंपी जाए।” अमृता प्रीतम विभाजन की त्रासदी से झुलसती स्त्री की आवाज़ बनी, उनकी पंक्तियाँ “अज आक्क्हां वारिस शाह नू...” केवल कविता नहीं, इतिहास में दर्ज एक स्त्री पुकार है। वर्तमान समय की स्त्रियाँ भी इसी परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं, लेकिन अब उनकी लड़ाइयाँ बदली हुई हैं। अब लड़ाई केवल अधिकार की नहीं, बल्कि पहचान की भी हैं। महिलाएँ अब सवाल पूछती हैं। "क्या मैं सिर्फ माँ हूँ, पत्नी हूँ, बेटी हूँ, या इन सबके अलावा कुछ और भी?" अब स्त्री स्वयं को परिभाषित करना चाहती है।
बॉलीवुड और टेलीविजन में काम करने वाली अभिनेत्रियों में न अभिनय कर सकती हैं बल्कि निर्देशक भी बन सकती है। वे न केवल अपने किरदारों के चयन में स्वतंत्र हैं, बल्कि सामाजिक मुद्दों पर भी अपनी स्पष्ट राय रखती हैं। वहीं अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मलाला यूसुफ़ज़ई जैसी युवतियों ने यह स्पष्ट किया कि कलम और किताब से बढ़कर कोई अस्त्र नहीं। इस परिदृश्य भिन्न एक परिदृश्य और है, जहां आज भी बहुत-सी स्त्रियाँ घरेलू हिंसा, बलात्कार, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न और दहेज की भेंट चढ़ रही हैं। इन घटनाओं के पीछे केवल अपराध नहीं, बल्कि एक गहराई से जड़ जमा चुकी मानसिकता है, जो मानती है कि स्त्री का शरीर, उसकी इच्छा, उसकी आवाज़ किसी और के नियंत्रण में रहनी चाहिए। यह मानसिकता ही स्त्री की वास्तविक स्वतंत्रता में सबसे बड़ा अवरोधक है।
स्त्री की स्वतंत्रता का एक गहरा आयाम उसकी देह के अधिकार से जुड़ा है। आज भी स्त्रियों को उनके पहनावे, चाल-ढाल, प्रेम-संबंधों और गर्भधारण से जुड़ी बातों पर कठघरे में खड़ा किया जाता है। क्या एक स्त्री यह तय नहीं कर सकती कि वह माँ बनना चाहती है या नहीं? क्या वह बिना अपराधबोध के प्रेम कर सकती है? क्या वह अपनी यौनिकता को स्वीकार कर सकती है बिना समाज की भृकुटियाँ उठे? यहाँ पर हमें निराला की वह पंक्ति याद आती है, “तोड़ो तोड़ो जल्दी तोड़ो, मुझको स्वच्छंद विचारने दो।” यह पुकार आज की स्त्री की पुकार है, जो पिंजरे में नहीं, उड़ान में विश्वास करती है। वह प्रेम करती है, गलती करती है, लड़ती है, गिरती है, उठती है लेकिन यह सब अपनी मर्ज़ी से करती है। यही उसकी सबसे बड़ी स्वतंत्रता है। महादेवी वर्मा कहती हैं कि स्त्री का सबसे बड़ा संघर्ष है “अपने ही भीतर की पराई स्त्री से।” समाज की दी हुई परिभाषाएं इतनी गहराई तक उतर जाती हैं कि स्त्री स्वयं को उसी तराजू पर तोलने लगती है। वह अपने सपनों से समझौता करती है, अपनी इच्छाओं को दबा देती है और उसे कर्तव्य का नाम दे देती है। लेकिन अब समय आ गया है कि वह अपने भीतर की इस पराई स्त्री से विदा ले, और अपनी असली पहचान को अपनाए। आज की स्त्री लेखन कर रही है, अभिनय कर रही है, विज्ञान में शोध कर रही है, विमान उड़ा रही है, सीमा पर देश की रक्षा कर रही है। लेकिन उसके लिए सबसे कठिन काम, स्वयं को स्वयं स्वीकारना।
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बहुत सार्थक आलेख आदरणीया कल्पना मनोरमा जी। आपने हर परिप्रेक्ष्य में अपनी बात रखी और सभी काल से उदाहरण दिए। हर बिंदु को समेटे शानदार आलेख के लिए हार्दिक बधाई
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