बिना बिके तुम बच नहीं सकते
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जनसन्देश टाइम्स में आज (01.08.2025) |
"बिना बिके तुम बच नहीं सकते"— इस लेख में मैंने कोशिश की है समझने की कि आज बाज़ार सिर्फ चीज़ें नहीं बेचता, वह हमारी सोच, हमारे रिश्ते, यहां तक कि यादों तक को भी अपने दायरे में ले आया है।कार्ल मार्क्स और अर्जुन अप्पादुराई जैसे विचारकों की मदद से मैंने बाज़ार के बदलते चेहरे को देखा है। यह लेख जनसंदेश टाइम्स के आज के अंक में प्रकाशित हुआ है।
बिना बिके तुम बच नहीं सकते
बाजार अब कोई स्थल नहीं रहा, वह एक प्रवृत्ति बन चुका है। एक ऐसी जीवंत, चतुर, न थकाने वाली व्यवस्था, जो हमारे सपने, हमारे शरीर, हमारे विचार और यहां तक कि हमारे रिश्तों को भी उत्पाद में बदल चुकी है। बाजार अब केवल व्यापार करने का ठौर नहीं, हमारी चेतना पर छाया हुआ तकनीकी सांस्कृतिक परिदृश्य है, जिसमें मनुष्य नहीं, उसकी उपयोगिता मायने रखती है।
बाज़ार मनुष्य के सद्गुणों की नहीं, उसकी आवश्यकओं की सराहना करता है। क्या लगता है तुम्हें, कि तुम कुछ खरीद रहे हो? नहीं, बाज़ार तुम्हें खरीद रहा है। तुम जैसे हो, जहाँ हो, जितने हो, बस बिक रहे हो।
हमारे समय का सबसे बड़ा निर्देशक और कोई नहीं, बाज़ार है। अब, सब वही तय करता है कि मनुष्यों को क्या करना चाहिए, किस रंग के परिधान चाहिए, किस सेल में जाना चाहिए और कौन से ‘इन्फ्लुएंसर’ की बात मानना चाहिए। जो चीज़ कल तक आवश्यकता और सहूलियत थी, आज उसकी जगह ‘ट्रेंड’ ने ले ली है। और ‘ट्रेंड’ की कमान बाजार ने मजबूती से थाम रखी है। इसीलिए बाज़ार कभी चुप नहीं बैठता। चौबीसों घंटे मुखातिब रहकर फोन में, टीवी में, फेसबुक में, और चमकीले विज्ञापनों में बोलता रहता है। रोज़मर्रा के रास्तों पर लगातार बाजार अपनी छटा बिखरे खड़ा दिखता है। यानी बाज़ार जरूरतों को क्रिएट करता है, फिर उनके ऊपर से हमारी आँख हटने नहीं देता। बाज़ार और व्यक्ति के बीच अब एक ऐसा अदृश्य तार जुड़ चुका है, जिसे पल पल खींच दिया जाता है। और इंसान मंजीरे सा बज उठता है।
बाजार बाहर की जगह नहीं, हमारे भीतर चौकड़ी मारकर बैठ चुका है।
बाज़ार ‘सादगी’ को भी भुनाना जानता है और चंचलता तो उसके इशारों पर नाचती ही है। बाज़ार कहता है, खुद से संतुष्ट रहना, माने पिछड़ जाना। पिछड़ी हुई मानसिकता के हवाले हो जाना है। आत्मनिर्भरता वाले इस युग में इंसान में कोई विशेष गुण नहीं चाहिए, बस एक अविकसित स्थिति हो, जिसे सिर्फ बाज़ार भुनाता और समझता रहे।
"तुम जैसे हो, वैसे मत रहो। खुद को बेहतर बनाओ। अगर तुम्हारे पास जुगाड़ नहीं, तो तुम हां कहो बस, मेरे पास तुम्हारे लिए बेस्ट पैकेज है।" बाजार हर वक्त चीखता रहता है।
इस भौतिकतावादी स्थिति को सबसे पहले कार्ल मार्क्स ने पहचाना था, जब उन्होंने ‘वस्तु-पूजा’ (Commodity Fetishism) की अवधारणा दी थी। उनके अनुसार पूँजीवादी समाज में न केवल वस्तुएँ, बल्कि मनुष्य के श्रम, भावनाएँ और संबंध भी वस्तु की तरह प्रस्तुत किए जाते हैं — जिनका मूल्य अब उनकी उपयोगिता नहीं, बाज़ार में उनकी विनिमय क्षमता से तय होता है।
बाजार को मनुष्यों से कोई लेना देना नहीं। उसकी नज़र तो कंज्यूमर पर है। उसे उपभोक्ता चाहिए – माने एक ऐसा प्राणी जो लगातार कुछ मांगता रहे। जो सोचने की बजाय मोबाइल पर कहां सबसे अच्छी डील चल रही है, स्क्रॉल करता रहे। जो असलियत को अनुभव और जीवन चित्रों की जगह वर्चुअल छवियों से तृप्त होता रहे। बाज़ार जानता है कि अगर इंसान जागरूक हुआ तो वह अपनी जरूरतों और गैरजरूरी जरूरतों को निश्चित ही समझ लेगा इसलिए ऐसे व्यक्ति से खतरा हो, उसके पहले ही धुरी पर धरकर उसे नाचने लगता है।
बाज़ार को एक उलझा हुआ, भ्रमित और इच्छाओं से लबालब व्यक्ति चाहिए जो उसका स्थायी ग्राहक बन सके।
बाज़ार असीमित है। नगरीय दीवारों को लांघ कर वह गाँवों तक पहुंच चुका है। वहाँ भी अब ‘हल चलाने’ की बात नहीं की जाती। स्मार्ट फोन से स्मार्ट बीज बिकते हैं। बीजों वाला "पैकेज्ड फसल" का विज्ञापन दिखाया जाता है। वहाँ अब किसान नहीं, "रूरल इन्वेस्टर" तैयार किए जा रहे हैं। क्योंकि बाज़ार को उपभोक्ता के पास करोड़ों की रकम नहीं, भावुक मन चाहिए, जिससे व्यक्ति बाज़ार के इशारों पर नाचता हुआ, एस आईपी, फ़िक्स्ड या म्यूचुअल फंड में अपनी गाढ़ी कमाई इन्वेस्ट कर सके।
तुम्हारे पास जो भी हो, वही और उतना ही बाज़ार को सौंप दो। गांव वालों के लिए मिट्टी भी बोतल में बंद कर ऑर्गेनिक मड ब्रांड बना दी गई है। 'डिज़ाइनर देसीपन' के नाम से बाज़ार चार गुना ज्यादा कमा रहा है।
बाज़ार केवल हमारी जरूरतों को भुनाने में नहीं, बल्कि हमारे भावनात्मक रिश्तों को भी उसने बेचने योग्य बना डाला। मां के हाथ का खाना ‘होम डिलीवरी’ में बदला जा चुका है। त्योहार अब उल्लास लेकर नहीं, डिस्काउंट लेकर आते हैं। दीवाली के दीप अब बिजली के सजावटी बल्बों से हार चुके हैं। रक्षाबंधन अब भाई-बहन की भावना नहीं, "कॉम्बो ऑफर" लिए चला आता है।
बाजार हमें कभी भी ठोस भरोसा नहीं देता, मगर अपनी उम्मीद जरूर बेच देता है। वह कहता है – "तुम्हारी पहचान वही है, जो तुम खरीदते हो।"
बाज़ार इंसान को 'कंटेंट' बनाता जा रहा है। इंसान की भावनाओं और बातों को 'रील', हँसी को 'इमोजी', और आँसुओं को 'क्लिकबेट' बना दिया है। और आत्ममुग्धता की धारा में बहते हुए लोग यह भूल चुके हैं कि कहीं हम अपने आप को खोते तो नहीं जा रहे हैं?
इंसान को लगता है कि बाजार के पास हर सवाल का जवाब है। बेवकूफ़ है इंसान! बाज़ार जवाब देने से पहले सवाल ही बदल देता है। वह इंसानी दुख की छाती पर सवार होकर अपने सामन की बिक्री करता है। अगर तुम्हारे भीतर बेचैनी है, तो वह घटाएगा नहीं, और बढ़ाएगा क्योंकि उसी के सहारे वह ज्योतिषियों, डॉक्टरों, टोटकों और हेल्दी फूड का कारोबार करेगा। इंसान को नए कपड़े, नई घड़ी खरीदने के लिए उकसाएगा। क्योंकि ये सब चीज़ें खराब मन को सुंदर बना देती हैं। परेशान हो तो ‘फ्रेंच परफ्यूम लगाओ’, ‘ट्रेंडिंग पाउडर लो’ और अगर तुम्हारी आत्मा मलिन हो रही हो तो भी उसे ‘स्पिरिचुअल रिट्रीट पैकेज’ में तब्दील कर तुम्हारे हित में खड़ा दिखेगा।
इस गहराते हुए बाज़ारीकरण को भारतीय समाजशास्त्री अर्जुन अप्पादुराई ने ‘संस्कृति के वैश्विक प्रवाह’ में एक चेतावनी की तरह देखा है। उनके अनुसार आधुनिक बाज़ार केवल वस्तुएँ नहीं बेचता, वह हमारी स्मृतियाँ, कल्पनाएँ, पहचान और आकांक्षाएँ, सब कुछ उपभोग के लिए तैयार करता है। यानी, अब बाजार जीवन नहीं, जीवन की कल्पना को उड़ान और आत्मा को नियंत्रित करता है।
अब यह तय कर पाना कठिन है कि इंसान को बाजार की जरूरत है, या बाज़ार को इंसान की, क्योंकि हर ओर कानफोड़ू शोर ही शोर है।
तकनीकी युग में सबसे बड़ा खतरा, अपने अस्तित्व को सुरक्षित बचाए रखने का है। इंसान अगर सचेत होकर सोचेगा नहीं, तो बाजार उसे बेच डालेगा। मानवीय सवालों पर ‘डिस्काउंट’ के जवाब लिखेगा। इंसानी असहमति को ‘अनब्रांडेड’ घोषित कर देगा। और फिर धीरे-धीरे, उसके सपनों को, आत्मा और भाषा को छोटे-छोटे टुकड़ों में किसी न किसी विज्ञापन की पंक्ति में बाँध कर गली-मुहल्ले-नुक्कड़ों पर चिपका देगा।
अब तो कुछ ऐसा हो कि बाजार इंसान को बेचने न पाए, मगर ऐसा हो पाएगा, लगता नहीं। क्योंकि बढ़ी हुई जरूरतें बाबा की दाढ़ी नहीं, जब चाहो छिलवा डालो। अपनी जरूरतों को सिकोड़ना, सोचना, रुकना, टालना, सीखना कठिन होगा। मगर कुछ भी खरीदने से पहले, खुद से पूछना जरूर होगा कि जो लेने जा रहे हो, क्या इसके बिना रह सकते हो ? अगर हां, तो गाड़ी को पार्किंग एरिया से मत निकालिए।
क्योंकि बाजार का अंतिम सत्य ही यही है – अगर तुमने खुद को नहीं बचाया तो बिना बिके तुम बच नहीं सकते।
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