कहानी संग्रह "एक दिन का सफ़र" से लेखक की बात


   मानव सभ्यता के चिह्न अपनी भव्यता और समान्यता के साथ समय-शिला पर अंकित रहते हैं। भले ही हम उन्हें पढ़ सकें या नहीं, लेकिन जो कुछ भी आकाश से झरता है, उसे धरती सहेज लेती है। मानवीय दुनिया एक अबूझ, अकल्पित दुनिया है।


दुःख…? इच्छित वस्तु प्राप्त न होने से उत्पन्न भाव ही दुःख है। जीवन हम में नहीं, हम जीवन में रहते हैं। और जब तक जीवन में हम रहते रहेंगे, किस्से–कहानियाँ बनती रहेंगी। हर किसी के पास अपनी एक मौलिक कहानी होती है। कोई उसे मौखिक रूप में कहकर मन का बोझ हल्का कर लेता है, तो कोई उसे लिख देना चाहता है ताकि अगली पीढ़ियाँ मानवीय अनुभवों से दो-चार होने से पहले सजग हो सकें।


साहित्य लेखक और पाठक दोनों की आत्मिक चेतना को जाग्रत कर जीने की राह दिखाता है। जब कोई व्यक्ति लेखन के भाव में रम जाता है, तब उसकी आत्मा धीरे-धीरे लेखक में परिवर्तित होने लगती है, और तब लिखे बिना चैन नहीं आता। लेखन एक संश्लिष्ट जिजीविषा है, जो उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। मानवीय आंतरिक उद्वेग को अभिव्यक्त करने का माध्यम लेखन के अतिरिक्त और क्या हो सकता है?


मेरी लेखकीय यात्रा शायद सदियों से रही हो क्योंकि जीवन में कुछ भी अचानक नहीं होता। न जाने कितने जन्मों के सिंचित कर्म रहे होंगे, जो अब रचनात्मकता के रूप में अंकुरित हो सके। मेरी यात्रा कविता से शुरू हुई, छंद में ठहरी और अब गद्य की पटरी पर आगे बढ़ रही है।

 हाँ, इतना अवश्य अनुभव करती हूँ कि जब से लेखन ने मेरा हाथ थामा है, वह मनसा, वाचा और कर्मणा से मुझे परिष्कृत करता आ रहा है। जहाँ कविता अनुभूति को कहने का क्षणिक माध्यम बनी, वहीं कहानी ने मेरी कलम को व्यापक फलक प्रदान किया। कविता की तरह कहानी भी पहले मन में अवतरित होती है। लेकिन जब वह वैचारिक धरातल पर आकार लेती है, तो पहले लेखक को ही उद्वेलित करती है। लेखक का बाहरी जीवन सामान्य दिखता है, परंतु उसकी आंतरिकता, मानसिकता और अनुभूतियाँ अव्यवस्थित हो जाती हैं। जब एक कहानी पूरी कर उठती हूँ, तो वैसी नहीं रह जाती जैसी कहानी लिखने से पहले थी। यही रचनाधर्मिता का औदार्य है, और साहित्य का उत्सव भी। इसी क्रम में एक नवगीत-संग्रह और दो काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उतनी ही अप्रकाशित काव्य-सामग्री अभी भी सुरक्षित है, जो समय आने पर प्रकाशित की जाएगी।


मैं सदा मानती आई हूँ कि दुःख को कह देने से उसका क्षय प्रारंभ हो जाता है।


इस संग्रह की कहानियों के पात्रों के माध्यम से मुझे भी उन विचारों से मुक्ति मिली है जो शब्दों, दृश्यों, बातों या घटनाओं की सिलवटों में फँसकर मन को पीस रहे थे। किसी ने ठीक ही कहा है, कहानियाँ दुःख की होती हैं, सुख में कहानी कहने की क्षमता नहीं होती। सुख प्रेम गढ़ता है, क्योंकि प्रेम में अहम् तिरोहित हो जाता है। जहाँ अहम् ही नहीं रहेगा, वहाँ कहानियाँ नहीं बनेंगी। अहम् में जीने वाले स्वयं भी दुःख में रहते हैं और दूसरों को भी उसमें घसीटते हैं। अतः यह सच है कि दुःख कहानियों का कच्चा माल होता है। इन कहानियों में भी एक लंबे, विस्तृत कालखंड के दौरान देखे–सुने–भोगे गए वे ही मानवीय दुःखहैं जिन्हें कोई आत्मीयता से सुन नहीं सका। शायद यदि कोई सुन पाता तो ये कहानियाँ न बनतीं। संवेदनाओं के मंथन से साहित्य स्फुटित होता है, फिर चाहे वह मौखिक हो या लिखित।


“एक दिन का सफर” शीर्षक के संबंध में यदि कुछ कहना चाहूँ, तो बस यही कि जिस प्रकार गुलमोहर अपने अस्तित्व के लिए किसी के योगदान की अपेक्षा नहीं करता, वह अपने ढंग से खिलता, झरता और बीच की अवधि में शोभा लुटाता है, उसी तरह इस संग्रह के अधिकतर पात्र भी हैं।


भारतीय समाज हो या अन्य समाज… वह स्त्री से भी इसी गुलमोहर जैसे होने की उम्मीद करता है। पुरुष का होना सबका होना है, लेकिन स्त्री का होना सिर्फ उसका अपना होता है, और वही सबसे कठिन होता है।"ज़िन्दगी का मक़सद ज़िन्दगी के भेदों तक पहुँचना है और दीवानगी इसका एकमात्र रास्ता है।"
                                                                                              — खलील  जिब्रान


खलील जिब्रान के इस कथन से पूर्ण सहमति रखते हुए कह सकती हूँ कि जब से मेरा लेखन आरम्भ हुआ है, तब से वह अनवरत चला आ रहा है। जैसे किसी भीतर छिपे सत्य की तलाश में यह यात्रा जारी है — उसी तलाश ने मुझे कलम उठाने को प्रेरित किया। इस संग्रह की कुछ कहानियाँ देश की चर्चित पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं और पाठकों द्वारा सराही गईं। पाठकीय टिप्पणियाँ और समीक्षात्मक लेख मेरी लेखनी को हौसला और निरन्तरता देते रहे हैं। मैं उन सभी पाठकों, लेखक-मित्रों और आत्मीय जनों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करती हूँ जिन्होंने मेरी लेखनी पर विश्वास बनाए रखा और आगे भी लिखने के लिए प्रेरित किया। अब यह पहला कहानी-संग्रह “एक दिन का सफर” आपको सौंपते हुए मैं गहरा लेखकीय संतोष अनुभव कर रही हूँ। अंत में, विनम्र भाव से उन सभी का आभार व्यक्त करती हूँ, जिनका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस यात्रा में सहयोग मिला।


— कल्पना मनोरमा
14.07.2023




लेखक परिचय

कल्पना मनोरमा का जन्म 4 जून 1972 को इटावा, उत्तर प्रदेश में हुआ। उन्होंने कानपुर विश्वविद्यालय से संस्कृत एवं हिंदी में स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त की है तथा हिंदी विषय में बी.एड. किया। लगभग दो दशकों तक वे माध्यमिक विद्यालय में हिंदी और संस्कृत की अध्यापन सेवा में रहीं। इसके अतिरिक्त उन्होंने शैक्षिक प्रकाशन संस्थानों में वरिष्ठ संपादक और हिंदी काउंसलर के रूप में भी कार्य किया है। वर्तमान में वे स्वतंत्र लेखन और पत्रकारिता में सक्रिय हैं।

कविता, कहानी, आलोचना और साक्षात्कार की विधाओं में सतत लेखन करते हुए कल्पना मनोरमा ने ‘कब तक सूरजमुखी बनें हम’ (नवगीत संग्रह), ‘बाँस भर टोकरी’, ‘नदी सपने में थी’ तथा ‘अँधेरे को उजाला मत कहो’ जैसे उल्लेखनीय कविता संग्रह, और ‘एक दिन का सफ़र’ नामक कहानी संग्रह प्रकाशित किए हैं। उनके साक्षात्कार संग्रह ‘संवाद अनवरत’ को भी गंभीर पाठकीय सराहना प्राप्त हुई है।

लेखन के साथ-साथ संपादन के क्षेत्र में भी उन्होंने विशिष्ट योगदान दिया है। पुरुष-पीड़ा विषयक विशेष संदर्भों पर आधारित दो चर्चित कहानी संग्रओं का पंजाबी, उर्दू और उड़िया भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है।

ह—‘काँपती हुईं लकीरें’ और ‘सहमी हुईं धड़कनें’—का उन्होंने संपादन किया है। उनकी रचनानई शिक्षा नीति (NEP) के अंतर्गत उनका निबंध ‘सूचनाओं के दौर में हंस विवेक की दरकार’ और कहानी ‘पहियों पर परिवार’ महाराष्ट्र के संत गाडगेबाबा अमरावती विश्वविद्यालय के बी.कॉम प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किए गए हैं। उनकी कहानी ‘हँसो, जल्दी हँसो’ को ‘स्वस्थ जीवन साहित्य’ प्रोजेक्ट में चयनित किया गया है।

लेखन के लिए उन्हें ‘सूर्यकांत त्रिपाठी निराला सम्मान’, ‘लघुकथा लहरी सम्मान’, ‘आचार्य सम्मान’, ‘काव्य प्रतिभा सम्मान’, ‘साहित्य समर्था टिक्कू पुरस्कार’ तथा ‘धनपति देवी पुरस्कार’ जैसे अनेक सम्मानों से अलंकृत किया गया है।

📩 संपर्क: kalpanamanorama@gmail.com



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