सुविख्यात लेखक मृदुला गर्ग से कल्पना मनोरमा की बातचीत
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21 वर्ष की मृदुला गर्ग |
कल्पना मनोरमा: आपने लिखना कब से शुरू किया? किसकी प्रेरणा से या स्वस्फूर्त। पहली कहानी/ कविता/आलोचना कौन सी थी? आपने जब लिखना प्रारंभ ही किया था, वह दौर कैसा था? साहित्यिक, सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत तौर पर।
मृदुला गर्ग: 1972 में। पूर्ण रूप से स्वत:स्फूर्त। अगर प्रेरणा कोई थी तो तब तक, जुनून की तरह पढ़े गए, कई भाषाओं के साहित्य की रही होगी। पहली रचना कहानी थी। नाम था “रुकावट।” सारिका में छपी थी। कमलेश्वर के संपादन में। सामाजिक दौर की कहें तो सबकुछ अत्यंत धीमी गति से चलता था। रोजमर्रा का जीवन, आर्थिक प्रगति, राजनीतिक सरगर्मी। समय समय पर होने वाले साम्प्रदायिक दंगों के बावजूद, उन्हें ले कर कोई राजनीतिक गहमा गहमी नहीं थी। मान कर चला जाता था कि वे होंगे और निबट जाएंगे। साझा संस्कृति में कोई मूलभूत बदलाव नहीं आएगा। अचरज कि विभाजन के बावजूद आया भी नहीं। हमारे दोस्त, कलाकार, कामगार, शिल्पी आदि, मुसलमान ज्यादा हिन्दू कम थे। आज की तरह पूरे समाज में नस्ली नफरत का माहौल कतई नहीं था। अलबत्ता जातीय भेदभाव बेहद विकट था और आई.आई.टी जैसे उच्च तकनीकी संस्थान तक व्याप्त था। विद्रूप यह कि बाबा साहेब अंबेडकर के बावजूद उस पर कोई बहस मुहाबसा नहीं होती थी। मराठी में दलित साहित्य का जोरदार आरंभ हो चुका था। पर हिन्दी में उस पर बात होना ही, समझो बहुत था। नामदेव ढसाल एक क्रांतिकारी नेता की तरह मशहूर जरूर थे पर उनका अनुकरण करके, हिंदी साहित्य में तांडव को साधने का प्रयास किसी ने नहीं किया था। फिर भी, इस मसले को लेकर साहित्य, समाज की तरह ठस्स नहीं था। पर साहित्य जगत में दूसरे प्रकार का वर्चस्ववाद था। उन दिनों मार्क्सवाद का बोलबाला ही नहीं, एकल आधिपत्य था। जो मार्क्सवादी नहीं, वह लेखक नहीं। कहता है कि है तो रूपवादी व समाजद्रोही होगा या स्वान्त:सुखाय लिखने वाला स्वार्थी जीव। हमेशा की तरह मैं सत्तासीनों के विपक्ष में थी। चाहे वे मार्क्सवादी हों या अद्भुत रस में लीन। पारिवारिक तौर पर हम बुद्धिजीवी और उदार थे; हर प्रकार की वैचारिक स्वतंत्रता के पक्षधर। व्यक्तिगत तौर पर मैं अव्वल दर्जे की मूर्ति भंजक और किताबी कीड़ा थी। परिवार के काफी अन्य बाशिंदे इसमें शामिल थे। मां, पिताजी, बहने, चाचा लोग; उनकी और मेरी मित्र मंडली, सब एक नंबर के विरोधी, प्रतिरोधी थे। साथ ही, हिंदी व अंग्रेजी के साथ अनुवाद में रूसी, फ्रांसीसी, बांग्ला, कन्नड़ आदि साहित्य के रस में गहरे फंस -धंस कर खुश भी खूब थे।
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अहमद फ़राज़ और मृदुला गर्ग, मालदीव्स 2003 |
कल्पना मनोरमा: जैसा कि आपने कहा “तब सांप्रदायिक दंगों को लेकर राजनीतिक गहमागहमी नहीं होती थी।” आज के हालत वैसे नहीं रहे। डिजिटल प्लेटफॉर्म पर स्वत: प्रकाशन और बिना तात्विक ज्ञान के अपने मन की कह लेने की जल्दी ने लेखकीय मर्यादा का भी क्षरण किया है ? यानी वर्तमान समय की विद्रूपता में इज़ाफ़ा करने वालों में राजनीतिक लोग तो हैं ही और कौन हैं ? शांति स्थापन के क्रम में किसे आगे आना चाहिए?
मृदुला गर्ग: हर नागरिक जिम्मेवार है। खास कर तमाम हिन्दू क्योंकि वे बहुसंख्यक हैं। हर नागरिक को दिमाग से काम ले कर सहिष्णु बनना होगा। आखिर हमीं तो वोट दे कर कट्टरपंथियों से सरकार बनवाते हैं न। अब तक तो बनवाते आए थे। अब चुनाव और वोट गिनने में ही धांधली होने लगी तो अल्लाह मालिक है। सब तानाशाह की भेंट हो जाएगा। हिटलर को भी वोट दे कर ही चुना गया था जर्मनी में। ठीक वही हाल अपने यहां है। सरकार खुद कुछ नहीं करती। लोकतंत्र में उससे करवाना पड़ता है। अगर अधिकतर नागरिक लोकतंत्र चाहते ही नहीं तो वह बना कैसे रहेगा। हँसी भी आती है कि बहुसंख्यक होते हुए भी हिंदू अपने को हमेशा खतरे में बतलाते रहते हैं! ऐसी भी क्या हीन ग्रंथि !! अगर तर्क बुद्धि लगा कर आकलन किया जाए तो इसका कारण यह मिलेगा। चूंकि हिंदू संस्कृति या धर्म में शुरू से जाति विभेद रहा है, उन्हें जन्मजात असमानता को, बिला शर्मोहया कुबूल करने की आदत पड़ गई है। एक तरह की जन्मजात असमानता को कुबूल करते हैं तो उनसे यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वे अन्य क्षेत्रों में समानता को मान कर व्यवहार करें। निजी ज़िंदगी में जो जाति को नहीं मानते, वे भी उसके अंतर्गत होने वाले शोषण और अत्याचार से असहज महसूस नहीं करते। क्योंकि यही उन्होंने अपने पूरे जीवन में हर जगह घटते देखा है।अपने से निचली जाति के सिर पर ऊंची जाति के हिन्दू हमेशा से सवार रहते आए हैं। उन्हें जानवरों से बदतर मानते हैं। सोचते हैं उनका काम उनकी सेवा करना है। यहाँ तक कि निम्न जाति का दूल्हा, घोड़ी पर चढ़ कर अपनी बारात निकल ले तो उसे जान से मारने को तैयार रहते हैं। जानती हूं, यह अतिवादी स्थिति है। पर रोज़मर्रा के जीवन में भी आरक्षण के बावजूद उनका जीना मुहाल है। कम से कम जैन और बौद्ध धर्म में जाति भेद नहीं होता, जिसने घुन की तरह हिन्दू धर्म को चाट रखा है। न जाने कितने हिन्दू जन,जाति प्रताड़ना के कारण उसे छोड़ बौद्ध, जैन, क्रिश्चियन या मुसलमान बने। पर हंसी आती है कि इससे खुद पर शर्म करने के बजाय, हिन्दू खुद को श्रेष्ठ भी मानते रहे और हीनता बोध से भी ग्रस्त रहे। मैं जानती हूं, सहिष्णुता लाने की सारी जिम्मेवारी हिन्दुओं की नहीं है। पर जब तक वे बहुसंख्यक हैं, उन्हें यह जिम्मेवारी लेनी पड़ेगी। वरना स्थितियां बद से बदतर होती जाएंगी। सबसे ज्यादा ज़हर शिक्षित और तथाकथित बुद्धिजीवी ही फैलाते हैं। उनमें लेखक भी शामिल हैं। आम आदमी को तो दो दफा की रोटी का जुगाड़ करने से ही फुर्सत नहीं है। वह तो पैसे ले कर राजनीतिक रैली में, बतौर मजूरी आता है। क्या करे, रोज़गार तो देश में है नहीं।
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कल्पना मनोरमा: आपका ध्यान पुनः साहित्य की और मोड़ती हूँ. मृदुला जी जब आप साहित्य में स्थापित होने लगीं, तब का समय कैसा था ? उसके मद्देनजर अब आपको क्या बदलाव महसूस हो रहा है?
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दिनेश द्विवेदी और मृदुला गर्ग, होशंगाबाद 2009 |
मृदुला गर्ग: शुरुआत करने और स्थापित होने के बीच दो अंतर आए थे। आलोचना से मार्क्सवाद का आधिपत्य, एकलवाद से बदल कर “अनेक में एक होने” के प्रथम चरण में आ चुका था। दलित साहित्य को बाकायदा मान्यता मिलने लगी थी। मराठी दलित साहित्य में चोटी पर स्थापित आत्मकथा, हिन्दी में दलित छोड़, स्त्री लेखक को भी गिरफ्त में लेने लगी थी। पर सौभाग्य से स्त्री और पुरुष लेखन को दो ध्रुवों पर रख कर उसका मूल्यांकन करने का दुखदाई कार्य, इतनी भाव विह्वलता से शुरू नहीं हुआ था कि लेखन रखा जाए ताक पर, और स्त्री या पुरुष का ठप्पा मारकर ही आलोचना के लिए उतारा जाए। वरना मेरा उपन्यास “अनित्य” कुछ और पिटता कि वाह, कर लो बात! स्त्री ने कैसे लिख मारा ऐतिहासिक राजनीतिक उपन्यास और गांधीजी तक को तर्क के हवाले कर दिया? अजी साहित्यकार हैं, कोई तर्कशास्त्री नहीं। वह भी स्त्री विमर्श तक सीमित, लिंग से परिभाषित, ज़नाना अफसाना निगार!
कल्पना मनोरमा: साहित्य में स्त्री-लेखन आज भी पूर्ण स्वीकारता के लिए संघर्षरत है। वे कौन से कारण हैं जो लिखत को भी विभाजित कर स्त्री-पुरुष के मद्देनजर रखा जाता है। क्या कभी स्त्री रचनाकार को सम्मान से देखा जाएगा? या इसके लिए भी आंदोलन और किसी विशेष प्रकार के विमर्श की जरूरत पड़ेगी?
मृदुला गर्ग: इसके लिए स्त्री और पुरुष लेखक बराबर के जिम्मेवार हैं। स्त्री लेखक धड़ल्ले से तथाकथित स्त्री विमर्श की बैसाखी का सहारा ले कर, अपने लेखन को अलग खांचे में रखवाती हैं। रचना दृष्टि के बजाय लिंग के आधार पर स्थापित होने को, स्त्री अधिकारों पर बात करने को, या हद से हद अधिकारों की मांग करने को, जब वे विमर्श का दर्जा देती हैं, तो इससे उनके लेखन की श्रेष्ठता कैसे साबित हो सकती है? वैचारिक रूप से कोई भी व्यक्ति, स्त्री हो या पुरुष, स्त्रीवाद पर बहस कर सकता है कि उसके मानक क्या हैं या हों। पर उन्हें लेखन या साहित्य का अंग बनाना तो रचना की मूल प्रकृति, आज़ाद ख्याली और निजी दृष्टि की समृद्धि को खारिज करना है। जब तक स्त्री लेखक केवल अपनी रचनात्मकता के बल पर,अपने लेखन का अनुशीलन करवाने को तैयार नहीं होंगी, स्त्री पुरुष के लेखन के बीच यही हास्यास्पद अलगाव चलता रहेगा।
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मृदुला गर्ग, सारा राय, गीता हरिहरण, महेश दत्तानी, नबारुन, 2003 में जापान। |
कल्पना मनोरमा: आपके लेखन को प्रकाशित करने और करवाने में कौन संपादक, प्रकाशक ने दिलचस्पी दिखाई और लेखन के प्रति प्रोत्साहित किया?
मृदुला गर्ग: राजेंद्र यादव,लेखक व प्रकाशक; नेमीचंद जैन, आलोचक व प्रकाशक; मनोहरश्याम जोशी, बतौर संपादक; श्रीपत राय, बतौर संपादक।
कल्पना मनोरमा: क्या कभी इन संपादक और आलोचकों ने आपके लिखे में सुधार की मांग की ? और क्या इनकी मांग पर आपने बदलाव किए?
मृदुला गर्ग:नहीं। किसी संपादक ने मुझे कुछ बदलने के लिए नहीं कहा। अलबत्ता विचार विमर्श हुआ पर ज्यादातर कृति के नाम को ले कर। वह भी कई बार सोचने, बदलने के बाद अंतत: मेरे ही दिमाग से निकला। जहां तक आलोचक का सवाल है, वह तो कृति के छपने के बाद अपनी राय देता है। काफ़ी बार वे मुझे मार्क्सवाद पढ़ाने की कोशिश करते थे, जो मैने बाकायदा पढ़ा हुआ था, अर्थशास्त्र में। पर मार्क्स एक दार्शनिक था, जो सदियों तक समाज और राज्य व्यवस्था में आने वाले परिवर्तन को देख रहा था। उस की तरह प्रश्न उठाना मेरे साहित्य का अभिन्न अंग था। हमारे आलोचकों ने उसे समाज सुधारक बना दिया था। साहित्य, समाज की विसंगतियों को खोलता है और एक बेहतर, समांतर से कुछ विलग समाज की संरचना करता है। जैसे मार्क्स ने नहीं किया था, वैसे ही वह भी सीधे-सीधे सुधार नहीं करता। मुझे उनकी राय जानने से इनकार नहीं था। मंथन करके अपने वैचारिक संसार में वृद्धि कर सकती थी। पर कृति में बदलाव हर्गिज़ नहीं।
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गीतानजलि श्री और मृदुला गर्ग, "मिलजुल मन" के विमोचन पर, 2009। |
कल्पना मनोरमा: मृदुला जी, आप कविता और कहानी की विषय वस्तु लाती कहां से हैं? कहानी के किरदार कैसे बनाती हैं? कोई यादगार किरदार या काव्य नायिका नायक के बारे कहें, जिसने आपको सोने नहीं दिया हो
मृदुला गर्ग: जीवन से। अपने कम दूसरों के अनुभवों को, स्मृति,कल्पना व वांछा द्वारा फंतासी या गल्प में परिवर्तित करके जो एक नई अनुभूति पैदा होती है, वही कहानी का कथ्य बनती है। उसी प्रक्रिया के दौरान अनुभूत में जाने किरदार, अपना चोला बदल कर या आपस में घुल मिल कर फिक्शन के किरदार बन जाते हैं। मैं उन्हें नहीं चुनती, वे मुझे चुनते हैं। अपने को अनिद्रा रोग है। सो उपन्यास “कठगुलाब” के कई किरदार, मारियान, स्मिता, विपिन; “अनित्य” की संगीता और “मैं और मैं” के कौशल ने उसे और दीर्घायु तथा परेशानकुल अनिद्रा में बदला। खासकर कौशल ने। जितना जीनियस लेखक था उतना ही काबिल और दुस्साहसी चालबाज।
कल्पना मनोरमा: आपने कहा कि अपनी रचनाओं के कथ्य जीवन से चुनती हैं। एक लेखक भी व्यक्ति होता है और इस नाते उसकी भौगोलिक सीमाएं होती हैं। “अपने जीवन से कम…” आप बोल ही चुकी हैं तो दूसरे के जीवन में झाँकने के लिए आप किसी की स्थानीय परिधि तक जाती हैं? या आप किरदारों की खोज में लोगों से बातें करती हैं? या कल्पना लोक में विचरण कर आप जीवंत किरदार गढ़ लेती हैं? कहें प्लीज!
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इला अंजलि मेनन द्वारा मृदुला गर्ग को पुरस्कार प्रदान करते हुए, 2000 |
मृदुला गर्ग: किसी के जीवन में झाँकने की भला क्या ज़रूरत है? चारों तरफ सैकड़ों लोगों का जीवन बिखरा पड़ा होता है। उनसे साझा कोई क्षण, एक कहानी या उपन्यास का सूत्रपात कर देता है। आपस में गडडमडड हो कर, अनेक जीवन स्मृति के अंग बने रहने के बाद, फंतासी का रूप ग्रहण कर चुके होते हैं। जब कृति शुरू होती है तो यही फंतासी बनी स्मृतियां,संगत या विसंगत रूप में कृति और किरदार का हिस्सा बन जाती हैं। बस।
कल्पना मनोरमा: बेहद व्यक्तिगत प्रश्न है। चुंकि साहित्यकार का जीवन खुली किताब की तरह होता है। उसी नाते पूछ रही हूं कि आपने कभी किसी से प्रेम किया? कॉलेज या उससे पहले या बाद में....? अब और तब के भारतीय समाज में प्रेम की जटिलता, सफलता-असफलता को आप कैसे देखती हैं?
मृदुला गर्ग: जी, ऐसी कोई किशमिश नहीं होती जिसके सिर पर तिनका न हो। भला हम क्यों न प्रेम करते! कालेज वाला बचकाना प्रेम भी कोई प्रेम है! कालेज के बहुत बाद किया, दिलोदानिश के साथ देह के हर तंतु को झकझोर कर रख देने वाला प्रेम। पूरे होशोहवास में किया, समाज को ताक पर रख कर किया। समाज में प्रेम की जटिलता, सफलता, असफलता पर अपनी नजर कभी पड़ी नहीं। वैसे ही जैसे हमने अपना प्रेम या जीवन, खुली किताब की मानिंद किसी के सामने पटका नहीं। न अब पटकने का इरादा है। आपके प्रश्नों के उत्तर भर दे रहे हैं, लेखक हों भले, खुली किताब कदापि नहीं।
कल्पना मनोरमा: आपकी इस बात से सहमत हूं कि लेखक भले हों लेकिन अपने को खोलना उतना ही गवारा होना चाहिए जितना जरूरी हो बताना। मृदुला जी, आज प्रेम का स्वरूप बदल चुका है। आप इसे किस तरह से कहना चाहेंगी?
मृदुला गर्ग:प्रेम का स्वरूप बदल गया! यह कब हुआ? मुझे तो पता ही नहीं चला। प्रेम सहज है और जटिल भी। हमेशा से रहा है। अब भी है। हज़ार रंग हैं उसके। इधर-उधर होते रहते हैं। पात्र बदल जाए पर प्रेम रहता वही है। दूसरे में आत्म विसर्जन, कभी क्षण भर के लिए, कभी बरसों के लिए।मेरी नई पुस्तक साहित्य का मनोसंस्धान में एक अध्याय है, प्रेम जटिल भी सहज भी। मेरी राय को विस्तार में जानने के इच्छुक हों तो उसे पढ सकते हैं। नहीं हैं तो छोडिए!
कल्पना मनोरमा: विवाह-संस्था और विवाहेत्तर प्रेम और अब लिव इन के खुले मुद्दे। आपकी राय क्या है इन सबके बाबत? क्या सहजीवन (लिव इन) की इस शैली को आप पाश्चात्य से संचालित मानती हैं?
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इंदिरा गोस्वामी और मृदुला गर्ग, 1998 में |
मृदुला गर्ग: मुझे पाश्चात्य पाश्चात्य कह कर, अपने किए अच्छे बुरे पर परदा डालने की आदत नहीं है। आपसी संबंध दो चार इंसान खुद तय करते हैं, कोई समुदाय नहीं। पश्चिम जब जंगलों तक सीमित था, तब भी भारतीय संस्कृति में लिव इन प्रचलित था। मुझे नहीं मालूम हम किस हीन भाव के अंतर्गत, हर अक्ल के काम को पश्चिम की नकल में किया मानते हैं। कोई मनोविश्लेषक या कहना चाहिए मनोचिकित्सक ही निदान कर सकता है।
कल्पना मनोरमा: मृदुला जी, यानी आप लिव इन को अक्ल का काम मानती हैं ? विस्तार से कहें प्लीज!
मृदुला गर्ग: लिव इन को चलाए रखने के लिए कुछ ज्यादा अक्ल की ज़रूरत होती है, क्योंकि उसमें अपनी और एक अन्य की मर्ज़ी के अलावा, कोई रक्षक परंपरा या कानून या परिवार नहीं होता।
कल्पना मनोरमा: जबकि लिव इन में रहने वाली लड़कियों को टुकडों में काट दिए जाने की बात आम है। वहीं शादी के बंधन में बंधे पुरुषों ने अपनी जाने गंवाई हैं। क्या शादी संस्था भी खतरे में आने वाली है या आ चुकी है?
मृदुला गर्ग: लिव इन हो या विवाह, दो जन जब एक साथ रहेंगे तो अच्छा बुरा दोनों, हर हाल होगा। विवाह संस्था हमेशा से लंगड़ी थी। चल भर लेती थी। अब एक के बजाय दो या ज्यादा लोगों से विवाह या प्रेम के सहारे लंगड़ा लेती है।
कल्पना मनोरमा: कभी एक समय था बेटी वाले माता पिता की नींद हराम हो जाया करती थी लेकिन अब बेटे वाले माता पिता भी शोकाकुल दिखने लगे हैं। आपकी नज़र में कारण क्या हो सकते हैं?
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महेष दत्तानी, जापानी मेज़बान के साथ मृदुला गर्ग और गीता हरिहरण, जापान 2003 |
मृदुला गर्ग: क्योंकि नई पीढ़ी अब अपनी अलग राय रखन और जतलाने लगी है।
कल्पना मनोरमा: आपकी नज़र में स्त्री विमर्श की दिशा और दशा क्या होनी चाहिए?
मृदुला गर्ग: यह तो हर स्त्री अपने लिए खुद तय करेगी। मेरे लिए स्त्रीवादी होने का मतलब है कि हर स्त्री को छूट है कि वह तय करे वह क्या और कैसी होना चाहती है। इसे मेरा स्त्रीवादी विमर्श कह सकते हैं, जिसे आप मुख सुख के लिए मात्र स्त्री विमर्श कह रही हैं। पर अन्य स्त्रियों पर इसे कैसे थोप दूं? वह तो मेरे स्त्री विमर्श को भ्रष्ट कर देगा या कहना चाहिए, समूल नष्ट।
कल्पना मनोरमा: विमर्श का शाब्दिक अर्थ विवेचन; समीक्षा; पर्यालोचन 2. तथ्यानुसंधान 3. गुण-दोष आदि की आलोचना या विवेचना करना; (डेलिबरेशन) 4. किसी तथ्य की जानकारी के लिए किसी से परामर्श या सलाह करना 5. तर्क; ज्ञान 6. (नाटक) पाँच संधियों में से एक संधि है। तो क्या अब स्त्री विमर्श के साथ पुरुष विमर्श भी शुरू होने की संभावना नज़र आ रही है?
मृदुला गर्ग: माफ कीजिए, विमर्श का लिंग नहीं होता। वह एक भाव वाचक संज्ञा है। उसका सम्बन्ध मस्तिष्क और आत्मबोध से है; लिग़, जाति, स्थानियता या पद पदवी, राजनीति आदि से नहीं। रोज़मरा के नित्य कर्म विमर्श के अन्तरगत नहीं आते।
कल्पना मनोरमा: स्त्रियों के खिलाफ बढ़ रही हिंसा और कुछ स्त्रियों की ओर से हिंसात्मक पहलकारी पर आपकी टिप्पणी क्या होगी?
मृदुला गर्ग: स्त्रियों के खिलाफ बढ़ रही हिंसा जितनी हैबतनाक है, उतनी ही शर्मनाक। पर सवाल करना जरूरी है कि आज जब स्त्रियां अपनी आजादी और शख्सियत को ले कर इतनी जागरूक हैं, तब यह हिंसा क्यों बढ़ रही है। मुझे इसके दो कारण नजर आते हैं। पहला, जब समुदायों के बीच नफरत और वैमनस्य बढ़ता है तो युद्ध वाली मानसिकता लोगों के दिलोदिमाग पर हावी हो जाती है। शर्म की बात यह है कि स्त्रियों से बलात्कार, हमेशा से युद्ध में इस्तेमाल किया जाने वाला एक हथियार रहा है। लोगबाग उसे एक आम घटना के रूप में स्वीकार करते रहे हैं। उसका बयान हुआ है, उसे कथ्य बना कर उपन्यास, कहानी, नाटक लिखे गए हैं। उसपर फिल्में बनी हैं। पढ़ -देख कर पाठक, दर्शक दुखी हुए हैं, बलात्कार को नृशंस और जघन्य हिंसा बतला कर उसकी खूब निंदा की है। पर बलात्कार की घटनाएं बदस्तूर होती रही हैं। अब जब हिंदुस्तान में धर्मों और जातियों के बीच खूंखार नफरत का माहौल है, तो जो सत्ता में होता है या जिसके पास ताकत होती है, वह विधर्मी गुट या कमजोर तबके की स्त्रियों के साथ बलात्कार करता है, उनका यौनिक शोषण करता है, उनका हर संभव तरीके से अपमान करता है। और उसके दल या गुट के लोग उसकी निंदा न करके प्रशस्ति गाते हैं।
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मृदुला गर्ग, मंजुल भगत और अन्य लेखक, Authors Guild 1958 में |
बिल्किस बानो के सामूहिक बलात्कारियों को कैद से जल्दी बरी करवा कर, फूल मालाएं पहना कर उनका अभिनंदन किया गया। मणिपुर में एक धार्मिक गुट, दूसरे धार्मिक गुट की स्त्रियों के साथ निरंतर हिंसा कर रहा है और सरकार व सत्ताधारी मौन साधे हुए हैं। काफी मध्यवर्गीय पढ़े लिखे लोग उसे वाजिब ठहराते हुए कहते हैं, तो क्या हुआ। यह न हो तो वहां से हो रहा, नशीले पदार्थों का व्यापार, देश को नष्ट कर दे। यह मेरी अपनी कानों सुनी बात है, जिसे जब मैने ट्विटर पर छपवाया तो अगले दिन हटा लिया गया। ऐसा नहीं है पुरुष, पुरुषों के साथ हिंसा नहीं करते। बराबर करते हैं। सामूहिक बलात्कार ही नहीं होते, भीड़ द्वारा पीट - पीट कर सामूहिक हत्या भी की जाती है। पर स्त्रियों के साथ बढ़ती हिंसा का भी यह एक बड़ा कारण है। दूसरा कारण है, पुरुष वर्ग में अपने से आगे निकलती स्त्रियों को ले कर हीन भाव का होना। जितना स्त्रियां कार्यक्षेत्रों में प्रवेश करके तरक्की करती हैं, उतना ही, उनके साथी पुरुष उनसे ईर्ष्या - द्वेष करते हैं। उनसे बदला लेने का एक ही तरीका उन्हें सूझता है। रोजमर्रा किया जाने वाला यौनिक शोषण व अंततः सामूहिक या एकल बलात्कार। जहां तक स्त्रियों द्वारा की जाने वाली हिंसात्मक पहलकारी का सवाल है, यह घटना विशेष पर निर्भर करेगा कि वह अति हिंसा से उपजी मजबूरी में उठाया कदम था, या सुनियोजित आंदोलन। यह कहना बहुत आसान है कि हिंसा को हिंसा से नहीं मिटाया जा सकता। पर मार खाते इंसान का प्रतिशोध कोई भी रूप ले सकता है। वह एक मानवीय प्रतिक्रिया है। अलबत्ता अगर वह स्त्री मुक्ति के लिए किया गया आंदोलन है तो कुछ हद तक ही सफल होगा।पर बिल्कुल बेकार कतई नहीं है। जो जन सिर्फ डराना जानते है, उन्हें डरा धमका कर ही चुप किया जा सकता है। कहा न, यह घटना विशेष पर निर्भर करेगा कि जो हिंसा हुई, वह तर्कसंगत थी या नहीं।
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मोनिका मंसूर, 2 विदेशी लेखकों, मृदुला गर्ग, और खुशवंत सिंह, जर्मनी 1993 |
कल्पना मनोरमा: स्त्री पर हिंसा और स्त्री द्वारा की जाने वाली हिंसा में क्या तात्विक असमानता है ? आख़िर स्त्री अपने जीवन में कभी सुकून हासिल कर सकेगी?
मृदुला गर्ग: नहीं। सुकून किसी को इस ज़िदगी में नहीं मिलता। जीवन एक संघर्ष है। करते करते रुक रुक कर सुकून के लम्हैं आते रहते हैं। पूरे सुकून में तो केवल कोमा मेम गए लोग रहते हैं। काफ़ी स्त्रियाँ चाहती हैं कि अन्य जन मशक्कत करके उन्हें सुकून दिलवाएं। एक तरह से वे कोमा में जीना चाहती हैं। उसमें कुछ समय बाद मौत हो जाती है। उसे सुकून मानना चाहे तो अवश्य मिल जाएगा।
कल्पना मनोरमा: पृथ्वी पर हर चीज़ समय के आधीन है। वक्त ने निरंतर मनुष्य को चौंकाया है। उसी के बाबत 2014 के बाद के समय पर आपकी राय क्या होगी ?
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मोनिका मंसूर, मृदुला गर्ग, महमूद दौलताबादी, जर्मनी 1993 |
मृदुला गर्ग: भारतीय समाज हमेशा से अत्यंत विषम समाज रहा है। गांव-शहर के बीच;अमीर-गरीब के बीच; स्त्री -पुरुष के बीच; सत्ताधारी- सत्ता विहीन के बीच; सवर्ण-दलित के बीच,असमानता ही नहीं, शोषक- शोषित का नाता रहा है। 2014 से 2024 के दरम्यान, विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के बीच असमानता के साथ भीषण वैमनस्य पैदा हुआ है। साथ ही अमीर-गरीब के बीच का फासला भी बढ़ा है। बदहाल गांव और तेजी से विकसित होते जा रहे हैं। नगर और महानगर तो दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े नजर आ ही रहे हैं। इस सब का प्रभाव अकादमिक बिरादरी पर भी पड़ा है। मानवीय सरोकार से वाबस्ता लोगों की संख्या कम हुई है। साहित्य, असमानता और अमानवीयता का विरोध का रहा है। कुछ अकादमिक विद्वान भी जम कर विरोध कर रहे हैं। पर यह कहना कठिन है कि कहां तक सफल हो रहे हैं। साहित्यिक सामाजिक अकादमिक और मानवीय सरोकारों की जिस तरह अनदेखी हो रही है, वह मेरे भीतर, भविष्य को ले कर घोर भय उत्पन्न कर रहा है। नहीं जानती, हम मानवीय सरोकारों से कितनी दूर और ठीक ठीक कहां जा रहे हैं।
कल्पना मनोरमा: परिवारिक, राजनैतिक असंवादिक स्थितियों के बीच क्या साहित्य में भी आप आपसी संवाद को निरस्त होते पा रही हैं? अगर नहीं तो आप लेखक और लेखन को कैसे देख रही हैं ? इस बात पर प्रकाश डालिए।
मृदुला गर्ग: हाँ, आपसी संवाद को काफी हद तक निरस्त होते पा रही हूं। फिर भी चूंकि लेखन संवाद और मतभेद की स्वतंत्रता के बिना जीवित नहीं रह सकता, इसलिए लेखक होने के नाते,मैं और मेरे जैसे अन्य लेखक, इस स्वतंत्र संवाद और मतभेद को बनाए रखने में जी जान से जुटे हैं।
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मृदुला गर्ग, सुनीता जैन, नामवर सिंह, महीप सिंह, 2008 |
कल्पना मनोरमा: साहित्य का भविष्य कैसे और कैसा देख रही हैं आप? आपके रचनात्मक जीवन में कोई यादगार क्षण, व्यक्ति, मित्र, लेखक, किताब के बारे में कहें। व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक, कथेतर कोई किसी भी प्रकार की संतुष्टि....।
मृदुला गर्ग: वह सब मैं अपने समय के संस्मरण, “वे नायाब औरतें” में लिख चुकी। बयान करने को 400 पन्ने चाहिए। यहां कैसे लिखूं भला!
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मृदुला गर्ग, महेश भारद्वाज, कमलेश्वर, चित्रा मुद्गल, 2001 |
कल्पना मनोरमा: एक अंतिम सवाल नए समय का शब्द "ट्रॉल" से आप कितना इत्तेफाक रखती हैं?*
मृदुला गर्ग: जी, शब्द तो सुना है। उसका स्वाद नहीं चखा। मतलब भी ठीक से मालूम नहीं. जानना चाहती भी नहीं।
कल्पना मनोरमा: ठीक बात। आपसे बात कर अच्छा लगा. अपने मुझे समय दिया,आभार!
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