"एक दिन का सफर" कथा संग्रह पर आई टिप्पणियाँ
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टिप्पणीकार जयराम सिंह गौर |
मानवीय जीवन की वेदना को उकेरती कहानियाँ
( समीक्षा प्रेरणा पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है )
कल्पना मनोरमा अब न केवल कथाकार अपितु एक साहित्यकार के रूप में स्थापित हो चुकी हैं। उन्होंने अपनी साहित्यिक यात्रा कविता से प्रारंभ की और लगभग साहित्य की हर विधा में लेखन कर रही हैं। कल्पना मनोरमा लीक से हटकर सोचने और रचने वाली लेखिका हैं। अभी हाल ही में उन्होंने पुरुष विमर्श पर दो कहानी संग्रह ‘‘कांपती हुई लकीरें’’ और सहमी हुई धड़कने’’ का संपादन किया है। जो वर्तमान में समाज के उस हिस्से का दुःख बयान करता है, जिसे सदियों वे शक्तिशाली और क्रूर माना जाता रहा है। खैर! अब बात उनके सद्यः प्रकाशित कथा संग्रह ‘‘एक दिन का सफर” की, जिसे नई किताब प्रकाशन समूह के अनन्य प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। इस संग्रह में बारह विविधवर्णी कहानियाँ हैं जो 152 पृष्ठों में समाहित हैं।
इस कथा संग्रह के फ्लैप पर वरिष्ठ कथाकार जयशंकर द्वारा लिखी टिप्पणी का एक अंश उद्धृत करना चाहूंगा,‘‘कहानियों में इधर की स्त्रियों के जीवन की प्रताड़नाओं को नए संदर्भों में, नए आयामों के साथ देखा जा सकता है। इन कहानियों में आते हुए स़्त्री पात्रों की चिंताओं, आकाक्षांओं और यातनाओं का स्वरूप, इधर का समकालीनता का बोध लिए हुए नजर आता है।’’
मैं भी सहमत हूँ। कल्पना मनोरमा महिला होने के नाते महिलाओं की समस्याओं को नजदीक से देखती हैं, इसलिए उनका इस ओर ध्यान जाना स्वाभाविक है। पर ऐसा नहीं है कि उनका ध्यान केवल मलिाओं की समस्याओं तक ही सीमित है, नहीं। इस संग्रह की कहानी ‘‘कोचिंग रूम’’ को देखिए। इसकी पात्र पिंकू अपनी सौतेली माँ के दुराचारों से प्रताड़ित और पिता द्वारा उपेक्षित होती है। कहानी की मुख्य पात्र सुचेता शर्मा अपनी विद्यार्थी पिंकू सिंह बुंदेला की तमाम समस्याओं को न केवल समझना चाहती है बल्कि उसकी काउंसिंग कर जीवन की तरफ मोड़ने में तत्पर भी है। कहानी "कोचिंग रूम" कल्पना मनोरमा की लिखी एक संवेदनशील और विचारोत्तेजक कहानी है, जो न केवल शिक्षा संस्थानों व शिक्षकों के बदलते रवैए की बात करती है बल्कि अव्वल आने के लिए बढ़ते दबाव, माता पिता की लापरवाही, विकास की अंधी दौड़ और स्त्री शोषण, वर्ग भेद और मनोवैज्ञानिक संघर्षों को भी उजागर करती है। एक उत्तम विचार की शिक्षिका सुचेता अपनी विद्यार्थी पिंकू को संत्रास से निकाल लेती है। इस कहानी की इतनी शानदार बुनावट है, प्रकृति से तादात्म, कहानी पाठक को अपनी लपेट में ले लेती है। पाठक अनजाने सुचेता और पिंकू का जीवन जीने लगता है।
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प्रेरणा पत्रिका |
कहने का मतलब कथा संग्रह “एक दिन का सफ़र” में बालक, वृद्ध, युवा, स्त्री-पुरुष के साथ कल्पना ने प्रकृति यानी पेड़-पौधों की सम्वेदना पर भी कलम चलाई है.
अब संग्रह की शीर्षक कहानी को देखें। ‘‘एक दिन का सफर’’ सचमुच एक कामकाजी महिला का एक दिन का सफर ही तो है, जिसे वह पूरा का पूरा रोज-रोज जीती है। कैसी विडंबना कि उसके पास सभी के लिए समय तो है पर उस समर्पित स्त्री के लिए पति, बेटे और बेटी किसी के पास समय नहीं है। उसकी मेमोग्राफी की रिपोर्ट न लाने के लिए सबके पास अपने-अपने बहाने हैं। कहानी की नायिका सपना की मनोदशा और उसके धैर्य का इतना अद्भुत चित्रण हुआ है कि दृश्य सामने चलते हुए दिखाई देते हैं।
"एक दिन का सफ़र" कल्पना मनोरमा द्वारा लिखित यह कथा असाधारण मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक यात्रा को दर्शाती है। यह कहानी एक महिला पात्र के इर्द-गिर्द घूमती है, जो नौकरी के साथ घर और परिवार की धुरी पर खुद को रखकर चल रही है। एक दिन के भीतर अपनी व्यक्तिगत ज़िन्दगी से लेकर सामाजिक दायित्वों और आत्मिक संघर्षों से वह जूझती है। कहानी में वह सुबह घर के रोज़मर्रा के कामों से दिन की शुरुआत करती है, लेकिन जैसे-जैसे दिन बढ़ता है, रास्ता घर तक पहुंचता है, उसके जीवन के अंदरूनी द्वंद्व, समाज की अपेक्षाएँ और रिश्तों की उलझनें उभर कर सामने आती हैं।
यह 'सफ़र' वास्तव में बाहरी नहीं बल्कि स्त्री के एक आत्ममंथन की यात्रा है। जहाँ वह अपने अतीत, वर्तमान और संभावित भविष्य को एक दिन में जीती है। साथ में नए समय की बदलती स्त्रियों को देखती, सुनती और खिसियाती है। इस यात्रा में वह अपनी पहचान, इच्छाओं और दबावों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश करती है। अंततः यह “एक दिन” उसके लिए बोध और बदलाव का प्रतीक बनता है, एक ऐसा मोड़ जहाँ वह अपने भीतर की स्त्री को पहचानती है और निर्णय लेती है कि वह अपने जीवन को अब अपने दृष्टिकोण से जिएगी, न कि सिर्फ़ दूसरों की अपेक्षाओं पर। यह रचना एक शांत, लेकिन प्रभावशाली स्वर में यह संदेश देती है कि कभी-कभी एक दिन ही ज़िंदगी को बदलने के लिए काफी होता है।
‘‘पहियों पर परिवार’’ एक रेलवे अधिकारी फीफा डबराल की पत्नी ललिता की कहानी है। जो पति के बार-बार तबादलों से त्रस्त है। ये कहानी स्त्री के लगाव और स्थान, वस्तुओं और व्यक्तियों के साथ स्त्री के भावनात्मक जुड़ाव की भी है। एक घर छोड़कर दूसरा घर और फिर तीसरा …. घर के सभी लोग भले मस्त है। लेकिन इलाहाबाद से सहारनपुर का स्थानांतरण ललिता के लिए एक दुखद घटना है। कहानी उन तथ्यों का उद्धाटन करती है। जो बाजारवाद के विकास से उपजी पीड़ा हैं। जब स्त्री भीतर से बुझ चुकी हो तो प्रकृति का लालित्य भी कुछ असर नहीं करता। कथा नायिका ललिता भी शहतूत के पेड़ से घृणा करती है। यानी "पहियों पर परिवार" कल्पना मनोरमा की यह कहानी आधुनिक जीवनशैली और पारिवारिक ताने-बाने के बीच पिसते बच्चों के मनोभावों और स्थितियों का संवेदनशील, व्यंग्यात्मक और मार्मिक चित्रण करती है। कहानी यह दिखाती है कि कैसे आज की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में परिवार एक साथ होते हुए भी भावनात्मक रूप से बिखर रहा है, कैसे मानसिक ‘मोबिलिटी’ ने सहृदय स्थायित्व को खा लिया है। साथ प्रकृति और मनुष्य की आपसदारी में पड़ती दरार को एक कामवाली जो आदिवासी इलाके की है, उसके जीवन में पेड़ों की भागीदारी और शहरी मिजाज की स्त्री की मनोग्रंथियों को नजदीक से दिखाया गया है।
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पेज -1 |
"हँसो, जल्दी हँसो" इस संग्रह की एक मार्मिक और तल्ख कहानी है। जो समाज में फैली कृत्रिमता, स्त्री की विडंबनाओं और 'हँसी' जैसे सहज मानवीय भाव को 'अनिवार्य सामाजिक अभिनय' में बदलने की त्रासदी को उजागर करती है। "हँसो, जल्दी हँसो" कहानी एक स्त्री पात्र के इर्द-गिर्द घूमती है, जिसे समाज, परिवार और संबंधों की तमाम उलझनों के बीच एक 'हँसती हुई और सहज' स्त्री बने रहने का बोझ ढोना पड़ता है। यह हँसी कोई खुशी से उपजी हुई प्रतिक्रिया नहीं है, बल्कि एक ‘उपलब्ध हँसी’, जिसे हर हाल में दिखाना ज़रूरी है, नानी रूपी पात्र को लगता है। चाहे भीतर कितना ही दर्द क्यों न रहे लेकिन उसे हँसकर अपने परिवार को पीड़ामुक्त रखना है। मानो आंखों से अंधी नानी ने ‘हँसी’ को जीवन की तरह ओढ़ लिया है। यहां पर हँसी प्राकृतिक भावना नहीं, बल्कि एक सामाजिक विद्रूपता को छिपाने का आवरण बन जाती है। क्योंकि पुरुष समाज हो या स्त्री की खुद की औलाद, स्त्री से अपेक्षा करती है कि वह सदा 'खुश' रहे। चाहे वह भीतर से कितनी भी टूटी हुई क्यों न हो। कहानी दिखाती है कि कैसे स्त्रियाँ अपनी असली भावनाओं को दबाकर एक हंसमुख चेहरा पहन लेती हैं। यह कहानी व्यंग्यात्मक शैली में समाज के उस ढांचे पर प्रश्न उठाती है, जहाँ स्त्री का दुखी होना एक असुविधा माना जाता है। और खुश दिखना एक कर्तव्य। “हँसो, जल्दी हँसो” कहानी मनोरंजन के लिए नहीं लिखी या पढ़ी जाएगी। बल्कि इसके पाठकों के मन में यह कहानी एक सवाल जरूर छोड़ेगी।
"नमक भर कुछ और" कथा एक साधारण और निम्नस्तर से ऊपर उठे परिवार की है। गरीब तबके वाले जीवन प्रसंगों में रची बसी स्त्री जब अपने बेटे के द्वारा कमाई माध्यम वर्गीय जिंदगी में पहुंचती है तो खुश होने के बजाय ज्यादा सेंसटिव हो जाती है। उसका रहन सहन सब बदल जाता है लेकिन जिस अभावमय जीवन को उसने जिया है, उसमें रह रहे व्यक्तियों के प्रति वह अभी भी बेहद संवेदनशील है। मानो वह चाहती है कि जिस तरह से उसका जीवन बदला, दुनिया से भी गरीबी हट जानी चाहिए। तभी असली खुशी उसे मिलेगी। माने स्त्री के अस्तित्व, त्याग की सूक्ष्म पीड़ा को कल्पना मनोरमा ने बेहद बारीकी से बुना है। यह कहानी स्त्री की ज़िंदगी में सब कुछ ठीक होते हुए भी "कुछ" अधूरा रह जाता है, और वही 'कुछ' उसकी आत्मा की सबसे बड़ी पुकार बन जाता है, को कहानी दिखाती है। यह कहानी पाठक को भीतर तक छूती है क्योंकि यह किसी एक स्त्री की नहीं, बल्कि असंख्य स्त्रियों के भीतर पलती चुप इच्छाओं की आवाज़ है।
"आख़िर मोड़ पर" कहानी का विषय आम नहीं। कल्पना की संवेदनशील दृष्टि और समाज में कुछ बेहतर होने की कामना को दर्शाती है। अभी तक वृद्धाश्रम में तड़पते माता पिता की कई कहानियां पढ़ी मैंने, लेकिन इस कहानी में लेखिका ने रिश्तों के जुड़ाव और मानवीय आंतरिकता के वृहद रूप का चित्र खींचा है। इस कथा में स्त्री के प्रति स्त्री के प्रेम को दिखाया गया है। साथ में उस बात का खंडन है कि दो पीढ़ियों के बाद स्त्री का अस्तित्व मायके से खत्म हो जाता है। इस भ्रम ये भी कहानी ने तोड़ा है। ये भी कि भारतीय युवा विदेशों में जाकर असंवेदनशील हो जाते हैं। सुहानी नामक पात्र लंदन में रहती है लेकिन जब वह अपने पिता के घर इंडिया आती है तब उसे पता चलता है कि पापा की बुआ सत्यवती को उनके बेटे ने वृद्धश्रम में मारने के लिए छोड़ दिया है। सुहानी पिता की बुआ को वृद्धाश्रम से रिहा करवा कर लंदन ले जाती है। यह कथा आत्मिक, भावनात्मक और जीवन-बोध से भरे क्षण को प्रस्तुत करती है। जहाँ सत्यवती बुआ अपने बेटे के द्वारा ठुकराए जाने के बाद अपने जीवन के लंबे और खोखले सफर के एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा पाती है। वह भी मायके की अगली पीढ़ी के माध्यम से। आखिरी मोड़ कथा सामाजिक समझौते, बेतरतीब इंतज़ार, और स्त्री के आत्म-साक्षात्कार की परतों को बेहद सूक्ष्मता से खोलती है। स्त्री की अव्यक्त पीड़ा कहानी में नायिका कोई खुला विद्रोह नहीं करती, न कोई लंबा भाषण देती है। गहरी मगर स्नेहिल चुप्पी, स्मृति और सोच ही उसकी सबसे बड़ी अभिव्यक्ति बनती है।
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पेज-2 |
"कितनी कैदें" कल्पना मनोरमा की यह अत्यंत संवेदनशील और स्त्री-अंतर्मन को झकझोर देने वाली कहानी है, जो उन असंख्य अदृश्य बंदिशों, सामाजिक बेड़ियों और मानसिक कारागारों को उजागर करती है जिनमें एक स्त्री जीवन भर बंधी रहती है, बिना किसी स्पष्ट शोर के, लेकिन हर पल घुटते हुए। यह कहानी एक ऐसी स्त्री पात्र को केंद्र में रखती है जो समाज, परिवार, परंपरा, रिश्तों और स्वयं की आंतरिक दुविधाओं से घिरी हुई है। मिन्नी दीदी की मां बाहर से भले स्वतंत्र दिखती है, लेकिन अंदर ही अंदर वह अनेकों कैदों से जूझते हुए अपनी बेटी का सहारा नहीं बन पाती। बेटी असमय प्राण गंवा बैठती है। यहाँ ‘कैद’ का मतलब सिर्फ शारीरिक बंधन नहीं है, बल्कि मन, सोच, इच्छा, आकांक्षा और पहचान की जटिल बेड़ियाँ हैं। वे कैदें जो दूसरों ने यानी माता पिता समाज ने थोपी होती हैं। मिन्नी दीदी नामक स्त्री ने 'कर्तव्य-भावना' के नाम पर चुप्पी ही पहन ली। आत्मपरिचय और घुटन का द्वंद्व इतना कि कहानी की नायिका स्वयं को पहचानने की कोशिश भी नहीं करती। उसे हर मोड़ पर दीवार मिलती है, कभी माँ के रूप में, पिता के रूप में, पति के रूप में, समाज के रूप में। पाठक को राहत तब मिलती है जब कहानी में मिन्नी के समानांतर प्रतिभा को पाता है। प्रतिभा भी सीमाओं को बेवजह नहीं तोड़ती लेकिन बुरी बात का उल्लंघन करना, अपने और अपनों के जीवन को बचा लेना, प्रतिभा अपना कर्तव्य समझती है। अपनी बड़ी बहन को नहीं बचा सकी लेकिन उसकी बेटी को अपने साथ ले आती है। कल्पना मनोरमा की लेखनी इस कहानी में बेहद भीतर तक उतरती है, और बिना शोर किए पाठक को सोचने पर मजबूर कर देती हैं। प्रतीकात्मकता और यथार्थ का संतुलन लेखिका ने प्रतीकों (जैसे खिड़की, दरवाज़ा, मेहराबों आदि) के माध्यम से स्त्री के बंधन को दर्शाया है, जो पाठक के मन में एक दृश्य रूप में उतरते हैं। भाषा सीधी है लेकिन उसमें अदृश्य गहराइयाँ हैं, जैसे–एक धीमी नदी जिसकी सतह शांत है, पर नीचे बहुत कुछ बह रहा है। "कितनी कैदें" यह नहीं कहती कि स्त्री को बाहर भाग जाना चाहिए, कहानी पूछती है कि कब तक स्त्री को अपनी समर्पित भूमिका में खुद को मिटा देना होगा?
"गुनिता की गुड़िया" कल्पना मनोरमा की यह कहानी बचपन, स्त्री-भावना, स्वप्न और यथार्थ के बीच झूलती एक मासूम लड़की की गहरी कहानी है, जो प्रतीकों के माध्यम से बहुत कुछ कह जाती है। यह केवल एक बच्ची और उसकी गुड़िया की कहानी नहीं है, बल्कि समाज की उन अदृश्य संरचनाओं की पड़ताल है जो लड़कियों के मन में बहुत जल्दी घर बना लेती हैं। "गुनिता की गुड़िया" कहानी की नायिका गुनिता है, जो बचपन में अपनी गुड़िया अपने हाथों बनाकर एक कलाकार के रूप में मां से सराहना पाना चाहती थी लेकिन उसकी मां स्त्री देह की संरचना को उसकी बेटी जल्दी न समझे, न जल्दी बड़ी हो और न ही किसी कुचक्र में फंसे, देखना चाहती है। जब मां गुड़िया की चोली देखती है तो माथा पकड़ लेती है। उसके बाद कहानी में जो दारुण चित्रण उतरते है, पाठक स्तब्ध रह जाता हैं। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, पाठक को यह अहसास होता है कि गुड़िया महज़ खिलौना नहीं, एक प्रतीक है सुरक्षा का, आत्मीयता का, और एकांत में सहचर का। गुड़िया गुनिता के लिए उसकी भीतर की आवाज़, उसकी स्वतंत्र इच्छा और भावनात्मक सहारा बन जाती है। जब समाज या परिवार उसे उसकी उम्र, लिंग या व्यवहार को लेकर सीमाओं में बाँधता है, तो उसकी मां गुड़िया को स्त्री अस्मिता से जोड़कर देखती है। मासूम बचपन बनाम सामाजिक संगठन और पौरुष आक्रोश और स्त्री के प्रति जकड़ी रूढ़ता को दिखाती है। कहानी बचपन की मुक्त उड़ान और उस पर समाज के अनकहे फ़िज़ूल आदेशों के टकराव को बारीकी से पकड़ती है। धीरे-धीरे यह स्पष्ट होता है कि गुनिता की दुनिया पर वयस्कों की इच्छाएँ कैसे हावी हो जाती हैं। वही गुनिता जब दादी बनती है, तब अपनी नातिन को नए जमाने की गुड़िया से खेलते हुए देखकर अचंभित होती है। लेखिका ने इस कहानी में चार पीढ़ियों की स्त्रियों के रवैए, समझ, उदारता, बाजारवाद का कसता शिकंजा और बाल-चेतना को बहुत ही स्वाभाविक और आत्मीय ढंग से उकेरा है। कहानी न अधिक भावुक, न अधिक बौद्धिक माने जीवन की तरह कहानी आगे बढ़ती है और पाठक को मार्मिकता से सराबोर कर देती है।
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"जीवन का लैंडस्केप" कल्पना मनोरमा की यह कथा एक विचारशील, कलात्मक और आत्ममंथन से भरी हुई रचना है, जो जीवन को केवल घटनाओं का सिलसिला न मानकर एक चित्रमय परिदृश्य के रूप में देखती है। यह कहानी पाठक को जीवन की सतह से उठाकर उसके भीतर की बनावट की ओर ले जाती है। यह कहानी जीवन को एक "लैंडस्केप पेंटिंग" की तरह प्रस्तुत करती है जिसमें रंग, आकृतियाँ, खाली स्थान, धुंधलापन, प्रकाश और छाया, रिश्तों की टूटन, अपनों के द्वारा अपनों को ठगे जाना सबका अपना एक अर्थ है और हर दृश्य पर पाठक मानो ठिठक जाता है। नायिका या केंद्रीय पात्र अपने जीवन को पीछे मुड़कर देखते हुए यह समझने की कोशिश करती है कि उसके जीवन के कौन-कौन से रंग वर्तमान के लैंडस्केप में समाहित हैं, और वे कौन से कारण रहे जिसकी वजह से वह अपना मन चीता हासिल कर पाई? ‘लैंडस्केप’ जीवन का रूपक है। आत्मा का दस्तावेज़ है। उसमें अच्छे-बुरे अनुभवों के रंग हैं, कुछ अधूरी आकृतियाँ, कुछ ढँकी हुई रेखाएँ जो ‘मैं’ को गढ़ती हैं। कहानी अतीत की झलकियों, संबंधों की परछाइयों और वर्तमान की खामोशी को एक साथ पिरोती है। यह एक स्मृति-यात्रा भी है और स्वीकृति की प्रक्रिया भी….। पेंटिंग के जैसे ही जीवन में भी रिक्तियाँ अपना महत्व रखती हैं। लेखिका दिखाती हैं कि कभी-कभी जो अधूरा रहा, वही सबसे ज़्यादा असरदार बन पड़ा। कल्पना मनोरमा की भाषा में चित्रात्मकता है जैसे वे शब्दों से नहीं, रंगों से लिखती हों। पाठक हर अनुच्छेद को एक दृश्य की तरह देख सकता है। कहानी का प्रवाह कहीं भी तेज़ नहीं होता। यह एक धीमी नदी की तरह बहती कथा है, जिसमें हर मोड़ पर कोई भावनात्मक ठहराव है। कहानी में संवादों से ज़्यादा महत्व आत्मसंवाद को मिला है। यह कहानी हमें अपने भीतर की आवाज़ से मिलने के लिए आमंत्रित करती है। इसी तरह “दुःख का बोनसाई” और “आखिरी सिगरेट” कहानियां भी मन पर सीधे असर छोड़ती हैं। संग्रह की सभी कहानियों की भाषा सहज, बोधगम्य और प्रवाहमयी है, जो पाठक को सहज ही बांध लेती है। मेरे अनुसार रचनाकार यदि पाठक को अपनी भावभूमि पर उतार लाने में सफल हो जाता है तो यह उसकी सबसे बड़ी सफलता होती है। कथा संग्रह ‘‘एक दिन का सफर’’ की कहानियों के माध्यम से रचनाकार अपनी बात और अपना संदेश पाठक तक पहुँचाने में सफल रही हैं।
निःसंदेह कहानी संग्रह ‘‘एक दिन का सफर’’ का कथा जगत में स्वागत होगा। मैं सुश्री कल्पना मनोरमा के लेखकीय सुखद भविष्य की कामना करता हूँ।
समीक्षित कृति : एक दिन का सफर, पृष्ठ संख्या: 152, कीमत : 195/-
समीक्षा : जयराम सिंह गौर , प्रकाशक: नई किताब प्रकाशन समूह
समीक्षक का परिचय
जयराम सिंह गौर, जन्म १२ जुलाई १९४३जन्म स्थान -ग्राम व पोस्ट मेरी, जनपद कानपुर कृतियां; कथा संग्रह १-मेरे गांव का किंग एडवर्ड,२-मंडी ३-एक टुकड़ा जमीन ४-अलगोजा और अन्य कहानियां ,५-झरबेरी के सूखे बेर ६-उदास परिंदा, ७-मेरी चयनित कहानियां उपन्यास १-अपने अपने रास्ते, २-मुझे सब याद है ३-गढ़ी छोर काव्य यह महकती शाम180/12बापूपुरवा काॅलोनी,किदवईनगर,पोस्ट टी.पी.नगर, कानपुर-208023,मो. 7355744763,9451547042
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टिप्पणीकार अनिल अनलहातु |
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समीक्षा - स्वदेश अखबार में प्रकाशित |
कल्पना मनोरमा के बेहतरीन व नवीनतम कथा संग्रह " एक दिन का सफर" के बारे में मुझे कहने में कोई गुरेज नहीं कि हाल के दिनों में पढ़े गए कथा संग्रहों में यह सबसे अलहदा और बेहतरीन है।बहुत सारी कहानियां और चरित्र आपकी जेहन में लंबे समय के लिए पैबस्त हो जाते हैं ,आपकी स्मृतियों में टंग जाते हैं सदा के लिए। पितृसत्ता की इतनी बारीक शिनाख्त और बेबाक व सूक्ष्म वर्णन अन्यत्र नहीं दिखता। कथानक ही नहीं शैली और शिल्प के स्तर पर भी कल्पना मनोरमा की कहानियों में एक नई प्रयोगधर्मिता दिखती है। इक्कीसवीं सदी की स्त्री और पितृसत्ता के संबंधों की ऐसी यथार्थपरक पड़ताल चकित और विस्मित करती है। कहानी संग्रह "एक दिन का सफर". यह एक दिन का सफर दरअसल एक स्त्री के हजार वर्षों का सफर है और जो शायद अभी तक मुकम्मल नहीं हुआ है। हिंदी में फेमिनिस्ट लेखन की एक लंबी परंपरा रही है जो कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, मन्नू भंडारी, मैत्रेयी पुष्पा से लेकर जयश्री राय, लवलीन तक आती है। हाल के वर्षों में प्रज्ञा पाण्डेय, उषा राय, सोनी पाण्डेय, उर्मिला शुक्ल, दिव्या शुक्ला आदि लेखिकाओं ने पितृसत्ता की कैद में छटपटाती स्त्रियों की दारुण व्यथा कथा और उससे मुक्ति की आकांक्षा को सूक्ष्मता से अभिव्यक्त किया है, कहना न होगा कि इसी लड़ी की अगली कड़ी के रूप में कल्पना मनोरमा की कहानियों को देखा जा सकता है। इनकी कहानियां स्त्रीवाद और पितृसत्ता की पहचान को अगले पड़ाव तक ले जाती हैं और इस मायने में ये आगे की कहानियां हैं। इक्कीसवीं सदी में पितृसत्ता के स्वरूप और स्ट्रक्चर का जैसा निरूपण ये कहानियां करती हैं, वह किसी भी अन्य कहानीकार में नहीं पाया जाता है। बीसवीं सदी में स्त्रीमुक्ति का स्वप्न स्त्री के घर की चारदीवारी से बाहर निकलने का था, इसके लिए पढ़ी लिखी और अपने पैरों पर खड़ी स्त्रियां जो आर्थिक रूप से स्वावलंबी होती थीं वे हिंदी कहानी में नायिका के रूप में काम्य थीं। संग्रह की पहली कहानी "कितनी कैदें" इसी तरह की एक कहानी है जिसमें एक तरफ तो बीसवीं सदी के पितृसत्ता के यातना शिविर में घुट घुटकर दम तोड़ती स्त्री का चित्रण है तो उसके समानांतर एक पढ़ी लिखी,अपने पैरों पर खड़ी एक दूसरी स्त्री की तस्वीर है जो इस पितृसत्ता को चुनौती देते हुए अपने लिए और अपनी नई पीढ़ी की स्त्री यानी मिन्नी दीदी की बेटी वैदेही के लिए भी एक अलग अपना सा स्पेस बनाती है।
किंतु इक्कीसवीं सदी आते आते यह समझ में आने लगता है कि पढ़ी लिखी होने और अपने पैरों पर स्वतंत्र खड़ी होने वाली स्त्रियों के लिए भी परिवार के भीतर पितृसत्ता बराबरी का स्पेस नहीं देता है, वहां अब भी वह एक सेकंड क्लास सिटीजन ही है। इक्कीसवीं सदी में पितृसत्ता के इस बदलते स्वरूप और स्त्री की नियति की सच्ची तस्वीर देखनी हो तो इस कहानी संग्रह से आपको गुजरना होगा। इसमें बारह कहानियां हैं। इन बारह शीर्षकों में आप सामाजिक विद्रूपता औ स्त्री की कार्यवाहियों को महसूस कर सकते हैं। स्त्रीमुक्ति और फेमिनिस्ट विचारधारा के लिए ये कहानियां पैराडाइम शिफ्ट रचती हैं, जिस किसी को भी अगर ये जानना हो तो इन कहानियों से संवाद करें, गुफ्तगू कर सकता है।
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