प्रेम, विद्रोह और आत्मानुभूति की प्रतीक: मीरा बाई

प्रेम, विद्रोह और आत्मानुभूति की प्रतीक: मीरा !

                                                            – कल्पना मनोरमा

"लाज रखो गिरधारी" शीर्षक से ही भक्ति की उस पुकार की अनुगूँज सुनाई देती है, जो मीरा की आत्मा से उठी थी। यह पुस्तक सिर्फ कृष्ण भक्ति का दस्तावेज नहीं, बल्कि प्रेम, समर्पण और आत्मा की स्वतंत्रता का जीवंत आख्यान है।


   मीरा, एक ओर भक्तिन हैं, तो दूसरी ओर एक ऐसी स्त्री, जो अपने समय की सीमाओं को लांघकर अपने ईष्ट से संवाद करती है, बेलौस, निर्भय और संपूर्ण निष्ठा के साथ। मीरा का कृष्ण केवल मुरलीधर नहीं, बल्कि वे प्रेम और चेतना का वह प्रतीक हैं, जिनसे वह बराबरी पर संवाद करती हैं, शिकायत करती हैं, हठ करती हैं, और अंततः उन्हीं में विलीन हो जाती हैं।


"लाज रखो गिरधारी" उन लेखों-निबन्धों का संग्रह है, जो प्रेम के एकांत और भक्ति में डूबकर लिखे गये हैं. भक्ति जब अपने सच्चे रूप में होती है तो वह प्रेम ही कहलाती है…


“हे री! मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दर्द न जाने कोई।”


मीरा बाई के इस प्रसिद्ध पद में जो निजी स्वीकृति है, वही उनके व्यक्तित्व की सार्वजनीनता भी है। युगों से मीरा का दर्द, उनका प्रेम और उनकी भक्ति हमारी सांस्कृतिक चेतना का हिस्सा रहे हैं। उन्होंने भले ही कहा हो कि उनका दर्द कोई नहीं समझ सकता, लेकिन यह सत्य है कि हम सब मीरा की पीड़ा और प्रेम की तपन से परिचित हैं। भक्ति के इतिहास में मीरा एक विलक्षण व्यक्तित्व हैं, विलक्षण इसलिए कि वे केवल एक भक्त नहीं, एक प्रेमिका, एक विद्रोहिणी और आत्मा की साधिका थीं। उनके भीतर जो भक्ति थी, वह केवल समर्पण नहीं थी; वह एक मौन प्रतिरोध भी थी, जो उन्होंने तत्कालीन सामाजिक संरचनाओं के विरुद्ध खड़ा किया।


विशाल पांडे और दिव्या जोशी ने जिस भाव और समर्पण से इस संग्रह का संयोजन किया है, वह निस्संदेह एक सराहनीय कार्य है। उन्होंने न केवल मीरा को फिर से जीवित किया है, बल्कि मीरा के माध्यम से आज की स्त्री को, प्रेम को और विद्रोह को पुनर्परिभाषित करने का अवसर दिया है।


मीरा प्रेम की वह चिंगारी हैं, जो युगों को प्रकाशित करती रही है। उनकी भक्ति एक स्त्री का वह साहस है, जो भीतर आत्मा को उजागर करता है और बाहर समाज से संवाद करता है।मीरा का जन्म 1498 ईस्वी में राजस्थान के पाली ज़िले के कुड़की गाँव में हुआ। वे रतन सिंह की पुत्री थीं और बचपन से ही कृष्णभक्ति में रत रहीं। उनका विवाह मेवाड़ के सिसोदिया राजपरिवार में हुआ—महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज उनके पति थे। परंतु मीरा का अनुराग सांसारिक दांपत्य से अधिक आध्यात्मिक दांपत्य में था—वे श्रीकृष्ण को पति मान चुकी थीं।


उनकी भक्ति 'कान्ता भाव' या 'माधुर्य भाव' की भक्ति थी, जिसमें ईश्वर को प्रेमी या पति के रूप में स्वीकार किया जाता है। मीरा के पदों की सरलता, संप्रेषणीयता और आध्यात्मिक ऊँचाई उन्हें भक्तिकाल की अद्वितीय कवयित्री बनाती हैं। उनके शब्दों में जहाँ एक ओर अपढ़ जन भी अपने दुःख को पहचान पाता है, वहीं विद्वान भक्ति-रस में सराबोर हो उठता है।

मीरा का व्यक्तित्व केवल आध्यात्मिक नहीं था, उसमें एक सामाजिक प्रतिरोध भी अंतर्निहित था। वे एक राजघराने की राजकुमारी थीं, लेकिन उन्होंने रूढ़ियों और परंपराओं को चुनौती दी। उन्होंने सगुण और साकार कृष्ण को सार्वजनिक रूप से आराध्य माना, इस साहसिक स्वीकृति में ही उनका स्त्री-स्वर उजागर होता है।


अन्य समकालीन महिला संत कवियों की तुलना में मीरा का मार्ग अधिक खुला और मुखर था। सूफी संत कवयित्रियाँ प्रायः निराकार ईश्वर को चुनती थीं, शायद इसीलिए कि वहाँ प्रेम को छिपाकर रखने की गुंजाइश थी। परंतु मीरा ने अपने प्रेम को छिपाया नहीं, बल्कि पूरी सामाजिक व्यवस्था के समक्ष उसे स्वीकारा। यह स्वीकारोक्ति ही उनका विद्रोह थी जो स्त्रीत्व के भीतर छिपी संभावनाओं की घोषणा करती है।


मीरा का यह स्वर मुझे व्यक्तिगत रूप से इसलिए भी समीप लगता है क्योंकि मेरे बचपन में मेरी माँ, जो स्वयं मीरा की भक्ति परंपरा से गहराई से जुड़ी थीं, अक्सर एक पंक्ति गुनगुनाया करती थीं, “लाज राखो गिरधारी, मैं अभी शरण तिहारी।” माँ मानती थीं कि जैसे पुरुष का भाग्य पलटते देर नहीं लगती, वैसे ही स्त्री का चरित्र भी सामाजिक संदेह के घेरे में आ सकता है। इसीलिए वे अपने स्त्रीत्व की रक्षा हेतु कृष्ण को पुकारती थीं। मीरा के पदों की वह गूँज मेरे बचपन में लोरी बनकर समाई रही।


इन्हीं स्मृतियों की पृष्ठभूमि में जब मैंने ‘लाज राखो गिरधारी’ नामक पुस्तक को पढ़ा—जो कि विशाल पांडे और दिव्या जोशी के संपादन में प्रकाशित हुई है तो यह मात्र एक आलोचना-पुस्तक न होकर मेरे लिए एक आत्मीय यात्रा बन गई।

इस संग्रह में मीरा के जीवन और काव्य पर केंद्रित लेखों के माध्यम से मीरा के बहुविध आयाम सामने आते हैं, उनका बचपन, युवावस्था, विवाह, समाज से टकराव, त्याग और सबसे बढ़कर, कृष्ण में विलीन हो जाना।


डॉ. मृदुल कीर्ति का यह कथन कि “मीरा की भक्ति विराट को आमंत्रित करती है”, मीरा की संपूर्ण साधना का सारांश प्रतीत होता है। डॉ. सुधाकर देव का यह निष्कर्ष भी महत्वपूर्ण है कि मीरा को भक्ति ‘घुट्टी’ में मिली थी, राजकुल में जन्म लेने के बावजूद रज-तम गुण उनका कुछ नहीं बिगाड़ सके। वहीं उर्मिला शुक्ला लिखती हैं कि “अनुराग और भक्ति की तासीर एक-सी होती है, और जब ये दोनों तत्व मिलते हैं, तब मीरा बनती हैं।”


यह पुस्तक न केवल मीरा के काव्य को समझने का एक सशक्त माध्यम है, बल्कि स्त्री चेतना, प्रेम और आत्मानुभूति के उस संलयन को भी उजागर करती है जो मीरा को विशिष्ट बनाता है।


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