सुविख्यात साहित्यकार निर्मला भुराड़िया के साथ कल्पना मनोरमा की बातचीत


निर्मला भुराड़िया 


निर्मला भुराड़िया हिंदी साहित्य और पत्रकारिता का ऐसा स्वर रही हैं, जिन्होंने लेखनी के साथ-साथ संपादन और जनसंचार की दुनिया में भी अपनी स्पष्ट उपस्थिति दर्ज़ करवाई है। निर्मला जी ने सामाजिक सरोकारों, स्त्री-जीवन के बहुआयामी पक्षों और पत्रकारिता की चुनौतियों को अपने अनुभवों से जोड़ कर लेखन किया है। वर्षों तक पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय रहते हुए उन्होंने भाषा की मर्यादा, विचार की प्रखरता और दृष्टिकोण की गहराई को साधा है। एक लेखक, एक संपादक और एक सजग नागरिक के रूप में उनकी यात्रा समकालीन हिंदी समाज की जटिलताओं को समझने का प्रयास किया है कल्पना मनोरमा ने। इस बातचीत में पाठक निर्मला भुराड़िया जी के साहित्यिक अनुभवों, स्त्री दृष्टिकोण, पत्रकारिता में आए बदलाव और आज के समय में लेखन की जिम्मेदारियों पर बातचीत पढ़ेंगे। 


कल्पना मनोरमा : आपने लिखना कब से शुरू किया? किसकी प्रेरणा से या स्वत:स्फूर्त, आपने जब लिखना आरंभ ही किया वह दौर कैसा था, साहित्यिक, सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत तौर पर? 


 निर्मला भुराड़िया: मेरी लिखने की शुरुआत स्वत:स्फूर्त और अनायास ही रही। मैंने दस वर्ष की उम्र में लिखना शुरू किया। मगर यह सायास नहीं था, शब्द अपने-आप ही टपक पड़ते थे और पद्य-पंक्तियां कागज पर उतर आती थीं। चाहें तो उन्हें कविता कह लें। धीरे-धीरे मैंने उन्हें कॉपी में उतारना शुरू किया। फिर चौदह साल की उम्र से मैंने अपनी नियमित डायरी लिखना शुरू की जो कि मैं विवाह के बाद तक लिखती रही। वे डायरियां अब भी हैं मेरे पास, लेकिन मैं उन्हें छुपाकर रखती हूं, क्योंकि पढ़ने पर अब उसमें से बहुत सी बातें बचकानी प्रतीत होती हैं। फिर बाद में मैंने कहानियां लिखीं, उपन्यास लिखें और गद्य पुस्तकें भी। बचपन सत्तर का दौर का था। इंदौर एक बहता हुआ शहर था। शोरगुल के मायने में नहीं, यहां के दृश्य और किरदार विविध थे। फिर मेरे पांव में तो चक्का लगा था, बिलकुल आवारा घुमक्कड़ थी। अकेली ही घूमते फिरते जाने कौन - कौन सी गलियां नाप लेती थीं। नृत्यकला में प्रवीण फंला बाई जैसी तख्तियां पढ़ती हुई इंदौर के बंबई बाजार से गुजरती, तो कभी जूतियां गांठने वाले, बर्तनों की कलाई करने वाले, फूलों की वेणी बनाने वाले, रंगरेज, रुई धुनने वाले, चूड़ी बनाने वाली लखेरना आदि का काम देखने लगती। अब तो ये सब लुप्त हो गए हैं। खैर, मैं दुबली-पतली, कम कद काठी की थी। बोलती भी न के बराबर थी, अत: यह ऐसा ही था जैसे मैं मिस्टर इंडिया वाला बैंड पहनकर अदृश्य हो गई हूं और इस तरह कई दृश्य और बातें मेरे सामने घटित हुईं और मैंने उन्हें सोख लिया। मेरी हरकतें तो यूं कि एक बार एक मकान के ओटले (चबूतरे) पर एक आदमी मुंह तक कंबल ओढ़े लेटा था। कुछ देर में उसके इर्द - गिर्द भीड़ उमड़ने लगी, लोग फुसफुसाने लगे। पिद्दी सी मैं भीड़ की टांगें चीरती ठीक उस आदमी तक पहुंच गई और उसका मुंह उघाड़ दिया। दरअसल वह एक मुर्दा था। कोई भी सोचेगा उस जमाने में जब लड़कियां मां-बाप की आज्ञा के बिना घर से बाहर पैर भी नहीं धर सकती थीं, तब  मैंने ऐसी घुमक्कड़ी कैसे कर ली। हां, यह सच है कि मैं तबीयत से घरेलू नहीं थी, बिलकुल भी नहीं, मगर यूं घुमक्कड़ी के अवसर मुझे मेरे हालात ने प्रदान किए। जब मैं ढाई साल की थी, तब ही मेरे पापा का निधन हो गया था, मेरी मम्मी की उम्र उस समय सिर्फ साढ़े उन्नीस साल की थी और वे सिर्फ छठवीं कक्षा पास थीं। पापा के निधन के कुछ साल बाद मम्मी ने फिर से स्कूल में दाखिला लिया। मैं और मेरी मम्मी एक ही स्कूल में पढ़ते थे। मेरी शिक्षिकाएं मुझे कृष्णा ची मुलगी (कृष्णा की बेटी) ही कहती थीं। जब मैं कक्षा दो में थी तब मेरी मम्मी उसी स्कूल में कक्षा नौ में थी। पहली से पांचवीं तक की कक्षाएं सुबह की थी और छठवीं से दोपहर में। अत: जब तक अपनी माताराम घर पहुंचती अपन घूम-फिरकर वापस आ गए होते थे।



मैं व्यापारी परिवार से हूं। मेरे आसपास कोई साहित्यिक माहौल नहीं था पर जानें क्यों और कैसे मैं किताबी कीड़ा थी। आसपास के घरों में, रिश्तेदारों के यहां जो जो बाल पत्रिकाएं आती थीं, उनके घरों में जाकर मैं पढ़ लेती थी। मुझे पता था किसके यहां चम्पक आती है, किसके यहां नंदन या चंदा मामा या फिर बेताल। फिर थोड़ी बड़ी हुई तो किराना वाले नृसिंह स्टोर की लाईब्रेरी से और कभी खरीद कर भी किताबें लाने लगीं। हां मम्मी और मेरे साथ साथ पढ़ने का एक फायदा मुझे भी हुआ। मैंने नौंवीं कक्षा में विज्ञान विषय ले लिया था। अत: माध्यम अंग्रेजी हो गया था। विषय भी विज्ञान संबंधी। मगर मम्मी ने स्कूल में गृह विज्ञान और बाद में बीए में भी हिन्दी साहित्य लिया था, सो मम्मी बैठकर रट्टा मारतीं, 'ऊंची काली दीवारों के घेरे में, डाकू-चोरों के वटमार डेरे में', और उनसे पहले याद मुझे हो जाता, आखिर बच्ची थी ना तो स्मृति अच्छी थी। इसी समय मैंने उनके कोर्स की गल्प चयनिका, पंत, निराला, महादेवी की कविताएं, जीवनियां आदि भी पढ़ डाली। युवा होने के बाद तो हिन्दी और अंग्रेजी की भांति-भांति की पुस्तकें तो पढ़ी ही। हां और मुझे लगता था ना कि मेरे घर - परिवार में साहित्य से किसी का कोई लेना देना नहीं था। वह एक मायने में गलत साबित हुआ। मेरे और मम्मी के बीच में एक अलिखित-सा समझौता रहा है (अभी भी) कि हम दोनों एक दूसरे के सामने कभी रोते नहीं। मम्मी से मैंने पापा के बारे में कभी कुछ नहीं पूछा। अभी भी उनसे इस बारे में बात नहीं करती हूं। अपने दादाजी से भी मैंने पूछा। मगर जब मैं बत्तीस साल की थी अखबार में पत्रकारिता करने लगी थी, कई कविता कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी थीं, तब मेरी बड़ी बुआ के जरिए पता चला कि मेरे पापा ने अपने कश्मीर प्रवास की डायरी लिखी थी। तब मम्मी ने यह बताया कि वे रोज लाइब्रेरी से किताब लाते थे और रात के दो बजे तक पढ़ते रहते थे। 



कल्पना मनोरमा: जब आप साहित्य में स्थापित होने लगीं तब का समय कैसा रहा। उसके मद्देनज़र अब आपको क्या बदलाव महसूस हो रहा है? 




निर्मला भुराड़िया: स्थापित तो क्या कहूं, जब परिदृश्य पर उभरना शुरू किया तब तक दुर्भाग्य से धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान जैसी मुख्यधारा की पत्रिकाएं जा चुकी थीं, जो घर घर में पहुंचती थीं। लघु पत्रिकाओं में हंस अपने शिखर पर थी। इसकी पहुंच भले धर्मयुग की तरह घर घर तक न हो, पर एक बड़ी संख्या साहित्य प्रेमी पाठकों की थी जो हंस में प्रकाशित कहानियां चाव से पढ़ते थे। हंस में कहानी प्रकाशित होती तो बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, दिल्ली, मुंबई जैसी अलग - अलग जगहों से पाठकों के पत्र आते। कथादेश जैसी साहित्यिक पत्रिकाएं भी थीं, जो पढ़ी जाती थीं। उस दौर में इंडिया टुडे और आउटलुक जैसी समाचार पत्रिकाओं में भी साहित्य के पन्ने होते थे, जिनमें कहानियां, कविताएं, व्यंग्य और समीक्षाएं प्रकाशित होती थीं। इन पत्रिकाओं की पहुंच काफी विस्तृत थी, अत: इनमें प्रकाशित होने पर रचना काफी पाठकों तक जाती थी और प्रतिक्रियाएं भी बहुत मिलती थीं।  इन सभी में मेरी कहानियां छपीं। 1990 से 2000 और उससे एक - दो साल आगे के इस दौर तक अखबारों के साहित्यिक कोने का 'कटल' नहीं हुआ था, लिहाजा ब्रॉडशीट के अखबारों तक में पूरे-पूरे पृष्ठ की कहानियां छपती थीं। तब मेरी कहानियां जनसत्ता,संडे ऑब्सर्वर आदि में छपी थीं। कहानी काटी भी जा सकती है ऐसा तो कोई सोच भी नहीं सकता था। अखबारों में किताबों की विस्तृत समीक्षाएं भी प्रकाशित होती थीं, जिनका काफी महत्व था। समीक्षक किताब को पढ़कर समीक्षा लिखते और उस आधार पर लोग किताबें खरीदते भी थे। इसी दौरान मैं स्वयं एक अखबार में काम करती थी। कई लेखकों और साहित्यकारों से भी मिलना होता था, इससे अनुभवों में वृद्धि होती थी। अब अखबारों में साहित्य के लिए बेहद अल्प स्थान है। साहित्य संबंधी लघु पत्रिकाएं पहले वाले मुकाम पर नहीं हैं, कम से कम मेरा तो यही मानना है। मगर नए परिदृश्य में लिखने बोलने-पढ़ने के नए मंच भी हैं। आप  चाहो तो ब्लॉग लिखो, चाहो तो पोस्ट डालो, पॉडकास्ट बनाओ, इन सबसे विचारों और भावनाओं का आदान-प्रदान हो जाता है। दूर से दूर बैठे लेखक और पाठक एक दूसरे से प्रत्यक्ष वार्तालाप कर सकते हैं। हालांकि नए जमाने की इस फसल के साथ खरपतवार भी है, मगर कोई गम नहीं है, आप कच्चे हों या पक्के, आपको मंच सुलभ है। हां खुले मंच के चलते गालीबाज भी सेंध  लगाए बगैर आ जाते हैं, फिर भी पलड़ा तो इसी बात का भारी है कि रचनात्मक, सकारात्मक, विचारपरक सामग्री के लिए मंच सहज ही उपलब्ध है। दृश्य-श्रव्य माध्यम भी साहित्यकारों की रचनाएं, रचनाओं की समीक्षाएं, लेखकों के साक्षात्कार आदि प्रसारित करते हैं। हाथ में लेकर किताबें पढ़ने वालों के साथ ही किंडल पर पढ़ने वाले और ऑडियोबुक सुनने वाले भी हैं। हां मनोरंजन के नए साधन आने से किताबें थोड़ी कम पढ़ी जा रही हैं। पर किताबों के साथ हमेशा से यह र हा है कि किताबों का चस्का सबको नहीं होता। बाकी  परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है। Change is the only constant तो खुले हृदय से नए को स्वीकार करना, उसका स्वागत करना और उसे अपनाना अच्छा है। बाकी हर दौर की अपनी खूबियां और खामियां होती ही हैं। क्या पुराना, क्या नया।


कल्पना मनोरमा : आपके लेखन को प्रकाशित करने और करवाने में कौन-कौन संपादक, प्रकाशक ने दिलचस्पी दिखाई और लेखन के प्रति प्रोत्साहित किया?


निर्मला भुराड़िया: पहला नाम तो मैं हंस संपादक श्री राजेंद्र यादव का लूंगी, जिन्होंने कई रचनाएं छापी भी और लौटाई भी। मगर जब भी लौटाई तो अपने हाथ से लिखी चिट्टी के साथ, कि उन्हें रचना में क्या कमी लगी। मैं दिल्ली जाती तो हंस कार्यालय भी जाती थी, अक्सर दोपहर में जब यादव जी का लंच का समय होता था।  तुम भी खाओ कहकर वे अपना टिफिन आगे खिसका देते, फिर बातों का सिलसिला शुरू हो जाता। इसी बीच कोई और लेखक भी आ जाता तो चर्चा में वह भी शामिल हो जाता। उधर खुला- खाता था, अपॉइंटमेंट वगैरह का कोई चक्कर नहीं। यादव जी के पास असहमति के लिए भी जगह थी। सहमत न होने पर ऊंची आवाज में वाद-विवाद तो करते थे पर मन में नाराजगी नहीं रखते थे। किसी बात के लिए  बुरा नहीं मानते थे। अक्सर वे महिला लेखिकाओं को आत्मकथा लिखने के लिए उकसाते और फुसलाते रहते थे। कहते देखो मराठी, पंजाबी आदि भाषाओं में महिलाओं ने इतनी साहसपूर्वक आत्मकथाएं लिखी हैं।


हिन्दी की लेखिकाएं तो डरती हैं। फिर जोड़ देते, आप अपनी आत्मकथा कब लिखने वाली हो। मैं कहती कभी नहीं। वे कहते मतलब डरती हो? मैं कहती हां, डरती हूं। तो हंसने लगते। हमारे एक ख्यात पत्रकार सहयोगी यादव जी के कहने पर हंस के लिए आत्मकथा अंश लिखकर फिसल चुके हैं। बड़ी भद्द पिटी उनकी। खैर यादव जी ने स्वयं आत्मकथा नहीं लिखी, बल्कि 'मुड़-मुड़ कर देखता हूं' जैसे संस्मरण मात्र ही लिखे। एक और संपादक-लेखक मनोहर श्याम जोशी ने हमेशा प्रोत्साहित किया। उन्होंने तो यह भी कि मैं कुछ महीनों के लिए दिल्ली आऊं तो वे मुझे पटकथा लेखन के गुर भी सिखाएंगे। मगर घरेलू और कार्यालयीन व्यस्तताओं के चलते यह संभव नहीं हो पाया। हां जोशीजी से संपर्क हमेशा बना रहा। मृणाल पांडेजी हमेशा से ही मेरी प्रेरणास्रोत रही हैं। और उन्होंने हमेशा प्रोत्साहन भी दिया। एक फैलोशिप के लिए मुझे मृणाल जी का रेफरेंस चाहिए था। मैंने पूछा आप रेफरेंस देंगी तो उन्होंने जो जवाब दिया वह तो मेरे हृदय में अंकित हो गया। वे बोलीं 'हां क्यों नहीं? बिलकुल दूंगी, बल्कि दुआं करूंगी कि फैलोशिप तुम्हें मिल जाए।'नईदुनिया के श्री अभय छजलानी जी ने संपादन में तो मुझे खुला हाथ दिया ही, लिखने में भी रोका नहीं। श्रीमती वीना नागपाल का बेहद प्रसिद्ध कॉलम 'अपनी बात' नईदुनिया में आता था। जब वीना जी ने वह स्तंभ लिखना बंद किया तो अभयजी के पास कई महिला लेखकों, पत्रकारों के फोन और पत्र आए कि वीनाजी के स्थान पर अब वे इस विशेष स्तंभ को लिखना चाहेंगी, मगर अभयजी का दोटूक जवाब होता, 'सिर्फ निर्मला ही इसके साथ न्याय कर पाएगी।' उनके इस विश्वास ने मुझे गहन प्रेरणा दी। लगभग पच्चीस साल तक हर हफ्ते मैंने यह स्तंभ लिखा, पर कभी रिसेंसर हुआ, न रोका गया। जो लिखा, वही प्रकाशित हुआ।

यह कॉलम मध्यप्रदेश के शहरों, गावों, कस्बों में घर-घर में पढ़ा गया। पाठकों की खूब प्रतिक्रियाएं आई, किसी लेखक के लिए यह पुरस्कार होता है, सुधि पाठक मिल जाना। नई दुनिया के ही श्री राहुल बारपुते ने भी प्रेरित किया। नईदुनिया में मेरी नियुक्ति के लिए साक्षात्कार पैनल में बारपुते साहब थे, मेरे चयन में उनकी भूमिका थी। चयन हो गया, मैं काम भी करने लगी, उसके बाद भी उन्होंने मुझसे पौन घंटे बात करके टेस्ट लिया। फिर दो विषय देकर लेख लिखवाए ताकि यह पक्का कर सकें कि मैं संपादकीय और फीचर पृष्ठ के लायक हूं या नहीं। मुझे अभी तक याद है इनमें से एक विषय था बर्लिन की दीवार का गिरना एवं दूसरा था सोवियत संघ और पेरेस्त्रोइका मैंने दोनों लेख लिखकर दिए। फिर उन्होंने मुझसे अंग्रेजी कविताओं के हिंदी अनुवाद करवाए। फिर बाद में तो मैंने बारपुतेजी के साथ संपादकीय भी लिखे। आसानी से श्रेय न देने वाले, बात-बात पर परीक्षा लेने वाले, सख्त मिजाज बारपुतेजी के सान्निध्य में सीखने को भी बहुत मिला और प्रेरणा भी मिली। श्री प्रभु जोशी, श्री आलोक मेहता, श्री मंगलेश डबराल का भी हमेशा सहयोग और प्रेरणा रही।


कल्पना मनोरमा: आप कविता और कहानी की विषयवस्तु कहां से लाती हैं। कहानी के किरदार कैसे बनाती हैं। कोई यादगार किरदार या काव्य नायक - नायिका जिसने आपको सोने नहीं दिया हो। 



निर्मला भुराड़िया: बचपन से ही एक अजीब सी फितरत मुझ पर हावी है। कोई चेहरा देखते ही मन में कहानी बनने लगती है कि इस चेहरे के पीछे की कहानी भला क्या हो सकती है। यह एक ऐसी सनक है, जिसमें तथ्य जानना उतना जरूरी नहीं, आपकी कल्पना ही चीजें बुनती रहती हैं। मुझे यह कल्पना लोक बेहद प्रिय है। हैरी पॉटर जैसी किताबें पढ़ने के बाद मैंने उस पर बनी फिल्में नहीं देखीं, क्योंकि मुझे भरोसा है कि मनुष्य की कल्पना की उड़ान अनंत है, उसे कोई कैमरा नहीं छू सकता। मुझे अपने आसपास घटित होने वाली हर बात को गौर से देखना पसंद है। बोलते हुए लोगों के हाव-भाव, उनकी आवाज के उतार-चढ़ाव, आंखों से झांकता मन यह सब गौर से देखना मुझे दिलचस्प लगता है। कोई बेहद चुप्पा हो या किस्सागो हर एक अपने जीवन के रहस्यों की परतें किसी न किसी रूप में खोलता ही रहता है। इन्हीं से आपके पात्र निकलते हैं। असल जिंदगी के पात्र, काल्पनिक पात्र, देखी-अनदेखी घटनाएं मिलकर कागज पर एक नया जीवन रचती है। जहां तक विषय-वस्तु का सवाल है, मैंने कभी विषय ढूंढ़ा नहीं। जब भी जो बात चुभी और उस पर लिखने का मन किया तब लिखा। कुछ आत्मकथात्मक, कुछ दूसरों पर बीती, कुछ दुनिया - समाज की विडंबनाओं से उठाई गई बातों ने किस्सों का रूप लिया। परंतु पत्रकारिता ने मुझे यह सिखाया कि कल्पना के साथ भी तथ्यों का मेल हो तो तथ्यों की सत्यता जांचना बहुत जरूरी है। अत: किसी विषय पर लिखने के पहले मेरी कोशिश रहती है कि मैं उस पर अच्छे से शोध करूं। तो कुल मिलाकर यही कि किरदार और कहानियों के बिंदु तो असल जिंदगी से ही मिलते हैं, फिर आप उन्हें अपनी कल्पना से गढ़ते हं। कुछ किरदार ऐसे भी होते हैं जो आपने असल में कहीं नहीं देखे पर कहानी के हिसाब से खुद गढ़े। दरअसल लेखक जो गढ़ता है खुद ही उसकी प्राण-प्रतिष्ठा भी करता है और लिखते-लिखते वे किरदार उसकी ऑल्टर-ईगो बन जाते हैं। परकाया प्रवेश किए बगैर इन्हें जीवन देना संभव नहीं होता। अत: हां, एक नहीं कई किरदार ऐसे हुए हैं, जिन्होंने मुझे अपनी चुभन, अपने दर्द, अपनी परेशानियों से मुझे सताया है। अवसाद में भी धकेला है। जैसे कि उपन्यास जहरखुरानी में बालक बंतासिंह का पात्र ऑब्जेक्शन मिलॉर्ड की माधवी, गुलाम मंडी की जानकी। गुलाम मंडी की ही दस साल की वह बच्ची जो मानव तस्करों द्वारा अपने टेडीबियर सहित ही उठा ली गई थी। ऐसे और भी किरदार हैं जिन्होंने सोने नहीं दिया, इसलिए उन्हें कागज पर उतारना पड़ा।


कल्पना मनोरमा: निर्मला जी आपकी कृति "कैमरे के पीछे महिलाएं" इस पुस्तक के बारे में विस्तार से बताइए।


निर्मला भुराड़िया: यह पुस्तक फिल्म इंडस्ट्री की महिला निर्देशकों और उनके द्वारा बनाई गई फिल्मों के बारे में है। जब मैं यह किताब लिख रही थी तब मुझे यह पूछा भी गया कि निर्देशक तो निर्देशक है इसमें महिला पुरुष क्या? तो यह सही बात है, इस संदर्भ में हमारा सोच जेंडर न्यूट्रल होना चाहिए, परंतु मैं तो यह जानना चाहती थी की पुरुष प्रधान समाज में इन महिलाओं ने अपनी जगह कैसे बनाई? इन्हें क्या मुश्किलें आईं ,इन मुश्किलों को इन्होंने कैसे पार किया? फिर इन महिला निर्देशकों की बताई बातें, भविष्य की महिला निर्देशकों के लिए भी तो मार्गदर्शन साबित हो सकती हैं।अपने इस कार्य के लिए मैंने इन निर्देशकों की फिल्में देखीं और इनका विश्लेषण तो किया ही, मैं कई बार मुंबई जाकर इनमें से कई निर्देशकों से मिली और उनके साक्षात्कार भी लिए। इस पुस्तक को लिखने का एक और कारण था कि हमारे आसपास के विषयों को जब कोई महिला फिल्मकार फिल्मांकित करती है तो उनका नजरिया क्या होता है? 



जैसे कि अरुण राजे की फिल्म रिहाई है। मैंने यह फिल्म देखी और अरुणा जी से लंबी बातचीत में फिल्म रिहाई की मेकिंग का भी जिक्र आया। रिहाई एक ऐसे गांव की कहानी है जिसमें पुरुष रोजी रोटी के लिए शहर रहते हैं, कभी कभार छुट्टी मिलने पर ही गांव आते हैं। महिलाएं गांव में रहकर ही खेत खलियान, घर और बच्चे संभालती हैं । परदेस गए मर्द, एक जायज़ हक़ समझ कर अपनी लंबी रातें काटने सेक्स वर्कर के पास नियमित जाते हैं, मगर चाहते हैं कि गांव में उनकी औरतों उनका इंतजार करते हुए पराए मर्दों की छाया से भी सुरक्षित रहे। अतीत में ऐसा भी हो चुका होता है कि शहर में रोज़ स्त्रियों के पास जाने वाला मर्द गांव लौटने पर अपनी पत्नी को एक कमजोर क्षण में देख लेता है तो फूस के ढेर  में आग लगाकर प्रेमी सहित भस्म कर देता है। कुछ समय बाद गांव में एक और पुरुष आता है जो छैल छबीला है और कई स्त्रियों को कमजोर कर देता है...।

अरुणाजी को इस फिल्म के लिए कई ताने मिले। मसलन, क्या वे स्त्रियों के लिए सोने के अधिकार मांग रही है? उनका जवाब था, ",नहीं, यह फिल्म स्त्री पुरुष के अन्यगमन पर आधारित है,पर जो गलत है वह सभी के लिए गलत है और इस फिल्म में समाज के दोहरे मापदंडों को उजागर किया गया है। अरुणा जी ने यह भी बताया कि इस फिल्म के लिए उन्हें गालियां मिली, तो सराहना भी मिली। उन्होंने बताया कि वे स्वयं पिक्चर हॉल में जाकर बैठी थी और उन्होंने पाया ग्रामीण पंचायत के दृश्य पर कई पुरुषों ने भी तालियां बजाई।

पेस्तनजी और राव साहब जैसी महत्वपूर्ण फिल्में निर्देशित करने वाली विजय मेहता ने बताया कि महिला होने के नाते उन्हें फिल्म इंडस्ट्री में कुछ मुश्किलें तो आई। उन्होंने यह भी बताया कि पहले पहले जब आप छोटी होती हैं तब तो बड़ा सपोर्ट मिलता है लेकिन जैसे-जैसे यह पता चलता है कि भाई यह तो प्रतिस्पर्धी है, तो अहं का प्रश्न भी सामने आता है। इस स्थिति में आपको सर्वश्रेष्ठ से भी अच्छा देना पड़ता है। चूंकि शशि कपूर जी ने अपर्णा सेन को "36 चौरंगी लेन" के लिए फाइनेंस किया था इसलिए मैंने उनका भी साक्षात्कार लिया था। मैंने उनसे एक सवाल किया था कि आमतौर पर फिल्मों में महिला किरदार को शोपीस की तरह रखा जाता है। तो उन्होंने हंसते-हंसते कहा, "तो महिलाएं जब पिक्चर बनाएं तो पुरुषों को शोपीस बना लें" खैर यह मजाक ही था। 

लेकिन अभी यह सब पुनः सोच रही हूं तो एक तात्कालिक प्रश्न सामने आ रहा है। एक उम्रदराज साहित्यकार महोदय द्वारा एक युवा कवयित्री से छेड़छाड़ का मामला साहित्यिक हलकों और फेसबुक पर चर्चा का विषय बना हुआ है। मैं इसी के जरिए अधेड़ पुरुष और युवा लड़की की रोमांटिक जोड़ी को लेकर समाज की स्वीकृति के बारे में बात करना चाहूंगी। एक ऐसी मानसिकता जो न सिर्फ अनैतिक और अमर्यादित बल्कि आपराधिक है। 




हिंदी फिल्मों में हमेशा से यह होता आया है कि अधेड़ या अधेड़ावस्था से भी ऊपर वाले नायक की जोड़ी बिल्कुल ही युवा लड़की के साथ बनाई जाती है। जब नायक की समकालीन नायिकाएं मां के रोल करने लगती है, तब बूढ़े नायक के लिए जवान नायिकाएं लाई जाती हैं। देवानंद ने जीनत अमान, टीना मुनीम के साथ रोमांटिक जोड़ी बनाई। राज कपूर ने हेमा मालिनी के साथ सपनों के सौदागर में काम किया। सलमान खान ने अपने ही समकक्ष हीरो अनिल कपूर की बेटी सोनम कपूर के साथ रोमांटिक जोड़ी बनाई, सोनाक्षी सिन्हा के साथ भी। शाहरुख- दीपिका पादुकोण, अनुष्का शर्मा। अजय देवगन- रकुल प्रीत सिंह। अक्षय कुमार मानुषी छिल्लर, अक्षय कुमार परिणीति चोपड़ा। यह लिस्ट बहुत लंबी है कभी-कभी तो हीरोइन, हीरो की बेटी की उम्र की होती है। एक बार एक चर्चा में मैंने यह सवाल उठाया तो किसी ने टोका भी कि लोग देख रहे हैं ना! ऐसी जोड़ियों वाली फिल्मों को हिट भी बना रहे हैं, तो फिर फिल्म वाले क्यों रुकेंगे।

सचमुच मसला यही है। एक जमाने में जब ना तलाक होते थे, ना विधवा विवाह , तब उम्र दराज दहाजू के साथ लोग आराम से अपनी युवा छोड़ो अवयस्क लड़कियों तक की शादी कर देती थे। मुंशी प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास निर्मला में तो मसला ही यही है कि मुंशी तोताराम की ब्याहता उसके बेटे की उम्र की है, अतः बेटे और पत्नी का घुलना मिलना उसके शक का बायस बना हुआ है। दरअसल हमारे समाज की मानसिकता में पुरुष कभी बूढ़ा नहीं होता वाली युक्ति बहुत गहरे तक धसी हुई है। अतः बहुत से पुरुषों को अपनी बेटी की उम्र की लड़की को बेटी कहना अपने पौरुष पर चोट लगता है। समाज को चाहिए कि ऐसी फिल्मों की उपेक्षा करें, आलोचना करें जिसमें सींग कटाकर बछड़ा बना नायक किसी मासूम बछिया के साथ उछल कूद कर रहा हो। पर्दे से अलग,असल समाज में भी ऐसे पुरुषों को धिक्कार से देखा जाना चाहिए।


कल्पना मनोरमा : अब और तब के भारतीय समाज में प्रेम की जटिलता, सफलता-असफलता को आप कैसे देखती हैं?


निर्मला भुराड़िया: तब के और अब के भारतीय समाज में काफी कुछ बदला है। मोटे तौर पर जाति बंधन टूट रहे हैं। कुछ ही परिवार हैं जो बच्चों की पसंद के ऊपर अपनी नाक को रखते हैं। यूं भारतीय परिवारों में खुलापन बढ़ा है जो हमें अगली सदियों में ले जाता है। वहीं राजनीतिक स्तर पर हम मध्य युग की तरफ भी गए हैं, जिसमें प्रेम को लव-जिहाद तक ठहरा दिया गया है, यहां तक कि उसे कानूनी जामा पहना दिया गया है। पद्धतियां बदलती हैं तो नए द्वंद्व भी उत्पन्न होते हैं। कोई कहता है प्रेम विवाह जल्दी टूटते हैं तो कोई कहता है अरेंज मैरेज में एक दूसरे को समझे बगैर शादी होती है, टूटना होती है तो वह भी टूट जाती है। इस जटिलता से छुटकारा ऐसे मिल सकता है कि एक-दूसरे पर कुछ थोपो मत। जो अच्छा लगे वो करो।



कल्पना मनोरमा : विवाह संस्था और विवाहेत्तर प्रेम, अब लिव इन के खुले मुद्दे। आपकी क्या राय है इनके बाबत? क्या सहजीवन (लिव इन) की इस शैली को आप पाश्चात्य से संचालित मानती हैं।



निर्मला भुराड़िया: मैं विवाह संस्था में यकीन करती हूं, इससे स्थायित्व मिलता है। मगर यह जरूरी है कि इसमें गाड़ी के दोनों पहिए समान हों। पति-पत्नी के बीच प्रेम और मित्रता का रिश्ता हो, छोटे-बड़े का फर्क नहीं। सारी समझाइशें और बंधन सिर्फ स्त्रियों के लिए न हों। 

जहां तक लिव इन का प्रश्न है तो भारतीय परिवेश में इसके फायदे-नुकसान के बारे में नई पीढ़ी को स्वयं सोचना चाहिए। वे चाहें तो प्रयोग करें, हम बाहर से उनको judge नहीं कर सकते। मगर मुश्किल यह है कि आधे जोड़े तो इसका कनसेप्ट समझे बिना ही इसे अपना रहे हैं। मसलन ऐसे कई उदाहरण आए हैं जब लिव इन में रहने वाली लड़की ने रिश्ता टूटने पर 'शादी का वादा करके बलात्कार किया', जैसी रिपोर्ट लिखवाई और जिसके लिए कानूनी कार्रवाई भी हुई।  पहले तो सहमति से साथ रहना फिर अलगाव होने पर सहमति को बलात्कार ठहरा देना! कायदे से तो ऐसी लड़कियों को लिव इन चुनने के बजाए फिल्म 'ऑन मिलो सजना' के गाने 'अच्छा तो हम चलते हैं' की इन पंक्तियों को याद कर लेना चाहिए, लड़का- 'सुन ले फिर, दिल की फरियाद',लड़की - 'बस बाकी शादी के बाद!' 


कल्पना मनोरमा : आपकी नजर में स्त्री विमर्श की क्या दशा और दिशा होना चाहिए?


निर्मला भुराड़िया: आजादी के बाद के इन तमाम सालों में भारतीय स्त्री के जीवन में बहुत परिवर्तन आया है, वह भी सकारात्मक। इसमें भारतीय संविधान में बराबरी दिए जाने की भूमिका तो है ही, सामाजिक स्तर पर भी स्त्री-विमर्श के रूप में सराहनीय काम हुआ है। स्त्रियों की पढ़ाई-लिखाई, उनके अधिकारों की रक्षा पर ध्यान दिया गया है। इस बात को ध्वस्त करते हुए कि फलां-फलां क्षेत्र स्त्रियों के लिए नहीं है, उनका हर क्षेत्र में आना और सफलता से काम करना यह सब गर्व का विषय है। मगर पूरी तरह मंजिल मिलने में अभी भी कुछ दूरी है, खासकर ग्रामीण क्षेत्र में। पत्रकारिता, साहित्य, क्लबनुमा आधुनिक सामाजिक संस्थाओं की गतिविधियों से ग्रामीण स्त्री विमर्श लगभग लुप्त है। वहां अब भी कम उम्र की लड़कियों की शादी हो रही है। कम उम्र में वे गर्भ का भार संभाल रही हैं। पर्दा प्रथा पूरी तरह गई नहीं है। हां, वे चूल्हे पर नहीं, गैस पर रोटी पकाती हैं। अच्छे साबुन, शैम्पू और वॉशिंग मशीन भी गांव में पहुंची है। परंतु स्त्रियों को सामाजिक जकड़न देने वाली रिवायतें अब भी पुरानी हैं। विमर्श की दिशा इस तरफ भी होना चाहिए।


कल्पना मनोरमा : स्त्रियों के खिलाफ बढ़ रही हिंसा और कुछ स्त्रियों की ओर से हिंसात्मक पहलकारी पर आपकी टिप्पणी क्या होगी? 



निर्मला भुराड़िया: स्त्रियों के खिलाफ हिंसा पहले भी थी, अब रिपोर्ट होने लगी है। यह हिंसा बढ़ी है, ऐसे कोई आंकड़े नहीं है, मगर अब बहुत कुछ सामने आता है और बहुत कुछ अब भी दबा दिया जाता है। सामाजिक, पारिवारिक और राजनीतिक वजहों से भी। दबंगों द्वारा किए गए बलात्कार को छुपाने में पूरा का पूरा सिस्टम लग जाता है। परिवारों के भीतर बच्चियों के साथ कुछ होता है तो रिश्तों का हवाला देकर उन्हें चुप किया जाता है, जो पहले भी होता था और अब भी। हमारी सामाजिककता अब भी ऐसी है कि बलात्कार होने पर शिकारी नहीं शिकार को शर्मिंदा किया जाता है। 'लड़की की इज्जत लुट गई', 'आबरू लुट गई' जैसे शब्द ऐसी ही मानसिकता की उपज है। इज्जत तो उसकी जाना चाहिए, जिसने यह कार्य किया है, मगर चूंकि वर्जिनिटी,  यौनिक पवित्रता आदि के सब आग्रह स्त्रियों के लिए ही हैं, अत: परिवार को लगता है 'इज्जत लुट गई' और सामाजिक कलंक के डर से घटनाएं दबा दी जाती हैं। अब आते हैं स्त्रियों द्वारा हिंसा पर। स्त्रियों द्वारा की जाने वाली सारी हिंसाएं ही प्रतिशोधात्मक नहीं होतीं। यह एक मिथ है कि पुरुष दानव है और स्त्री देवी। सभी इंसान है। कुछ इंसान स्वभाव से ही दुष्ट होते हैं, वह पुरुष भी हो सकता है और स्त्री भी। एक बात और स्त्रियों के लिए दहेज-प्रथा से लड़ने हेतु कानून बनाए गए। इसका लाभ भी स्त्रियों को मिला। मगर ऐसी भी बहुत सी स्त्रियां हैं जिन्होंने झूठे इल्जाम लगाकर घरेलू हिंसा और दहेज कानून का गलत इस्तेमाल किया। इन्होंने उन स्त्रियों को खासा नुकसान पहुंचाया है, जो सचमुच इनकी शिकार हैं।


कल्पना मनोरमा : 2014 के बाद के समय पर आपकी राय क्या होगी? साहित्यिक, सामाजिक और मानवीय सरोकारों के तहत?


निर्मला भुराड़िया: जब हम लिख रहे होते हैं तो हमारे लिए केंद्र में मनुष्य होना चाहिए। यह जरूरी है कि साहित्यकार इस या उस की आंख से नहीं, बल्कि तीसरे व्यक्ति के तौर पर समाज को देखें। एक लेखक से नीर-क्षीर विवेक की अपेक्षा की जाती है। उसे अपने समय की विडंबनाओं पर उंगली रखना चाहिए, न कि उसमें शामिल होना चाहिए। नहीं तो वह अपने समाज, अपने समय काल और अपने खुद के प्रति न्याय नहीं कर पाएगा। राजनीतिक और धार्मिक पूर्वाग्रह उसे मनुष्य जीवन जीवन की  हलचल को साफ आंख से देखने से रोकेंगे। तब उसका लिखा उतना प्रामाणिक नहीं होगा। अच्छा लेखक वही है जिसकी अपने समाज और समय पर पकड़ सूक्ष्म हो, मगर हैरत है कि कुछ साहित्यकार पूर्वाग्रहरहित विश्लेषण नहीं कर पा रहे। कुछ भयातुर हैं। कुछ सत्ताशरणम् गच्छामि हो गए हैं।



कल्पना मनोरमा: आपकी दृष्टि में ‘लेखक बनना’ क्या केवल एक पेशा है, जिसमें पहचान और सफलता की होड़ होती है या यह एक मनुष्य को संवेदनशील, विवेकशील और आत्मान्वेषी बनाने की प्रक्रिया भी है? क्या लेखन ‘कैरियर’ से अधिक ‘चरित्र’ का निर्माण करता है?



निर्मला भुराड़िया: मुझे लगता है लेखक बनता नहीं भीतर से होता है। यदि कोई व्यक्ति यह खास रुझान लेकर पैदा हुआ है तो वह उसे संवार सकता है, विकसित कर सकता है। शब्द जब हृदय और आत्मा से निकालें तो निश्चित ही आध्यात्मिक आनंद देते हैं। लेखक वही है जिसकी संवेदनाओं के द्वार सभी के लिए खुले हों। दूसरों की संवेदनाओं को समझे बगैर आप अपने पात्र भला कैसे रचेंगे। जब कोई कुछ कहता है तो अपनी बात जन-जन तक पहुंचाना चाहता है। आपकी पहचान बनती है तो लोग आपको पढ़ने भी लगते हैं। इस संदर्भ में अपनी पहचान बनाना एक सकारात्मक कार्य है। प्रचार-प्रसार इसका एक जरिया है। हां ना तो इसे किसी दुष्ट प्रतिस्पर्धा में बदलना चाहिए, ना , "मैं ही सर्वोपरि" वाले सस्ते प्रचार में। अपनी लेखकीय गरिमा को बरकरार रखते हुए कैसे ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक पहुंचा जाए यह आज के जमाने में सचमुच बड़ी चुनौती है क्योंकि सामग्री के विस्फोट के इस जमाने में फूल खिला है तो सुगंध भी आएगी ही वाली युक्ति लागू भी कहां हो पा रही है।



कल्पना मनोरमा: आपसे ये भी पूछना चाहती हूं कि जब वरिष्ठ लेखक स्त्रियां, जूनियर लेखक स्त्रियों से कहती हैं कि 'महत्त्वाकांक्षी मत बनो, अपने लेखन के लिए पुरुषों से सहमति मत लो, उनसे भूमिकाएं मत लिखवाओ, प्रकाशित होने का लोभ मत रखो और किसी भी तरह से अपनी पहचान चमकदार बनाने की चाहत मत रखो' तो क्या ये सच्ची सलाह है? या उसके पंख कतरने की सलाह होगी ? क्या वरिष्ठ लेखिकाएँ अपनी जूनियर लेखिकाओं को उतना ही समर्थन देती हैं, जितना वे पुरुष साहित्यकारों से पा चुकी हैं?या पाएंगी। क्या सीनियर लेखिकाएं, जूनियर के प्रति उदार हैं? वे उनके लेखकीय कैरियर को उड़ान तक पहुंचा सकती हैं? आप इस प्रश्न को 'तब और अब' दोनों समयों की रोशनी में कैसे देखती हैं?


निर्मला भुराड़िया: मुझे मेरी सीनियर लेखिकाओं ने हमेशा पढ़ा, प्रेरणा दी, सहयोग किया। सर्वश्री मन्नू भंडारी, मृदुला गर्ग, मृणाल पांडे, चित्रा मुद्गल, ममता कालिया, नासिरा शर्मा, सुधा अरोड़ा, अनामिका सभी ने। किसी ने कोई उटपटांग सलाह कभी नहीं दी हमेशा प्यार और समर्थन दिया। आगे भी नई पीढ़ी को पुरानी पीढ़ी का प्यार और समर्थन ही मिलना चाहिए, बिन मांगी सलाह नहीं। नए लेखकों और लेखिकाओं का लिखा पढ़ना ही सबसे अच्छा उपाय है उन्हें प्रेरित करने का।




कल्पना मनोरमा: "फिर कोई प्रसन्न करो नचिकेता" से प्रेरित-क्या आज का 'नचिकेता' मृत्यु से प्रश्न पूछ रहा है, या जीवन से पलायन का बहाना ढूँढ़ रहा है?


निर्मला भुराड़िया: आज का नचिकेता ने तो मृत्यु से प्रश्न पूछ रहा है, ना जीवन से पलायन कर रहा है। तब के नचिकेता ने भी पहला प्रश्न अपने पिता और समाज से किया था कि जब यह गाएँ बूढ़ी हैं ,दूध देने योग्य नहीं है तो इन्हें दान देने का मतलब ही क्या? यह दान नहीं कोर कर्मकांड है। आज के समाज को भी ऐसे ही नचिकेताओं की सख्त आवश्यकता है जो  कुप्रथाओं और थोथी परंपराओं पर प्रश्न करें, किसी भी बुद्धिहीन धारा में बहने के बजाय असहमति जताए, सवाल पूछे। तर्क की तुला पर बातों को तोलें। भारतीय वांग्मय मैं वर्णित नचिकेता प्रसंग को इसी संदर्भ में आज फिर याद करना जरूरी है।



कल्पना मनोरमा : आपने एम.एससी लाइफ साइंस किया है, प्रावीण्य सूची में प्रथम स्थान के साथ। खुशी का विज्ञान जैसी किताब भी लिखी। यह आपके प्रोफेशन से बिल्कुल ही अलग धारा है। इस बारे में कुछ बताएं।


निर्मला भुराड़िया: हां मैंने लाइफ साइंस में एमएससी किया है। इसमें एडवांस बायोकेमेस्ट्री, माइक्रोबायोलॉजी, जेनेटिक्स, एनिमल फिजियोलॉजी, इकोलॉजी और प्लांट फिजियोलॉजी जैसे विषय थे। यह कहा जा सकता है कि लाइफ साइंस इन विषयों का संकुल है। यह एक रिसर्च ओरिएंटेड विषय है।  मुझे जूनियर साइंटिस्ट फैलोशिप भी मिल गई थी। मगर किसी वजह से मैंने यह उस वक्त छोड़ दी। मगर इस विषय से इश्क हमेशा रहा। प्रथम प्रेम यदि साहित्य है, तो द्वितीय प्रेम लाइफ साइंस। लिहाज़ा इन विषयों पर पठन-पाठन हमेशा चलता रहा है। इंदौर के स्कूल आफ लाइफ साइंस की लेबोरेटरी 80 के दौर में भी काफी उन्नत थी, अतः हम लोगों ने काफी प्रयोग भी किए। विषय को पढ़ती भी रही। मगर सारा कुछ अंग्रेजी में रहा,  अतः मन में यह विचार आया कि क्यों ना हिंदी में खुशी का विज्ञान यानी साइंस ऑफ जॉय या बायोलॉजी ऑफ हैप्पीनेस लिखा जाए। अब तो खैर यूट्यूब पर हर विषय हिंदी में उपलब्ध है। मगर उस वक्त हिंदी के पाठक इन चीजों से वंचित थे अतः किताब लिखी थी।





5. कल्पना मनोरमा:  आपके एक उपन्यास का नाम गुलाम मंडी है। गुलाम मंडी से आपका तात्पर्य क्या है? यह उपन्यास लिखने का ख्याल आपको कैसे आया? 



निर्मला भुराड़िया: मेरा यह उपन्यास मानव तस्करी या कहें ह्यूमन ट्रैफिकिंग के बारे में है। जब से दुनिया है तब से देह व्यापार है, गुलामी के भी कई रूप प्राचीन काल से अब तक दुनिया में विद्यमान रहे हैं। एक समय पर इंसानों की खरीद-फरोख्त बेशर्मी से होती थी, जायज़  तौर पर होती थी। आज दुनिया भर में इंसान द्वारा दूसरे को खरीदना फंसाना और गुलाम बना लेना नाजायज हो चुका है। विभिन्न देशों में इसके खिलाफ तरह-तरह के कानून बन चुके हैं, मगर कुछ मनुष्यों के भीतर का शैतान कभी नहीं सोता। वह दूसरे इंसानों को प्रताड़ना देने के नए-नए तरीके ढूंढ लेता है, जो जायज़ तौर पर संभव न हो उसे दबे छुपे, षड्यंत्र में बदलकर किया जाता है। लिहाज़ा आज के जमाने में भी इंसान की खरीद-फरोख्त होती है, देह व्यापार के लिए भी और बेगार के लिए भी। जिसे अब ह्यूमन ट्रैफिकिंग कहा जाता है। यह एक संगठित अंतरराष्ट्रीय अपराध है जिसकी जड़ें दुनिया भर में फैली है। तात्पर्य यही कि गुलाम अभी भी बिकते हैं, गुलामों की मंडी आज भी लगती है, भले ही दबे छुपे।। दुनिया भर की सरकारों ने इनसे लड़ने और उनके पंजों से मासूमों को छुड़ाने के उपक्रम तैयार किए हुए हैं। ऐसे ही एक उपक्रम को जानने समझने का मौका मुझे 2006 में मिला जब यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका की सरकार की ओर से इंटरनेशनल विजिटर लीडरशिप प्रोग्राम के तहत अमेरिका जाने का निमंत्रण मिला। इस प्रोग्राम का विषय ट्रैफकिंग इन पर्सन्स था। अमेरिकी विदेश विभाग द्वारा इस विषय से संबंधित कई विभागों व संस्थाओं से मिलवाया गया। लौट कर मुझे लगा कि इस विषय पर उपन्यास लिखा जाना चाहिए। लौट कर मैंने भारत में भी काफी रिसर्च की और उपन्यास के नोट्स लिए। इस उपन्यास में मुख्य धारा के साथ एक धारा किन्नरों के बारे में भी है। वे मानव तस्करी का भाग कैसे बनते हैं,  कैसी दुत्कार उनको जीवन में मिलती है, इस बारे में यह धारा चलती है। इसके लिए मैं किन्नरों के घरों पर भी गई और काफी  किन्नरों से बात भी की। थर्ड जेंडर की स्वीकृति समाज में आज भी मुश्किल है। अमेरिका में डलास में मैं एक स्ट्रिपटीज में भी गई थी, दुनिया भर से आई हुई गुलाम लड़कियां यहां कैसे नृत्य करने को मजबूर की जाती है यह देखने। डलास पुलिस ने मुझे दो संरक्षक साथ में दिए थे। क्योंकि अमेरिका के दक्षिण भाग में यह क्लब अपराधियों की मांद होते हैं।



 कल्पना मनोरमा:  आपका नवीनतम उपन्यास ज़हरख़ुरानी है। यह उपन्यास किस बारे में है और जहरखुरानी से आपका तात्पर्य क्या है?



निर्मला भुराड़िया: यह उपन्यास राजनीति को धर्म से नत्थी करने के भीषण परिणामों के बारे में है अतः ब्रिटिश इंडिया के बंटवारे का अत्यंत भयावह मंज़र भी इसमें है। यह कथा राजनीति को धर्म से जोड़ने के उन खतरों के बारे में भी है जो आने वाले भविष्य में निहित हैं ,मगर जिन्हें पहचाने के लिए अतीत को खंगालने के साथ ही देश की राजनीति को आलोचनात्मक निगाह से परखना भी आवश्यक है। ट्रेन आदि में लूट की घटनाएं इस तरह होती है कि प्रसाद या खाने की सामग्री में नशीला पदार्थ दे दिया जाता है, पूरे डब्बे में सब लोग सो जाते हैं और लुटेरे लूट करते हैं। पुलिस डायरी में इसे जहरखुरानी कहा जाता है। मैंने इस शब्द का उपयोग धर्म के नाम पर राजनीति कैसे लोगों का ब्रेन वॉश करती है इस संदर्भ में किया है। धर्म के नाम पर जहरखुरानी की जाती है ताकि एक खास नशे की पुड़िया देकर लोगों की विचार और विश्लेषण की प्रक्रिया को हर लिया जाए और उन्हें रेडिकलाइज किया जाए। मज़हब के नाम पर नफरत फीड करके इंसानी रोबोट बनाए जाते हैं जो सत्ताओं के रिमोट कंट्रोल से चलते हैं। राजनीति और धर्म के सत्ताधीशों ने कट्टरपंथ को हमेशा पाला-पोसा है ताकि धर्म संबंधी मामलों को पत्थर की लकीर मानने वाली एक विचारहीन फौजी उनका झंडा थामे उनके पीछे चलती रहे। यही है जहरखुरानी।




कल्पना मनोरमा: इलेक्ट्रॉनिक मीडियम से भी आपका नाता रहा है। मालूम हुआ कि आपने आज तक के लिए भी कुछ रिपोर्टिंग की थी। 




निर्मला भुराड़िया: आजतक के लिए कुछ एक ढाई मिनट के कैप्सूल किए थे, बस। उस वक्त आज तक सिर्फ 20 मिनट का होता था। मध्य प्रदेश दूरदर्शन के लिए मैंने एंकरिंग की और साक्षात्कार भी लिए। मन्नू भंडारी, चित्रा मुद्गल, सुमित्रा महाजन, तेजेंद्र शर्मा आदि। मध्य प्रदेश दूरदर्शन के लिए एक छोटी सी फीचर फिल्म में भी काम किया था, इसमें मैंने एक संपादक की ही भूमिका निभाई थी। वृत्त चित्र निर्माता अपनी मित्र रचना जौहरी के लिए मैंने कुछ स्क्रिप्ट्स भी लिखी। इलेक्ट्रॉनिक मीडियम से बस इतना ही नाता रहा, कुछ खास नहीं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बदलते दौर का जहां तक सवाल है यह आज 24x7 हो चुका है, इसे हर वक्त पेट भरने को कुछ चाहिए अतः अल्लम - गल्लम भी खाता रहता है।आपने भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति के बारे में पूछा है। तो मैं यह कहना चाहूंगी कि  देखते ही देखते,बहुत कुछ बदला है। वे क्या कपड़े पहनेंगी, करियर वुमन बनेंगी, रीति रिवाज निभाएंगी या नहीं ऐसी कई बातों पर पहले उनका कोई इख्तियार नहीं था। भारतीय समाज में औरतें पूरी तरह आज्ञा चक्र में बंधी थी। मगर अब काफी परिवर्तन हुआ है। बहुत सा परिवर्तन होना अब भी बाकी है। क्योंकि समाज का नजरिया धीरे-धीरे ही बदलेगा। भारतीय स्त्री के स्वयं के बारे में एक बात मैं बहुत शिद्दत से महसूस करती हूं ,वह यह है कि उनमें गहन राजनीतिक चेतना भी होना चाहिए, जिसका काफी अभाव अभी दिखाता है। आखिर वह भी एक वोटर है। देश में बराबरी की नागरिक है। उनके पास अपनी खुद की समझ होना चाहिए। ना हो तो यह समझ उन्हें विकसित करना चाहिए। ना उन्हें राजनीतिक प्रलोभनों में आना चाहिए, नाही परिवार चाहे उसी जगह पर वोट देकर आ जाना चाहिए। देश और समाज दोनों के स्वस्थ विकास के लिए यह जरूरी है की हमारी आधी आबादी भी राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों को अच्छी तरह समझे।


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