मैं बक्सवाहा जंगल हूँ!


 



मैं बक्सवाहा जंगल हूँ! सदियों पहले मेरा जन्म हुआ था। तब से बुन्देलखण्ड की धरती ही मेरी माता है। मैं अपनी उत्त्पति में किसी और का नहीं सिर्फ प्रकृति और भू देवी का हाथ मानता हूँ। मेरे रूप लावण्य को निखारने वाली वही दोनों हैं। मैं अपने खान-पान के लिए स्वयं पर निर्भर हूँ। मेरा शारीरिक आकार-प्रकार न बहुत बड़ा है और न ही बहुत छोटा। मेरे तन के इर्दगिर्द कई एक नदियाँ अपनी निरन्तरता के साथ कलकल ध्वनि करती हुईं सदैव दौड़ती रहती हैं। हर एक मौसम की पावन पवन मेरा माथा सहलाती रहती है। मेरे आँगन की कोमल दूर्वा प्रत्येक जीव का बिछौना है। मैं जब किसी हिरन शावक को कुलाचें भरता हुआ, किसी दुधमुंहें को घोंसले में अपनी माँ की प्रतीक्षा करते देखता हूँ तो मेरा मन ख़ुशी से गदगद हो उठता है। आदिकाल से एक ही धुन में जीने वाले मेरे आदिवासी प्यारे भाई-बहन मेरे परिवार का ही हिस्सा हैं। मैं उन्हें अपनी बाहों में लेकर झुलाता हूँ। सुबह की प्रभाती और साँझ की नारंगी रश्मियों से भरे आसमान के तले संझाती गातीं बुलबुलें मेरी कुल वधुएँ हैं। अभी तक कितने मुगल और अंग्रेज आये-गए कोई भी मेरा बालवाँका नहीं कर पाया। कुल मिलाकर अभी तक मैं आत्मसंतुष्टि के साथ संसार का साथी हूँ।

छतरपुर नगर से मेरी घनिष्ठ नजदीकियाँ हैं। ये नगर, मध्य प्रदेश राज्य; मध्य भारत में स्थित है। इस नगर की पूर्वी सीमा के पास से सिंघारी नदी बहती है। आरंभ में पन्ना सरदारों द्वारा शासित इस नगर पर 18वीं शताब्दी में कुंवर सोन सिंह का अधिकार हुआ करता था। यह नगर चारों ओर पहाड़ों से घिरा हुआ है। वृक्षों,तालाबों और नदियों की अधिकता की वजह से अत्यंत शोभाशाली, मनोरम, देखने योग्य रमणीय स्थल है। छतरपुर की विशेषताओं में गिने जाने वाले ऐतिहासिक धरोहर के रूप में यहाँ के तीन महत्त्वपूर्ण तालाब हैं। राव सागर, प्रताप सागर और किशोर सागर। बुंदेल राजा छत्रसाल ने १७०७ में छतरपुर की स्थापना की थी। उन्होंने मुग़लों की सत्ता का सफलतापुर्वक पुरज़ोर विरोध किया था और उन्हें परास्त करने में सफलता पायी थी। 

यह नगर अंग्रेजों की मध्य भारत एजेंसी की भूतपूर्व छतरपुर रियासत की राजधानी भी था। यहाँ १९०८ में नगरपालिका का गठन हुआ। छतरपुर में एक संग्रहालय, अधिकारियों की आधुनिक कॉलोनी और रीवा के अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय से संबद्ध महाविद्यालय व एक विधि विद्यालय भी है। कृषि और खनिज की दृष्टि से यह क्षेत्र सड़क जंक्शन माना जाता है। यहाँ से चारों दिशाओं से चाहे सड़क मार्ग हो या रेलमार्ग सभी रास्तों के मिलने का स्थान है। यह नगर कृषि उत्पादों तथा कपड़ों का व्यापारिक केंद्र माना जाता है। इस नगर के आसपास का क्षेत्र धसान तथा केन नदियों के बीच का उपजाऊ मैदान है। जिसके दक्षिण में कहीं-कहीं ४५० मीटर तक ऊँची वनाच्छादित पहाड़ियाँ हैं। यहाँ की पुरानी औद्योगिक गतिविधियों में चीनी और नमक का बाज़ार, टाट-पट्टी निर्माण, छोटे पैमाने पर उत्पादित काग़ज, साबुन, पीतल, लोहे के बर्तन और अपरिष्कृत छुरी-कांटे का निर्माण शामिल है। आधुनिक उद्योगों में इनके अलावा क़ालीन, दरी, कंबल, कांसे के बर्तन तथा सोने-चांदी के आभूषण व लकड़ी पर नक़्क़ाशी, प्रलाक्षाकर्म, लाख की वस्तुएं, मोटे सूती वस्त्रगंज़ीकी बुनाई और कपड़ों पर छपाई का काम भी शामिल है।

यदि मैं किसी बात से अचंभित हूँ तो वो ये है कि पृथ्वी पर हो रहे विकासीय बदलावों  की रहस्यात्मक भनक मुझे भी थी लेकिन आदमी जितना नमक हलाल मैं क्यों नहीं निकला। मैं अपना मन बड़ा करके हर परिस्थितियों से निपटने के लिए अपने को मनुष्यों के अनुरूप बदल भी रहा हूं। क्योंकि मैं ऐसे देश का हिस्सा हूँ, जहाँ सुबह आदमी धरती को देवी मानते हुए माथा नवाता है। किसी भी वस्तु, व्यक्ति और स्थान में बदलाव होना एक सकात्मक नज़रिया हो सकता है यदि किसी को चोट न पहुँचाई जाए। किंतु मानवीय कुटिलता मुझे हतप्रभ करती है। मैं भारत के पोखरण में हुए धमाकों को नहीं भूला हूँ। लेकिन उनसे मैं दहला नहीं। किंचित मैं जानता था कि ये सब हमें सुरक्षा देने के निमित्त किया जा रहा है। वहीं उत्तराखंड के शीर्ष पर आई प्राकृतिक आपदा की निर्मम पुकार से मेरा हृदय पत्थर का बन गया था। मैं दहाड़ें मार -मार कर रो रहा था किन्तु मेरी आवाज़ खो गयी थी। जब से देश विकाशील देशों में गिना जाने लगा है तब से जितनी भी प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं,कुछ को छोड़कर सब की सब मनुष्यों द्वारा आमंत्रित की होती हैं। मैंने मनुष्य को सदैव अपना सहचर माना है लेकिन उसने मौका पाते ही मेरे साथ धोखा ही किया है। मैं हमेशा सोचता था कि मेरे सर पर तना आसमान और बस्तियों की छतों पर झुका आसमान अलग थोड़े है? भू-माता की  कृपा से सदैव मेरे मन में वसुधैव कुटुम्बकम् सनातन धर्म का मूल संस्कार तथा विचारधारा रही है। जो महा उपनिषद सहित कई ग्रन्थों में लिपिबद्ध है। क्या मनुष्य अपने जीवन का श्रेय इस मंत्र को नहीं बना सकता?

जब भी इस सुंदर धरा के पसारे में किसी को सुई की नोंक भर भी पीड़ा होती है तो मुझ जैसे  वन प्रांतों को भी मर्मांतक पीड़ा का अनुभव होता है। मेरे देखते-देखते चाहे सतपुड़ा के जंगल हो या बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान,पन्ना नेशनल पार्क,पंचमढ़ी अभयारण्य और पेंच राष्ट्रीय उद्यान हो सभी ने निरंतर मौन होकर बदलावों के विध्वंश को सहा है। फिर भी हम में से किसी ने अपने मन में लालच को कभी जगह नहीं दी। आखिर मनुष्य के मन में उदारता की जगह लालच क्यों रह रह कर व्याप्त होता जा रहा है। 

माना कि बाज़ारवाद के सामंती क्रूर चेहरों ने संसार के समस्त प्राणियों को दाह दी है। मुझे और मेरे जैसे मेरे रिश्तेदारों को तो नाकों चने चबवाने के उपायों को रचने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई है। आज के सामंतवादी उद्यान भले ही समकालीन हवा-पानी से प्रसन्न हों लेकिन हम जैसे जंगलों को भारतीय मूल्यों का सांस्कृतिक क्षरण होते देखना अब भी अति क्षोभ का कारण बनता है। हाँ, इतना जरूर है कि मैं मानवीय बस्तियों से दूर रहता हूँ इसलिए ज्यादातर उन्मादी उठा-पटक से किंचित बचा रहता हूँ। 

भारत के मध्यभाग के छतरपुर में मेरा जीवन खुशहाल कहा जा सकता था। हालांकि बदलती संस्कृति का असर जितना रिहायसी इलाकों में दिखाई पड़ता है, उतना ही हमारे भीतर भी होता जा रहा है। हमारे पाँवों के नीचे की जमीन कब खोखली कर दी जाए, इसका डर मुझे हमेशा सताता रहता है। मैं स्वयं को मनुष्यों से अलग नहीं मानता हूँ। जैसे वे कुनबे बनाकर रहते हैं। ठीक वैसे ही मैं अपने कुनबे के साथ रहता हूँ। जैसे उनके परिवार में छोटे-बड़े और बूढ़े जन होते हैं। उसी क्रम में मेरे परिवार में भी सदस्यों को देखा जा सकता है। जैसे मनुष्य अपने वंश की बढ़त पर हर्षोल्लाषित होता है। वैसे ही हमारे परिवार में दिनों दिन बढ़ोत्तरी होती देख मुझे ख़ुशी होती है। हम अनेक जातियों के होते हुए भी एक पादप जाति की पुष्टि करते हुए जीवन जीते हैं। जब किसी भी पादपकुल में कोई नव शिशु जन्म लेता है, हम एक साथ मिलकर बसंत का आवाहन करते हैं। और जब कामदेव मादकता के हिंडोले पर रंगों के  साथ वसुंधरा पर उतरते हैं तब हम उनके पथ पर पुष्प-अल्पनायें सजाते हैं। वे हमारे आंगन में आकर नवान्कुत को फलने-फूलने का वरदान देते हैं। ऋतुपति कातुम जितने हो हर साल उससे अधिक हो" का आशीर्वाद पाकर मेरा मन मोद से भर जाता है। हमारी पारवारिक बृद्धि में प्रकृति के डाकिये पंछी और बादल भी मेरा साथ निभाते हैं। मैं उनका भी ऋणी होकर उन्हें अपने अंतस में आश्रय देता हूँ।

जिस प्रकार इस भूलोक पर मनुष्य, जीव, जंतु आदि सुख और दुख के निमित्त बनते हैं। उसी प्रकार  हमारे यहाँ भी सुख-दुःख पूरे साज-ओ-सामान के साथ आता है। वैसे हमारी जान के दुश्मनों की कमी नहीं है। वे अपने उदर पूर्ति के लिए हमारी हत्याएं करते हैं। आए दिन भू माफिया, जंगल माफिया आदि तस्करों की क्रूर चालों को सहता रहता हूं। हालाँकि कभी-कभी समयावधि पूरी करने के बाद किसी अपने का बिछोह भी हमें सहना पड़ता है तो कभी आकस्मिक भी। किन्तु जब मेरा कोई युवा हमसे दूर किया जाता है तो हम सभी बिलख पड़ते हैं। हमारा बिलखना हो सकता है मनुष्यों को न सुनाई पड़ता हो क्योंकि हमारी भाषा में अंतर जो है। जब उधर से आद्रता महसूस नहीं होती तब मुझे लगने लगता है कि आपस में प्रेम होने के लिए शायद भाषा का एक होना बहुत जरूरी विषय है। जबकि मानवीय भाषा को हम दिनों दिन सीखते जा रहे हैं किन्तु मानव नहीं। 

आदिकालीन ढंग से रहने वाले भावुक जन हमारे साथ ही रहते हैं। वे मेरे सुख-दुख के सहभागी हैं। उनकी और मेरी भाषा लगभग एक जैसी है। प्रेम की भाषा। उनके यहाँ जब कोई उत्सव-उल्लास होता है तो वे हमसे लिपट-लिपट कर खुशियाँ मनाते हैं। हमारी पूजा करते हैं। हम सब अपना होना उनपर दिल खोलकर लुटाते हैं। अपनी घनी छाया उन्हें दिल से सौंपते हैं। वे अपने नव जन्मा के उत्सव में हमेशा हमारे आँगन में नव वृक्षारोपण कर हमारी वंशबृद्धि के उपाय करते हैं। आपको बताऊँ तो म.प्र. की कुल जनसंख्या की लगभग २०  प्रतिशत आबादी आदिवासी है। जनगणना २०११ के मुताबिक मध्यप्रदेश में ४३ आदिवासी समूह हैं। इनमें भील-भिलाला आदिवासी समूह की जनसंख्या सबसे ज्यादा ५९.९३९ लाख है. इसके बाद गोंड समुदाय का नंबर आता है, जिनकी आबादी ५०.९३१ लाख है।

छतरपुर जिले के एक भाग में रहते हुए मुझे वर्षों बीत गए। लाखों आए और लाखों गए लेकिन मुझसे टकराने की हिम्मत किसी ने भी नहीं की। मेरे भारत की धरती गौरवशाली और आली है। इसके नीचे खनिज-संपदा कूट-कूट कर भरी है। किसी भी जगह कुदाल मार करके तो देखो। लेकिन अब खबर है कि मध्य प्रदेश भूविज्ञान एवं खनन निदेशालय (डीजीएमएमपी) की २०१७ की एक रिपोर्ट के मुताबिक मेरी माता भूदेवी की कोख हीरों से भरी है। माँ के उदर में जो हीरे है उनका अनुमानित बाजार मूल्य करीब ५५,००० करोड़ रुपये है। इस परियोजना कोबंदर डायमंड प्रोजेक्टनाम मिला है। २०१९ में राज्य की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इस हीरा खदान की नीलामी की थी। जिसके तहत आदित्य बिड़ला ग्रुप की कंपनी एस्सेल माइनिंग एंड इंडस्ट्रीज लिमिटेड (ईएमआईएल) को खनन के लिए जंगल की ३८२.१३१ हेक्टेयर वन भूमि ५० साल की लीज पर दे दी गई है, किंतु अभी खुदाई का काम शुरू नहीं हुआ है। किसी के निर्णय का इंतजार हो रहा है। मैं तो कहता हूँ ये इन्तजार कभी न खत्म न होने वाला इंतजार बनकर रह जाए और हमारे आंगन में रहने वालों का बसेरा न उजड़े।

खैर,उसी के चलते आजकल जोरशोर से बक्सवाहा जंगल यानी की मेरी जान बचाने की लड़ाई में स्थानीय लोगों के साथ-साथ समस्त देश से लोगों की आवाज़ें मुझे सुनाई दे रही है। उन्हीं के द्वारा  महत्वपूर्ण बिंदु उठाये और बताए जा रहे हैं। जैसे कि जंगल में बंदर, भालू, तेंदुआ, बारहसिंघा, बाज, हिरण जैसे वन्यजीव मौजूद होते हैं। अगर मुझे काट दिया गया तो उनका रहवास लुट जाएगा। वे कहाँ जाकर शरण लेंगे। और इस बात की पुष्टि मैं भी करता हूँ कि मेरी शक्ल को बिगड़ा न जाए।

आपको बता दूँ कि इस क्षेत्र की करीब-करीब 35 फीसदी आबादी अनुसूचित जाति और जनजाति की है। वे लोग आर्थिक रूप से मुझ पर ही निर्भर हैं। मेरे आँगन से उपलब्ध सामग्री पर वे अपना जीवन चलाते हैं। उनके पास जो जुताई-बुआई वाली जमीनें हैं, उनमें वे साल में केवल एक फसल मसूर या सोयाबीन की ही उगा पाते हैं। उसके बाद सभी आदिवासी जन जंगल में पाए जाने वाले महुआ और तेंदूपत्ता पर जीवकोपार्जन के लिए निर्भर होते हैं। मेरे आदिवासी शुभेच्छु भाई-बहन महुआ से देसी शराब और तेल आदि निकालते हैं। जबकि तेंदूपत्ता वे लोग बीड़ी बनाने के काम में लाते है। बीड़ी बनाना कई परिवारों का रोजगार भी है। जैसे मुझे उनसे जुड़ाव महसूस होता है वैसे ही उन्हें मेरी जमीन से भावनात्मक जुड़ाव है। वे नहीं चाहते कि मेरे तन को छुआ भी जाए। सुनने में तो ये आ रहा कि आदिवासी लोग तो हैं ही हमारे साथी लेकिन इस मुहिम में देश की संभ्रांत जनसंख्या और बच्चे भी शामिल होते जा रहे हैं। ये मेरे लिए हर्ष का विषय बनता जा रहा है। आशा करता हूँ कि मुझे बचाने की पहल में सभी को विजयश्री हासिल हो। वनप्रांतीय जन जीवों की मौन पुकार संसद तक पहुंचे भी और सुनी भी जाए।

मनुष्यों की भांति मेरे अंदर भी बदलाव आता है। समय मेरे शरीर पर भी अपना ठप्पा लगाता है। लेकिन मेरे भीतर हो रहे बदलाव बहुत बारीक होते हैं। जल्दी से किसी को दिखाई नहीं देते। तकनीकीरण की धुरी पर सवार पृथ्वी ग्रह पर आज एक ऐसे विषाणु ने हल्ला बोल दिया है जो बेहद असहाय और निरीह है लेकिन बुद्धिमान समझे जाने वाले मनुष्यों  पर वह भारी पड़ता जा रहा है। उसको देखने के लिए बड़ी और महँगी मशीनों की जरूरत पड़ रही है। उसे मिटाने के कार्य में सरकारें नतमस्तक हैं। लेकिन मुझे शिकायत बस इतनी है कि हमारे वनवासी गिरिजन,पंछी और जीव-जन्तु तो किसी से कुछ नहीं मांगते उनको देखने के लिए किसी विशेष उपकरणों की जरूरत नहीं है। वे तो दूर से ही देखे जा सकते हैं फिर भी उनको अनदेखा क्यों किया जा रहा है। अगर मुझे काट दिया गया तो वे कहाँ जायेंगे। पलायन का दंश बहुत गहरा होता है। ये बात आखिर मनुष्य क्यों समझना नहीं चाहता। 

अभी कुछ समय पहले ही पृथ्वी पर प्राणवायु को लेकर जो हंगामा खड़ा हुआ था क्या मुझसे छिपा है? प्राणवायु की कमी के कारण मनुष्य पतझड़ के पत्तों सा झर रहा था। क्या मनुष्य ये नहीं जानता उस प्राणवायु का स्रोत मेरा ही अंतस है। रही बात मेरी माँ का अंतरमन हीरों से भरा है ऐसा कहा जा रहा है। तो मैं ये कहना चाहता हूँ कि माँ मेरी हो या किसी और की उसके हृदय में करुणा और वात्सल्य के हीरे भरे ही होते हैं। तो क्या हम उसका सीना खोखला कर उसको मारने पर उतारूँ हो जायें 

मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वह विकास के रथ पर सवार होने वाले जीव को सद्बुद्धि का ऐसा उपहार दे कि समस्त वायुमंडल संतुलित बना रहे और वह अपनी तरक्की की लिप्सापूर्ण भूख भी मिटा सके।

 

(निबन्ध में ऐतिहासिक डाटा का स्रोत भारत कोष और वायस ब्लॉग है. साभार) 

प्रकृति दर्शन पत्रिका में प्रकाशित!

Comments

  1. बक्सवाहा जंगल की विस्तृत जानकारी मिली। महत्त्वपूर्ण आलेख। हार्दिक बधाई, कल्पना जी। 💐

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत ज्ञान वर्धक और सुरुचिपूर्ण आलेख कल्पना जी।बहुत अच्छी जानकारी मिली,हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ,आपके 'कस्तूरिया' ब्लाग को भी 🌷🌷🌷🙏

      Delete
  2. आप दोनों प्रिय मित्रों को बहुत धन्यवाद!

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

एक नई शुरुआत

आत्मकथ्य

बोले रे पपिहरा...