एक बीज की तरह बालिका 20.07.2025

बुनियादी चिन्तन: बालिका से वामा तक ( स्वदेश का प्रथम स्तम्भ )

स्वदेश : प्रथम स्तम्भ 

 

स्त्री बनने से पहले हर स्त्री एक बालिका होती है। यह बात जितनी सामान्य प्रतीत होती है, उतनी ही गहरी और उपेक्षित भी। समाज, परिवार और संस्कृति अक्सर उस बालिका को स्त्री के "पूर्वरूप" के रूप में देखने के बजाय, एक तैयार की जा रही भूमिका मान लेते हैं, जैसे वह कोई पात्र नहीं, बल्कि एक ‘भावी बहू’, ‘संस्कारी बेटी’, या ‘सहनशील नारी’ के साँचे में ढलने वाली आकृति हो। इसी सोच के कारण बालिकाओं का बचपन, जो संवेदना और संभावना से भरा होता है, अक्सर बोझ, भय और प्रतिबंध की ज़मीन पर टिकता चला जाता है।

बालिका का बचपन किसी बीज की तरह होता है, छोटा, कोमल, लेकिन भीतर एक पूरे वृक्ष की संभावना लिए हुए। यह बीज यदि संवेदनशील मिट्टी में बोया जाए, यदि उसे पर्याप्त प्रकाश, संरक्षण और जल मिले, तो वह न केवल एक सशक्त स्त्री के रूप में विकसित हो सकती है, बल्कि समाज की दिशा बदलने वाली चेतना भी बन सकती है। परंतु इस बीज को अकसर उपेक्षा, नियंत्रण और भय की बंजर ज़मीन में गाड़ दिया जाता है।

भारतीय संस्कृति में बालिका को देवी का रूप माना गया है। कन्या पूजन की परंपरा हो या विद्यादान की मान्यता ये प्रतीक इस बात की ओर संकेत करते हैं कि हम बालिका को सामाजिक गरिमा और आध्यात्मिक ऊर्जा से जोड़कर देखते रहे हैं। किंतु व्यावहारिक जीवन में, वही बालिका अक्सर पहले 'चुप रहने' की सीख पाती है, फिर 'लाज' और 'संकोच' की दीवारों में कैद होती है। उसके खेलने, दौड़ने, सोचने, यहाँ तक कि सवाल करने पर भी सामाजिक नियंत्रण लागू कर दिए जाते हैं  और यह सब "संस्कृति" और "संस्कार" के नाम पर किया जाता है।

यहाँ यह प्रश्न उठता है क्या स्त्री बनने से पहले बालिका का स्वयं होना आवश्यक नहीं है? क्या वह एक पूर्ण व्यक्ति के रूप में सोचने, महसूस करने और अपने निर्णय लेने की अधिकारी नहीं होनी चाहिए?  जब हम बालिका को केवल एक 'प्रभावी स्त्री' के भविष्य के रूप में देखते हैं, तो हम उसके वर्तमान को नकार रहे होते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि एक संवेदनशील, विचारशील और सशक्त स्त्री वही बन सकती है जिसका बचपन सुरक्षित, स्वच्छंद और प्रेमपूर्ण रहा हो।

बचपन में जिस तरह एक बालक को स्वतंत्रता, शिक्षा, साहस और कल्पना की दुनिया में जाने की अनुमति दी जाती है, उसी तरह की दुनिया एक बालिका के लिए भी अनिवार्य है। वह भी नए विचार सोच सकती है, वह भी गलतियाँ करके सीख सकती है, वह भी पेड़ पर चढ़ सकती है, और वह भी आकाश को देखने का सपना देख सकती है। बशर्ते उसे सुरक्षा के साथ-साथ सम्मान भी मिले।

बालिका के भीतर जो संवेदना होती है, वह उसके भीतर की स्त्री चेतना का पहला स्पंदन है। जब वह किसी घायल पक्षी को सहलाती है, जब मिट्टी में घर बनाती है, जब काग़ज़ पर रंगों से दुनिया रचती है, तब वह समाज के प्रति करुणा, घर के प्रति जुड़ाव और जीवन के प्रति जिज्ञासा पैदा कर रही होती है। यही वह क्षण हैं जिन्हें पहचानने, संजोने और दिशा देने की ज़रूरत है।

आज की बालिका केवल कल की पत्नी, माँ या बहू नहीं है। वह आज की नागरिक है। विचारशील, संवेदनशील और अपनी अस्मिता से जुड़ी हुई। वह जब चुप रहती है, तो जरूरी नहीं कि वह सहमत हो। जब वह मुस्कुराती है, तो जरूरी नहीं कि वह निर्भय है। उसके भीतर की हर चुप्पी, हर प्रश्न और हर हँसी उस बीज की तरह है जिसे अपने पूरेपन में खिलने के लिए सही वातावरण चाहिए।

इसलिए यह ज़रूरी है कि हम बालिकाओं के बचपन को सिर्फ पालन-पोषण नहीं, बल्कि संवर्धन की दृष्टि से देखें। उन्हें केवल शिक्षा नहीं, सुनवाई मिले। उन्हें केवल सुरक्षा नहीं, स्वतंत्रता भी मिले। उन्हें केवल संस्कार नहीं, संवेदना को अभिव्यक्त करने का साहस भी मिले।

स्त्रीत्व की जो नींव हम भविष्य में देखना चाहते हैं, वह बालिका के बचपन में ही रखी जाती है। वह नींव अगर सशक्त होगी, तो समाज में स्त्रियों के अधिकार, गरिमा और स्वायत्तता की इमारत भी टिकेगी। और अगर वह नींव ही डर, दबाव और चुप्पी से बनी होगी, तो चाहे कितने ही 'नारे' लगाए जाएँ, बदलाव संभव नहीं होगा। इसलिए हर बालिका को वह ज़मीन देनी पड़ेगी। जहाँ वह बीज की तरह बोई जाए, और वामा की तरह खिल सके। संरक्षण से नहीं, सहचर्य से विकसित होती हैं बालिकाएँ।

20.07.2025


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